Thursday, 7 November 2019

मोर की सेक्स लाइफ पर बयान देने वाले पूर्व जस्टिस एम.सी शर्मा की सोच से पर्दा उठाती है फिल्म ‘मेड इन चाइना’

प्यार छिपा कर होता है. खासकर भारत में. उसकी तमाम अनुकूल वस्तुएं भी एक तरह के पर्दे के पीछे बिकती है. ऐसे कल्चर वाले देश में बॉलीवुड की पिक्चर आई है. मेड इन चाइना. परिंदा जोशी की नेमसेक नॉवेल पर आधारित फिल्म को मिखिल मुसाले ने डायरेक्ट किया है. यहां हीरो के किरदार में राज कुमार राव है. रघुबीर उर्फ रघु मेहता. पत्नी और एक बच्चे का पिता वाला रघु गुजराती व्यापारी है. जीवन के 13 बिजनेस में सभी आइडिया फ्लॉप रहे. मगर हिम्मत नहीं हारा. स्क्रीन पर रघु बेहद आशावान दिखता है. पॉजीटिव सोचता है. वर्तमान की बेरोजगारी और धीमी अर्थव्यवस्था के बीच उसका किरदार सबल देता है. जीवन में बनने और कुछ करने का. फिर सारा ध्यान एकदम से उन आइडियाज पर केंद्रित हो जाता है. बुरे दिनों के कथानक में अगर रघु बी-ग्रेड है तो देवराज ए-ग्रेड है. देवराज रघु का कजन भाई है. जो उसके मुकाबले कामयाब है और सफल व्यापारी भी. लेकिन एक नागरिक के नाते रघु देश की दो चीजों से अच्छी तरह वाकिफ है. पहला भारतीय लोगों को क्या चाहिए? और दूसरा हमारे इंडिया में प्रोब्लम क्या है?

फिल्म का पहला सीन चाइनीज डेलिगेशन का इंडिया टूर है. डेलिगेशन में चाइनीज जनरल है. जो एक प्रोग्राम में शामिल होता है. कामोत्तेजना के लिए डिब्बाबंद टाइगर पेनिस मेजिक सूप (जो वायग्रा से दस गुना ज्यादा पावरफुल है) का सेवन करता है और बंद कमरे में संदिग्ध हालात में मर जाता है. इंडो-चाइना की संयुक्त जांच बैठती है. उस जांच की आग रघु पर पड़ती है. और यहां से रघु की कहानी खुलती चली जाती है. उसकी चटाई का नाकामयाब कारोबार, चाइना जाकर किसी तरह का बिजनेस लाना, तन्मय शाह (परेश रावल) और कथित टाइगर पेनिस सूप सप्लायर हाओली से मुलाकात. बीते एक-डेढ़ दशक से देश की हर छोटी-बड़ी चीजों पर मेड इन चाइन नजर आ रहा है. चाहे वो नहाने का मग हो या मोबाइल का चार्जर. ऐसे प्रोडक्ट की तादाद इतनी बढ़ गई कि कुछ कथित राष्ट्रवादी संस्थाएं और संगठन इनकी होली जला कर बहिष्कार तक करती है. हाओली अपने एक सवाल में रघु से पूछता है- भारतीय लोगों को क्या चाहिए? रघु- अच्छी सड़के? जवाब- सेक्स! हाओली- “पश्चिमी देशों में सब पैसों के बारे में सोचते हैं. पर भारत और चीन में सब सेक्स के बारे में सोचते रहते हैं. अगर तुम ये प्रोडक्ट भारत में बेचोगे तो हम दोनों करोड़पति बन जाएंगे”.

पब्लिक फोरम में सेक्सोलॉजिस्ट डॉ.वर्धी की स्पीच से रघु के प्रोडक्ट को एक तरह से भरोसा मिलता है. जो बाजार में खूब बिकता है. इसकी बड़ी वजह ये भी है कि हमारे समाज में यौन समस्याओं और जरूरतों पर डॉक्टरों की सलाह बेहद कम ली जाती है. बजाय इसके कि वे (पुरुष-महिला) केमिस्ट से सीधे दवा ले आते हैं. और अगर प्रोडक्ट डॉक्टर से प्रमाणित हो तो उसका इस्तेमाल और भी आसान बन जाता है. डॉ.वर्धी के किरदार में यहां बोमन ईरानी है, जो हाल ही में आई ‘खानदानी शफाखाना’ फिल्म के मैसेज को आगे बढ़ाते हैं- ‘बात तो करो’. यानी सेक्स संबंधी बीमारियों पर खुलकर बात तो करो. तो क्यों न इसे भी अन्य बीमारियों की तरह सहजता से लिया जाए? फिल्म में बताया गया है कि इसका अभाव हमारे जीवन में हताशा, तलाक, घरेलू हिंसा, शोषण और बाल उत्पीड़न समेत न जाने कई अपराधों को जन्म देता है.

राजकुमार राव फिल्म के फिल्म के हर सीन में फिट बैठते है. कारोबार की सच्चाई मालूम चलने पर पत्नी रूक्मणि (मौनी गांगुली) नाराज हो जाती है. इससे आहत रघु को ऐसे कारोबार से घृणा हो जाती है. बिजनेस-फंडिंग सभी को गलत ठहराता है. जैसे कि जो समाज को मंजूर नहीं वो करना ही नहीं चाहिए.शायद इसी सामाजिक दबाव के आवेश में आकर पूर्व में राजस्थान के रिटायर्ड जज एम.सी शर्मा ने यह कहा कि- ‘मोर मोरनी के साथ सेक्स नहीं करता है, मोर ब्रह्मचारी है. जब मोर रोता है तो उसके आसुओं को पी कर मोरनी प्रेग्नेंट होती है.’ इस डायलॉग को दोहराते हुए जवाब में जांच टीम के सामने डॉ.वर्धी ये कहते नजर आते हैं कि-‘यह हमारा सोच है.’ आखिर में फिल्म हमें सेक्स पर बात करने की झिझक पर इस सवाल के साथ छोड़ जाती है कि ‘हम 130 करोड़ बने कैसे?’

Wednesday, 18 September 2019

हारे हुए केस को हाईकोर्ट में चुनौती देने वाले वकील ने #मीटू के साथ क्या किया? : फिल्म सेक्शन-375

‘केस के फैक्ट्स डैमेज हो तो बड़े से बड़ा लॉयर भी कुछ नहीं कर सकता’’-  जेल में बंद रेप के आरोपी से उसके वकील की ये बात वकालत करने वाले और इस फील्ड में आने वालों को सबूत और तथ्यों की अहमियत बताती है.
अपनी स्मृतियों को खंगालकर बताइए, आपने बीते दिनों में उन सबूतों, प्रमाणों, तथ्यों, जांच की रिपोर्टों को संबंधित घटनाओं से जोड़ कर क्या देखा और क्या पाया?
सबसे पहले जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के बेअसर को सही ठहराया गया क्योंकि वो अस्थाई था, कथित गो रक्षकों की पिटाई से पहलू खान की मौत मामले में सबूतों के अभाव में सभी आरोपी बरी, लिंचिंग से घायल तबरेज अंसारी की मौत का कारण पुलिस ने कार्डिएक अरेस्ट बताया, उन्नाव रेप केस में पीड़िता आरोपी विधायक के खिलाफ कार्रवाई की मांग करती रही बहरहाल उसने सड़क हादसे में परिवार को खो दिया, लॉ की छात्रा ने अपने संस्थान के सर्वेसर्वा चिन्मयानंद पर रेप का आरोप लगाया तो उसके जुटाए सबूत होस्टल से मिटा दिए गए, राज्य सरकार की उपेक्षा पर मजबूरन सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और अब बीएचयू में यौन उत्पीड़न के अभियुक्त एक प्रोफेसर की बहाली पर छात्राओं का सड़क पर उतर आना.
इन सब या इससे अलग की घटनाओं को देखकर आपने खुद से क्या सवाल किया? पूरे सिस्टम के बीच हमारा न्याय कहां है? हमारी बात कहां है? जिस वोट के साथ बहुमत की सरकार बनाई उस सुशासन के शासक ने इन बिंदुओं पर कैसा नजरिया पेश किया और उसके सकारात्मक संदेश का क्या हुआ?
डायरेक्टर अजय बहल की सेक्शन-375 फिल्म इन्हीं सब बातों को लेकर आगे बढ़ती है. पावरफुल और प्रिविलेज लोगों का दखल आखिर किस हद तक हो सकता है. साधारण परिवार की अंजली जो पेशे से कॉस्ट्यूम डिजाइनर है. फिल्म प्रोडक्शन की टीम के साथ अपने सीनियर कॉस्ट्यूम डिजाइनर के नीचे असिस्टेंट के तौर पर काम करती है. दफ्तर जाने के लिए नाव पर सवार होकर शहर पहुंचती है. बॉस को ड्रेस दिखाने उसके फ्लैट पर जाती है, जहां बॉस उसके साथ संबंध बनाता है. कुछ समझ पाते कि वो पूरा सीन एक जोर-जबर्दस्ती का नजर आता है. मामला थाने तक पहुंचता है. पुलिस अपनी पूछताछ में वो सब पूछती है जैसे कि वो एक कोर्ट का ट्रायल चल रहा हो. कितने लोग थे?  क्या आरोपी परिचित था? एसॉल्ट की पोजिशन क्या थी? लास्ट पीरियड कब आया था? तमाम सबूतों के आधार पर निचली अदालत ताकतवर आरोपी को दस साल की सजा सुनाती है.
फिल्म की खूबसूरती है कि आमतौर पर जहां कहानियां खत्म होती है. वहां यह फिल्म शुरू होती है. आरोपी का मीडिया ट्रायल, फांसी की मांग, विरोध-प्रदर्शन और #मीटू कैंपेन स्क्रिन पर तेजी से आते हैं. यहां बचाव पक्ष के वकील की भूमिका में अक्षय खन्ना है. जो हाईकोर्ट का रूख करते हैं.आगे ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि किसी झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो वह सच साबित हो जाएगा. बचाव पक्ष का वकील वही करता है जो एक पेशे से वकील करता है. अपने क्लाइंट को बचाना. हाई लेवल की कोर्ट प्रोसिडिंग में स्टोरी के पहले हिस्से के लूप होल को जब बचाव पक्ष का वकील दलीलों और तथ्यों से भरता है तो वह रोमांच पैदा करती है, नजरे स्क्रिन से चिपक जाती है और हैरान करती है. दर्शकों को अभिभूत होने पर मजबूर करती है. इस कदर प्रभावित करती है कि #मीटू जैसा कैंपेन भी कमजोर पड़ता है. जी, हां वही कैंपेन जिसमें जूनियर और अधीनस्थ महिला कर्मचारियों ने पावरफुल और प्रिविलेज बॉस या सीनियर के खिलाफ आवाज उठाई थी. तब न जाने कितने न्यूज चैनलों और अखबारों से इस्तीफे हुए. शूटिंग कैंसिल हुई थी. सरकार के एक मंत्री को तो अपना पद तक छोड़ना पड़ा था. फिल्म के आखिर में पता चलता है कि यह पीड़िता की तरफ से बदले की भावना में उठाया गया कदम था.महत्वकांक्षा के पूरे नहीं होने पर खुद को नुकसान पहुंचाती और फिर अपने बॉस को बर्बाद करने के लिए पुलिस और अदालत का सहारा लेती है.लेकिन सवाल यहीं है कि क्या कोई महिला या युवती किसी एवज में अपने प्राइवेट पार्ट को डैमेज कर सकती है? ऐसा कह पाना मुश्किल है. फिर भी फिल्म शुरू में ही बताती है कि यह कहानी सच्चे केस से प्रेरित है.
निचली अदालत में जीता हुआ और हाईकोर्ट के मजबूत केस में अभियोजक (प्रोजिक्यूटर) पक्ष की तरफ से पैरवी कर रही रिचा चड्ढा का शुरुआत में कोर्ट में केस का प्रेजेंटेशन अच्छा है.उनकी मौजूदगी उम्मीद भरती है. लेकिन जैसे ही बचाव पक्ष के वकील अक्षय खन्ना केंद्र में आते हैं पूरी फिल्म उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है.जैसा की हम ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ फिल्म संजय बारू की भूमिका में उनको देखते हैं. कोर्ट की प्रोसिडिंग के वक्त जब-जब कैमरा आरोपी रोहन की तरफ जाता है ऐसा लगता है कि केस जीतने के करीब पहुंच कर वह परिवार की चाहत में जज के सामने यह कबूल न कर ले की वह दोषी है.यह फिल्म कई जगहों पर फिल्म पिंक की याद दिलाती है.   


Wednesday, 26 June 2019


कॉलेज, मैदान और लड़की का दिल जीतने वाले एक हारे हुए हीरो की कहानी है कबीर सिंह


हां वो कॉलेज का टॉपर है और वो लड़की उसकी जूनियर. सीनियॉरिटी दिखाकर लड़की के करीब आ जाने की कहानी फिल्म कबीर सिंह की है. जिसका निर्देशन संदीप वांगा ने किया है. दिल्ली का एक मेडिकल कॉलेज, जहां से प्रेम कहानी शुरू होती है. लड़की (कियारा आडवाणी) चुप रहकर लड़के (शाहीद कपूर) के हर अच्छे-बुरे कामों में साथ देती जाती है. ऐसी कहानियों पर फिल्मों की भरमार 80-90 के दशक में खूब देखने को मिलती है. लेकिन जहां हाल ही में 17वीं संसदीय चुनाव में सबसे ज्यादा महिलाएं जीतकर संसद गई हो. उस वक्त मर्दवादी सोच पर आधारित फिल्म का आना, यह बताता है कि हम अतीत से नहीं निकल पाए हैं. हो सकता है निर्देशक ने ऐसे प्लॉट को आज के शहरी कॉलेज लाइफ में लड़के-लड़कियों को दिखाने की कोशिश की हो, पर यहां लड़का लड़की की तमाम बातों में दखल करता है- जैसे चुन्नी से सीने को ढकने के लिए बोलना, बिना इजाजत के सरेआम क्लास में उसे खुद की बंदी बता देना या सैकड़ों स्टूडेंट्स के बीच होली पर रंग लगाने का अधिकार भी अपने तक रखना. इस तरह खुद की लाइफ में प्राइवेट स्पेस की चाहत में लड़की की प्रिवेसी को खत्म करता जाता है.

निर्देशक वांगा की करीब तीन घंटे की इस फिल्म का ज्यादा वक्त हीरो पर खर्च किया है. जो लव के चक्कर में गर्लफ्रेंड का केयर-टेकर है. उसे पाने में गुस्से व नफरत को जगह-जगह दिखाता है. जब जात की बात पर लड़की का पिता उसके  शादी के प्रोपोजल को ठुकरा देता है. तो वह खुद को संभालने के लिए शराब का सहारा लेता. इस कदर की हर वक्त नशे में ही रहता है. गर्लफ्रेंड से दूर होने का दर्द उसकी करीब रही दादी ही सझती है. एक सीन में दादी कहती है-

·          एक होता है अपने चाहने वालों का मर जाना.
·          और एक होता है उनका हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चले जाना.
पहले केस में वो इंसान कभी वापस नहीं आएगा. यह कह कर हम अपने आप को समझा लेते हैं जैसे कि मैं-
लेकिन सेकंड केस में बिल्कुल आसान नहीं जैसे कि- वो (कबीर) हम उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं. लेकिन उसका दर्द नहीं बांट सकते हैं

हीरो अपने प्यार को आदर्शवाद के रूप में स्थापित करने के लिए सब कुछ करता है. घर छोड़ देता है. सिगरेट पीता है. शराब के नशे में डूबा रहता है. चरस लेता है. रफ लुक वाली शेव में रहता. जो बताती है कि उस लड़की से अलग होना उसके जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद उससे दूर हो गया हो. यहां तक की एक एक्टर के संपर्क में आने के बाद जब उसे आई-लव-यू ऑफर होता है तो एकदम से आक्रामक होकर पीछे हट जाता है. मानो की वह एक रोबोट हो. सिर्फ अपनी ही बात कहना जानता हो. उसके बावजूद हीरो और हीरोइन के रिलेशनशिप में लव-इमोशन का वैसा वेग देखने को नहीं मिलता जिसे हम अनुराग कश्यप की मनमर्जियां में देखते हैं. तमाम बेदम सीन को डार्क म्यूजिक से भरने की कोशिश की गई है।

फिल्म को देखने पर ऐसा लगता है कि जहां कहीं भी पर कहानी बिखरने लगती है तो उसे समेटने की जिम्मेदारी उसके दोस्तों पर है या फिर हीरो के बड़े भाई पर. दोस्त बार-बार ऐसे हालत में नजर आते हैं जैसे कि इन तीन मेडिकल स्टूडेंट्स की तुलना थ्री इडियट्स के उन तीन इंजीनियरिंग वाले लड़कों से हो. पर ये दोस्त भी वहां पर कमजोर ही मालूम पड़ते हैं. इसकी एक वजह जो हीरो के लिए कुछ-कुछ थैंकलेस से लगते हैं.  यहां तक की हीरो फुटबॉल के मैच के ग्राउंड से लेकर ऑपरेशन थियेटर तक विजेता दिखते हुए भी भीतर से हारा हुआ जान पड़ता है.

 कबीर सिंह फिल्म एक ऐसे मोड़ पर खत्म होती है जहां दूसरे लड़के से शादी होने के बाद लड़की उसका घर छोड़ कर किसी दूसरे शहर में अकेले रहने लगती है. साथ में नौ महीने का गर्भ लिए है. वहीं उसकी मुलाकात एक बार फिर हीरो से होती है. जिसे वह एक बार फिर जीवन में साथ रहने की बात करता है. उसे इस बच्चे से भी कोई एतराज नहीं. काश ऐसा हो पाता कि जहां पर यह कहानी खत्म होती है वहीं से शुरू होती. प्रोग्रेसिव सोसाइटी में रिलेशनशिप पर दर्शकों को कुछ नया देखने को मिलता है. फिल्म में डॉक्टरी के पेशे को लेकर कुछ डॉक्टरों ने सवाल उठाए है. पर शाहीद के साथ यह कोई पहला मामला नहीं इससे पहले भी फिल्म बिजली गुल मीटर चालू में वकील के किरदार में फ्रॉड से पेशे की इमेज खराब करने को लेकर आपत्तियां आई थी. ऐसे में अब निगाहे शाहीद की अगली फिल्म पर रहेंगी.






Wednesday, 6 March 2019

अश्वेतों की जिंदगी कश्मीरियों से कितना मेल खाती है! : फिल्म 'ग्रीन बुक'

बैक-टू-बैक ईयर ऑस्कर का बेस्ट पिक्चर अवार्ड नस्ल-भेद पर आधारित वाली फिल्म को मिला. 2018 में ‘द शेप ऑफर वाटर’ और 2019 में ‘ग्रीन बुक’ को. वो भी तब जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका-मैक्सिको बॉर्डर पर दीवार बनाने के लिए  मजबूती से अड़े हुए हैं. ये मैसेज बताता है कि वो अपने देश में किसे रहने देना चाहते हैं किसे नहीं. इधर लगता है, ऑस्कर का इनडायरेक्ट मैसेज तब तक जारी रहेगा जब तक अश्वेतों (ब्लैक) को उन्हें वो मान-सम्मान नहीं मिल जाता जिनके वे हकदार है.
पीटर फैरेली की निर्देशित फिल्म ग्रीन बुक टोनी लिप की सच्ची कहानी से प्रेरित है. 60 के दशक के बैकड्रॉप पर बनी ये फिल्म न्यूयॉर्क सिटी से शुरू होती है. इटेलियन-अमेरिकन टोनी लिप अपनी पत्नी डोलेरेस और दो बच्चों के साथ एक किराये के मकान में रह रहा होता है और परिवार चलाने के लिए नाइट क्लब में बाउंसर की नौकरी करता है. रेनोवेशन वर्क के चलते दो माह के लिए क्लब बंद हो जाता है और वो बेरोजगार हो जाता है. लेकिन अपनी डाईट पर यकीन रखने वाला टोनी हॉट डॉग खाने के कॉन्टेस्ट में हिस्सा लेता है, और एक के बाद क 26 हॉट डॉग खा जाता है. जीती रकम घर के किराए में चली जाती है. पर रोज-रोज तो वह इतने हॉट-डॉग नहीं खा सकता. किसी पुरानी हिंदी फिल्मों की तरह आर्थिक अभाव से उपजे हालात और परिस्थितियों में जैसे कोई किरदार ज्वैलरी बेचता या किसान अपनी जमीन गिरवी रखवा देता है या बेच देता है. ठीक वैसे ही टोनी अपनी घड़ी बेच आता है. रोजी-रोटी का ये संकट टोनी का अफ्रीकन-अमेरिकन पियानिस्ट व म्यूजिशियन डॉ. डॉन शर्ली के यहां ड्राइवर की नौकरी ऑफर होने के साथ खत्म हो जाता है. लेकिन स्क्रीन पर अजीब सी स्थितियां तब पैदा होती है जब हम एक अश्वेत के यहां श्वेत  को काम करते हुए पाते हैं. वो भी तब जब श्वेत समाज अश्वेतों पर हावी हो.
ये वही दौर था जब विश्व के नक्शे पर तीन बड़ी घटनाएं घटित हो रही थी. पहला भारत-चीन के बीच युद्ध, दूसरा क्यूबा मिसाइल संकट और तीसरा अमेरिका में अश्वेतों की अधिकारों की लड़ाई. नस्ल भेद के इस शोर में पियानिस्ट डॉ. शर्ली अपने ड्राइवर टोनी के साथ आठ सप्ताह के लिए तयशुदा प्रोग्रामों के लिए एक लंबे टूर पर शहरों की तरफ निकल पड़ता हैं. और साथ में होती है ‘ग्रीन बुकः फॉर वेकेशन विदाउट एग्रेवेशन’ यानी 20वीं सदी में जब अश्वेत किसी यात्रा पर निकलता था तो उसे ये किताब साथ रखनी होती थी. इस छोटी सी किताब में अश्वेतों के ठहरने-रहने के लिए होटल की जानकारियां होती थी. या यूं कहे कि एक तरह से गाइड बुक. अगर वो इस जानकारी से इत्तर किसी रेस्टोरेंट, बार या होटेल में जाएगा तो उसे अपमान सहना पड़ सकता है. डायरेक्टर पीटर ने फिल्म का ज्यादा हिस्सा एक बेहद खूबसूरत टूर पर खर्च किया है. जिसके शुरुआत में लगता है कि क्या ये टूर पूरा हो पाएगा या नहीं. लेकिन नोक-झोंक और मन-मुटाव के बाद हम देखते हैं कि श्वेत अश्वेत के जीवन से कितना कुछ सीखता चला जाता है. यात्रा में उसे ये दुनियां प्यारी लगने लगती है. पहले की अपेक्षा टोनी अपनी पत्नी को बेहद भावात्मक पत्र लिखने लग जाता.
फिल्म में अगर कुछ कहीं भयावह मालूम होता है तो वो हैं श्वेतों के बुलाए गए प्रोग्राम में डॉ.शर्ली को रेस्टोरेंट व टॉयलेट इस्तेमाल की अनुमति का न होना. डॉ.शर्ली के क्लासिक म्यूजिक पर श्वेत झूमते, गुनगुनाते और आनंद लेते. ये वो पल होता है जब डॉ.शर्ली खुद को उनके बराबर का पाता, लेकिन स्टेज से उतरते ही उसे हिकारत से भरी निगाहें घेरती चली जाती. दरअसल श्वेत अमेरिकियों को अश्वेतों की रचनात्मकता, उनकी कला, उनकी खोज और भूंमडलीकरण से बने अमेरिका जैसा एक समृद्ध देश तो चाहिए पर वो नहीं. विश्व में अगर एक ध्रूव अफ्रीकन-अमेरिकी है तो दूसरा ध्रूव भारतीय कश्मीरी है. हाल ही में कश्मीर के पुलवामा में जवानों के शहादत पर गुस्साए कुछ राइट विंग के कार्यकर्ताओं ने देहरादून के एक कॉलेज होस्टल में रह रहे कश्मीरी स्टूडेंट्स को पीटा, नोएडा में कई होटल मालिकों ने कश्मीरियों को कमरे तक देने इंकार कर दिया. इनका समर्थन करने वालों को कश्मीर तो चाहिए लेकिन कश्मीरी नहीं. संवैधानिक पद पर बैठे मेघालय के राज्यपाल तथागत राय ने तो उस ट्वीट का समर्थन करते हुए री-ट्वीट किया जिसमें कश्मीरियों की हर वस्तु का बहिष्कार करने की बात लिखी थी. कश्मीरियों को लेकर ये नई बात नहीं है. पिछले कई वर्ष से कश्मीरियों को लेकर ये अवधारणा से चली आ रही है. सबसे पहला किस्सा शेख अब्दुला के जरिए आया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ने वाले शेख अब्दुल्ला जब कश्मीर पहुंचे और सरकारी नौकरी करनी चाही तो उस वक्त राजा हिंदू राजा हरी सिंह ने प्रशासनिक सेवाओं में जगह देने से मना कर दिया था. ठीक ऐसा ही रवैया पाकिस्तान ने कश्मीरियों के साथ अपनाया. 1999 में करगिल युद्ध के बाद वहां के प्रधानमंत्री की तरफ से बयान आया कि एलओसी में जो घुसपैटी है वो हमारे नहीं कश्मीरी है. यहां तक के की युद्ध के शवों को पाकिस्थान ने लेने मना कर दिया. बीते वक्त की घटनाओं ने हमेंशा कश्मीरियों की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े किए, उन्हें विद्रोही की तरह पेश किया गया.
डू द राइट थिंग, द हेल्प और द हेट यू गिव जैसी फिल्में भी अमेरिका में फैले नस्ल भेद की तरफ इशारा करती है. इनकी कहानियों में अश्वेत के अधिकारों की लड़ाई ओपन फ्रंट पर नजर आती है. विचारों से निकलकर सड़क पर दिखती है. लेकिन ग्रीन बुक में टोनी और डॉ.शर्ली के बीच मूल बात निकल कर आती. सबसे पहले वाइन-बार में श्वेतों द्वारा डॉ.शर्ली की पिटाई, फिर पुलिस ऑफीसर द्वारा होटेल में उसके कपड़े उतरवा लेना और आखिर में ऑफीसर का गिरफ्तार कर जेल में डाल देना. बाहर आने के बाद दोनों के बीच बने तनाव में टोनी डॉ.शर्ली से कहता है- ‘तुम नहीं जानते कि वो लोग क्या खाते हैं?, कैसे बात करते हैं? और कैसे रहते हैं? तुम महल में रहते हो और मैं साधारण सी गलियों में.’ इसके जवाब में डॉ. शर्ली कहते हैं-‘हां मैं महल में रहता हूं, गोरे अमेरिकियों का मनोरंजन कर उन पैसों से और ये उन्हें सभ्य बनाता है. लेकिन मुझे न तो अपने लोगों ने स्वीकार किया और न श्वेत-अश्वेत लोगों ने, क्या मैं इंसान नहीं हू तो फिर बताओ टोनी मैं क्या हूं.’ बारिश की लगातार बूंदे डॉ.शर्ली के बहते आंसुओं को धोती जाती है लेकिन आंखों में उभरे उस गुस्से को नहीं जो उसे उस समाज से मिलता है. टूर से जब दोनों लौटते हैं तो वे एक-दूसरे को और भी बेहतर से समझ चुके होते हैं.

Monday, 11 February 2019

दोहरी जिंदगी जीने वाली लड़की की नजर में THUG का मतलब - द हेट यू गिव’

‘द हेट यू गिव’ सुनकर तो यही लगता है जैसे कि किसी लव स्टोरी में ब्रेकअप के बाद दिलजले आशिक या प्यार में धोखा पाने वाली लड़की की बदले की भावना आवाज बनकर आने वाली लाइन रही हो. डायरेक्टर जॉर्ज टिलमैन इसे थोड़ा अलग सदंर्भ में देखते और दिखाते भी है. हां, वो लाइन जरूर मन से निकली है. एंजी थॉमस की ‘द हेट यू गिव’ नॉवेल पर आधारित हूबहू नाम की फिल्म आई है. ये फिल्म एक अश्वेत परिवार के मुखिया मिस्टर कार्टर डायनिंग टेबल पर अपने बच्चों को सख्त हिदायतें देने के साथ शुरू होती है. ठीक वैसे ही जैसा कि एक सामान्य परिवार में पैरेंट्स अपने बच्चों को स्पेशल गेस्ट के सामने न आने की बातें बोलते हैं. इसलिए की बच्चों के कैरेक्टर्स और उनकी परवरिश की बातें उस गेस्ट के साथ न चली जाए. लेकिन कार्टर यहां बच्चों को ऐसे हालातों से निपटने के तरीके बता रहे होते हैं जो उनके सामने कभी भी पैदा हो सकते हैं. कार्टर स्टार (9), सेवन (10) और सकानी (1) को बताता है कि जब तुम्हें पुलिस रोके तो रूक जाना, हाथ ऊपर कर लेना, अपनी कार को रोक देना, हाथ डेशबोर्ड पर रख देना और कुछ मत करना, हमारा हिलना भी शक के दायरे में ला सकता है. दरअसल कार्टर परिवार अमेरिका के जिस गार्डन हाइट्स शहर में रहता है वहां की अफ्रीकन-अमेरिकन आबादी बहुसंख्यक है. लगातार ड्रग्स तस्करी और हिंसक घटनाओं के चलते पुलिस की नजर में अश्वेत समुदाय के लोग और उनका इलाका संदिग्ध की इमेज लिए रहता है.

किसी ने बहुत सही कहा है, हम निहत्थे हो ही नहीं सकते, क्योंकि हमारा रंग ही वो हथियार है जिससे वो डरते हैं. हमारा रंग हमारा अभिमान है, हमारा गुनाह या फिर कोई कमजोरी नहीं. -अश्वेतों की लड़ाई लड़ने वाली वकील का वकतव्य.

डायरेक्टर जॉर्ज ने कहानी को नायिका स्टार के जरिए पेश किया है. 16 साल की स्टार अपने आसपास के माहौल से अच्छी तरह वाकीफ है. बच्चों की सुरक्षा और बेहतर भविष्य के लिए उनकी मां मिसिज कार्टर इलाके से बाहर के विलियमसन स्कूल में एडमिशन करवा देती है, जहां श्वेत परिवारों के बच्चों की संख्या ज्यादा है. सीन के बैकग्राउंड में स्टार की आवाज में चलता वॉयसओवर उसके मां-बाप की पहली मुलाकात, शादी, पिता की शॉप और स्कूल में उसका एक श्वेत लड़के की स्मार्टनैस पर फिदा होना. सब ब्रीफ करता है. अश्वेत होने के चलते स्टार विलियमसन और गार्डन हाइट्स के बीच जीवन के फर्क को अच्छी तरह समझती है. वो एक दोहरी जिंदगी जीने को मजबूर रहती है. इन सबके बावजूद कहीं खुश लगती है तो वह जूतों को देखकर. उसे स्पोर्ट्स जूते खूब पसंद है. उसी तरह जैसे अन्य लड़कियों को गैजेट्स, ड्रेस, जूलरी व डायरी लिखना पसंद होता है. उसकी नजर में जूतों का ख्याल न रखना पाप लगने सा है. कहानी में सीरियस मोड़ तब आता है जब स्टार के बचपन का दोस्त खलील उसी के सामने श्वेत पुलिस ऑफीसर की गोली से मारा जाता है. सिर्फ इसलिए की वो अश्वेत है, रात के वक्त कार की साथ वाली सीट पर उसके साथ लड़की होती है या फिर स्टार की तरह उसे किसी से वो हिदायतें नहीं मिली होती है. खलील की मौत के बाद  नाराज अश्वेत समुदाय इंसाफ के लिए सड़क पर उतर आता है.

नस्लभेद विषय पर बनी ‘द हेट यू गिव’ कोई पहली फिल्म नहीं है। इससे पहले भी ‘डू दा राइट थिंग’ फिल्म आ चुकी है. जिसमें पुलिस का अश्वेतों के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल है. श्वेत के एक रेस्टोरेंट में अश्वेतों के साथ व्यवहार है. आगे अश्वेतों का रोष, नारेबाजी और आगजनी है. जबकि टेट टेयलर की निर्देशित फिल्म ‘द हेल्प’ में श्वेतों के घरों में काम करने वाली अश्वेत महिलाओं के प्रति व्यवहर एक अलग नजरिया पेश करता है. उन अश्वेत महिलाओं को गुलाम समझ लिया जाता है. ड्यूटी टाइम में उन्हें मालिकों का टॉयलेट तक इस्तेमाल करने की मनाही होती है. दोनों कहानियों से जॉर्ज की ये कहानी एक कदम आगे हैं, जहां संदिग्ध देखते हुए अश्वेत को पुलिस गोली मार देती है या गिरफ्तार कर लेती है या फिर पूछताछ में उन्हें सवालों से हतोत्साह कर देती है. शायद इसीलिए भी स्टार को गार्डन हाइट्स की जगह विलियमसन की जिंदगी अच्छी लगती है. लेकिन स्कूल में अपनी आइडेंटिटी को दोस्तों से छिपाए रखना उसकी बैचेनी की वजह हमेशा बनी रहती है. औरों की तरह वो आत्मविश्वास से लबरेज नहीं दिखती. उसे मालूम चल जाता है कि ये जीवन उसके लिए THUG है, जिसका अर्थ ‘जो समाज हमें बचपन में देता है वही उन पर भरी पड़ता है जब हम बड़े होकर बिगड़ जाते हैं.’ इस बात को साबित करने के फिल्म के आखिर में वो सीन उभरता है, जहां 8 साल का सकानी अपने परिवार को बचाने के लिए अपने ही समुदाय के ड्रग सप्लायर माफिया किंग पर रिवॉल्वर तान देता है.

फिल्म की खासियत है कि श्वेत-अश्वेत दोनों पक्षों को संतुलित रखा है.अगर स्कूल में स्टार की दोस्त हेली को अश्वेतों से नफरत है तो उसका बेहतर जवाब स्टार का बॉयफ्रेंड क्रिस है. जो कहता कि ‘मुझे इंसानियत के रंग से प्यार है.’ उधर स्टार खुद अपने ही समुदाय के भीतर गैर कानूनी काम करने वाले किंग के खिलाफ गवाह बन जाती है. गलत को गलत और सही को सही के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका-मैक्सिको के बॉर्डर पर दीवार बनाने का विचार कितना सही है पता नहीं. वो कहते हैं कि अवैध प्रवासियों को बर्दाश्त करना दया नहीं क्रूरता है. तो हमें डेमोक्रेटिक खेमे में राष्ट्रपति उम्मीदवार की दौड़ में शामिल कमला हैरिस और तुलसी गबार्ड को लेकर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं. राष्ट्रपति चुनाव में पौने साल का वक्त है. चुनावी राजनीति में कब कौन सा मुद्दा बन जाए, कोई नहीं जानता. ये सही है कि वहां के लिबरल समाज ने अश्वेत समुदाय से आने वाले बराक ओबामा को अमेरिका का सर्वोचच्च पद मिला, लेकिन ब्लैक गांधी के नाम से पहचाने जाने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर के आंदोलन से मिले अश्वेतों के अधिकार के बावजूद वहां का समाज उन्हें कम ही सहज लेता है.

Thursday, 7 February 2019

आपने ओशो को कितना जाना? : वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री



कोई किताब छिप-छिपकर पढ़ीं ही क्यों जानी चाहिए?  जवाब पूरी तरह से नहीं मालूम. संभोग से समाधि की ओर टाइटल वाली किताब 5 साल पहले पढ़ी थी. ओशो की यह किताब जब-तब पढ़ता अकेले में ही पढ़ता. घर पर किसी की नजर न पड़ जाए, सवाल न पूछे जाए इसलिए पढ़ने के तुरंत बाद उसे बैग में रख देता. तब ओशो को पहली बार उनकी किताब से जाना. आज दूसरी बार उन पर बनी नेटफ्लिक्स की वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री डॉक्यूमेंट्री से जाना. चापमैन वे और मेक्लैन वे के निर्देशन में बने पहले सीजन में 6 एपिसोड है. जिसमें सब कुछ ओरिजनल है. चाहे वो कैरेक्टर्स हो या मीडिया की रिपोर्टिंग या फिर आश्रम में सन्यासियों का ओसो को भगवान रजनीश पुकारना. डॉक्यूमेंट्री साल 1981 से शुरू होती है. पहले सीन में जॉन सिल्वरटूथ अमेरिका के ऑरेगन के एंटेलोप टाउन की बसावट बताते हैं. बंजर जमीन पर गिने-चुने लोगों का निर्वहन. टाउन  को डिवलपमेंट का इंतजार. स्क्रीन पर मां आनंद शीला नजर आती है. वो बताना शुरू करती है और कहानी फ्लैशबैक में चलती है. साल 1968, शीला 16 साल की थी जब वो भगवान रजनीश से बोम्बे में मिली. आगे शीला रजनीश के स्वरूप का वर्णन करती हैं- भगवान को देख लेने के बाद मेरा जीवन पूर्ण हो गया, उनके जीभ पर सरस्वती बैठती थी . आगे बताती हैं- वे स्प्रिचुअलिटी, कैपिटलिज्म और सेक्सुअलिटी पर बोलते थे. मैरून रंग के लिबाज में लिपटे महिला-पुरुष सन्यासियों का गले मिलना, बिना म्यूजिक पर झूमते रहना और किस्स करना ये सभी सीन किताब में लिखी बातों को ताजा करती जाती है.

तमाम दुखों से मुक्ति और सच को जान लेने वाले फिलोसोफी ने रजनीश को दुनियां के अलग-अलग कोनों से सन्यासी दिए. उनमें ऑस्ट्रेलिया के पर्थ से जेनी और रोजर का भी एक जोड़ा था. बड़ी तादाद में सन्यासियों के साथ रजनीश बोम्बे से पुणे आश्रम शिफ्ट हुए. धीरे-धीरे यहां एक इंटरनेशनल कम्यून बनता नजर आने लगा. इस कल्ट के संस्थापक रजनीश बने. कल्ट और धर्म में फर्क है. ये भी स्पष्ट है कि कल्ट धर्म का शुरुआती चरण है. सेक्सुअलिटी पर जिस उन्मुक्त नजरिये को लेकर रजनीश आए वो कट्टर हिंदुओं को स्वीकार नहीं था. सन्यासियों के बीच रजनीश पर चाकू फेंका गया. जैसा कि नाराज जनता नेताओं पर चप्पले-जूते फेंक जाती है. हालात पॉलिटिकल हो गए. दिल्ली, कच्छ जैसे शहरों में जगह नहीं मिलने पर रजनीश ने अमेरिका जाना तय किया. जगह तलाशने की जिम्मेदारी लक्ष्मी की जगह पर्सनल सेक्रेटरी बनी मां शीला को मिली.
   

रजनीशपुरम, जब अमेरिकी सरकार को अतीत का एक हादसा याद दिला गया

अमेरिका की धरती पर ये पहली बार था जब कोई बाहरी अध्यात्मिक गुरु आया और वहां की बंजर भूमि वाले एंटेलोप टाउन को पूरे विश्व के लिए मॉडल बना गया. दरअसल रजनीश के साथ वही लोग जुड़े जो अपने जीवन में संतुष्ट नहीं थे. मेडिटेशन के दौरान वे जान गए थे अब उनके लिए सुप्रीम भगवान रजनीश ही है. वहां रजनीशपुरम आश्रम बसाने में सैकड़ों सन्यासियों को काम मिला. अलग-अलग शिफ्ट में काम करते हुए सन्यासियों ने धरती को उपजाऊ बनाया, खुद की बिजली बनाई, रहने के लिए कॉम्प्लेक्स, स्कूल, हॉस्पिटल, लैब, रेस्टोरेंट, बस सर्विसेज, सिक्युरिटी और छोटा सा एयरपोर्ट सब कुछ अव्वल दर्जे का. हमारे आस-पास के मौजूदा सिस्टम को देखकर जो नाराजागी आती है, वहीं रजनीश के इस मॉडल के देखकर सुकुन मिलता है. डॉक्यूमेंट्री में रजनीशपुरम के लिए फंडिंग का जरिया सन्यासियों की मदद, बनाई गई शॉपिंग कम्प्लेक्स में प्रोडक्ट की बिक्री और इंडिया से लाया गया वो पैसा जिसे वहां सन्यासियों ने लोन के जरिए बटौरा था। लेकिन कई अमेरीकियों ने रजनीशपुरम की कार्यशैली और गतिविधियों पर एतराज जताया. एक अमेरिकी महिला ये कहते हुए दिखती है कि वे घुसपैठ कर रहे है, हो सकता है वे हथियारों के साथ न हो लेकिन पैसा और उनका अनैतिक सेक्स साथ है. लेकिन सन्यासियों ने रजनीशपुरम को बचाने में पूरी ताकत लगा दी. वहां हुए चुनावों में आश्रम के कृष्ण देवा मेयर चुने गए. ये जीत आश्रम पर मंडराते संकट से राहत भरा था. ओरेगन के जनरल एटॉर्नी फ्रोहेनमेयर ने कहा कि रजनीशपुरम सिक्युरिटी हथियार लैस है, उसके पास आसू गैस ग्रैनेड भी, किसी तरह की धमकी से सिविल वॉर के हालात हो सकते हैं. अगर अमेरिका को अपनी धरती पर 9/11 हादसे से पहले किसी ने झकझोरा था तो वो मास सुसाइड था. डॉक्यूमेंट्री में जिम जोन्स का जिक्र किया गया है. बात 1978 की है, जगह गुयाना का जोन्स टाउन. कल्ट लीडर जिम जोन्स ने सैकड़ों समर्थकों को एक साथ सायनाइड मिले हुए जूस को पीने के लिए मजबूर किया.

आमने-सामने हुए गुरु-शिष्य

डॉक्यूमेंट्री में पावरफुल तंत्र का एक आश्रम के साथ संघर्ष दिलचस्प लगता है. आश्रम के सन्यासियों में बहुत से सन्यासी अमेरिकी थे. जो न सिर्फ अधिकारों के प्रति जागरूक थे बल्कि रजनीशपुरम के बने रहने की लड़ाई में कई मोर्चों को संभाले हुए थे. उनमें एक थे स्वामी प्रेम नीरेन. उनके कानून की बेहतर समझ ने रजनीश को एक बार गिरफ्तारी से भी मुक्त करवाया. पर यहां पूरी लड़ाई में शीला ताकतवर महिला बन कर उभरती है. चाहे वो लड़ाई सड़क पर हो या कोर्ट और न्यूज रूम में डिफेंड करना हो. उनका जादूई अंदाज ध्यान खींचता है. इधर, रजनीश से हॉलीवुड का एक ग्रुप जुड़ता है. ग्रुप के केंद्र में हासिया होती है. गॉड फादर जैसी फिल्म में बतौर अभिनेत्री काम कर चुकी हासिया रजनीश को कीमती वॉच और अन्य दूसरी चीजें गिफ्ट करती है. साल 1982 में रजनीश ने धार्मिक नेता के तौर पर विजा के लिए अप्लाई किया. शीला कहती हैं भगवान साइडट्रेक हो गए, दुर्भाग्यवश उनके स्वभाव में बदलाव आ गया है. यहां एक सीन में जेनी को ये कहते हुए सुनते हैं कि शीला डॉ. देवा राज को पसंद नहीं करती थी. डॉ. देवा राज से हासिया की शादी के बाद उसकी रजनीश तक ज्यादा पहुंच होने लगी. इससे शीला हारा हुआ महसूस करने लगी. ये डर भी सताया कि उसके भगवान रजनीश खतरे में हैं. यह खतरा उनके डॉ. देवा राज से ही है. भगवान को बचाने की चाहत में महोत्सव के दौरान जेनी डॉ. देवा को मॉर्फिन का इंजेक्शन लगाने में कामयाब हो जाती है. इसके बाद डॉक्यूमेंट्री में कुछ चीजे अस्पष्ट दिखती है. साल 1985 में शीला और उसके ग्रुप में जेनी व कुछ अन्य सन्यासी आश्रम छोड़ देते हैं. इधर, टीवी पर रजनीश आते हैं. वे करीब साढ़े तीन साल बाद चुप्पी तोड़ते हैं. आश्रम में हत्या के पीछे शीला और उसके ग्रुप को जिम्मेदार ठहराते हैं. ये सुन जर्मनी में बैठी शीला शॉक को लगता है. यह पहली बार था जब गुरु-शिष्ट आमने-सामने हुए. रजनीश शीला को फांसीवाद बताते हैं. वो कहते हैं कि शीला अपराधों के बोझ से सुसाइड कर लेंगी. शीला टीवी पर बयान देती हैं कि वक्त आ गया है लोगों को आपका सच जानने का कि आप कौन है. आप जीनियस है. एक तरफ सुंदर व्यक्ति और दूसरी तरफ लोगों का शोषण करने वाले. इस भीतरघात का फायदा पुलिस और फेडरल एजेंसी जैसी टीमों को रजनीशपुरम बंद करवाने, रजनीश की गिरफ्तारी और फिर अमेरिका छोड़ने के लिए मजबूर करने में खूब फायदा मिला.

सिर्फ ओशो ही नहीं हमारे आसपास श्रीश्री रविशंकर व महेश योगी जैसे कई धार्मिक व अध्यात्मिक गुरु हुए जिन्होंने खुद को प्राचीन दर्शनिक तौर पर स्थापित किया. नाम से भी और स्वरूप से भी. उनका देश के बड़े बिजनेसमैन की तरह पैसे बनाने और साम्राज्य स्थापित करने से भ्रम की परत बीच में हमेशा बनी रही. इसके बावजूद उनके प्रति समर्पण क्यों? जीवन अस्थिर जरूर है, व्यक्तित्व जरूर अधूरा है. फिर भी हम अपनी आजादी क्यों दे?  डॉक्यूमेंट्री में रजनीशपुरम छोड़ने पर शीला कहती है कि उस वक्त उन्होंने पहली बार खुद को आजाद पाया. जबकि रजनीश ओशो चाहकर भी आजाद नहीं हो पाए. 11 दिसंबर को जन्मे ओशो 19 जनवरी,1990 को अपने बिस्तर पर मृत मिले. औरों को जिंदगी का पाठ पढ़ाने वाला वह आदमी खुद के लिए ऐसा सिद्धांत या दर्शन न तलाश सका जिसे ये कहा जा सके कि उन्होंने पूरी जिंदगी जी.




Thursday, 31 January 2019

जर्नलिज्म की दुनियां में कॉल्विन एक आंख वाली जर्नलिस्ट के नाम से जानी गई - फिल्म ‘अ प्राइवेट वॉर’

“मैं नहीं जानती की आगे क्या होग? कौन मरेगा और कौन जिएगा? मैं नहीं चाहती कि मेरे शब्द कागज पर महज स्याही बन कर रह जाए.  मैं चाहती हूं कि दुनियां मेरी कहानी जानें कि यह बच्चा मर रहा है. पूरी की पूरी एक पीढ़ी खत्म हो रही है. ये भूखमरी, बीमारी और ठंड से मर रहे हैं.”- साल 2012 में होम्स शहर पर हमले के दौरान एक इमारत में डेढ़ साल के बच्चे के साथ छिपी सीरियाई महिला का जर्नलिस्ट कॉल्विन को दिए गए इंटरव्यू में.
#tenyearchallenge में फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर आने वाली ज्यादातर तस्वीरें खूबसूरत थी, प्रोग्रेसिव थी. दो तस्वीरों में दस साल के अंतर में तब और अब दिलचस्प लगी. इसके उलट इराक, लीबिया, यमन और सीरिया की फ्रेम वाली तस्वीर पर सबसे ज्यादा वक्त बिता. वजह अघोषित युद्व से उजड़े देशों की इन तस्वीरों ने भीतर तक झकझोरा. यहां भयावह हालात में जिंदगियों को अगर कोई बेहतर ढंग से संबोधित करती है तो वो है ‘अ प्राइवेट वॉर’ फिल्म. जर्नलिस्ट मेरी कॉल्विन (रोजमंड पाईक) की वॉर रिपोर्टिंग पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन मैथ्यू हायनेमेन ने किया है. फिल्म दो लाइनों में इंट्रोड्यूस करवाती है- ‘इराक, अफगानिस्तान से लेकर सीरिया में वॉर पर रिपोर्टिगं करने वाली मेरी कॉल्विन अमेरिकन है और साल 1986 में करिअर की शुरुआत वॉर रिपोर्टिंग से की.’ स्क्रीन पर अगला सीन सीरिया के होम्स शहर का उभरता है, जहां की आलिशान इमारतें हवाई हमलों से अब खंडर में तब्दील हो चुकी है. कहानी होम्स की रिपोर्टिंग से 11 साल पहले यानी 2001 में लंदन से शुरू होती है. कॉल्विन ब्रिटिश मेगजीन द संडे टाइम्स के लिए काम करती है. बॉस कॉल्विन को फिलिस्तीन जाकर रिपोर्टिंग करने का सुझाव देता है। पर वो इंकार करते हुए श्रीलंका के वान्नी शहर पर रिपोर्टिंग की बात कहती है. जो लिट्टे के कब्जे में हैं. उसके खिलाफ वहां की सरकार का संघर्ष जारी है. ये वही शहर है जहां की रिपोर्टिंग पर सरकार ने छह से ज्यादा सालों तक बैन रखा था. इसलिए की हजारों निर्दोष लोगों की हत्या वैश्विक स्तर पर मुद्दा न बन जाए. सुपर पावर में श्रेणीबद्ध देश अपने-अपने हित न साधने लग जाए.

फिल्म जर्नलिस्ट कॉल्विन की बायोपिक है. यहां उनकी पर्सनल और पब्लिक दोनों लाइफ को दिखाया है. उम्र ज्यादा होने के चलते उन्हें बच्चे की ख्वाहिश रह जाती है. लिट्टे नेता थामीसेल्वन का इंटरव्यू कर लौटते वक्त वान्नी के जंगलों में कॉल्विन हवाई हमले में एक आंख की रोशनी खो बैठती है. ये वही साल था जब कॉल्विन को फॉरेन कोरेसपोंडेंट ऑफ द ईयर का ब्रिटिश प्रेस अवार्ड मिला. पति से अलग होने और एक आंख की रोशनी जाने के बाद भी उनका जर्नलिज्म के प्रति उत्साह कभी कम नहीं हुआ. आगे स्क्रीन पर टाइमलाइन फ्लैश होती है. साल 2003, इराक बॉर्डर. यानी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का इलाका. इस्लामिक लड़ाकों द्वारा निशाने बनाए गए वहां के पुरुषों की मौत पर उनकी महिलाओं के मातम को जर्नलिस्ट कॉल्विन, दोस्त मुराद और फ्रीलांस फोटोग्राफर पॉल बेहद करीबी से देखते हैं.
डायरेक्टर मैथ्यू की ये फिल्म एली चॉरकी की निर्देशित हेरिसंस फ्लावर फिल्म की याद दिलाती है. जिसमें पुलित्जर विजेता फोटोग्राफर मिस्टर हेरिसन नब्बे के दशक में युगोस्लाविया वार की कवरेज के लिए जाता है. वहां से उसके मरने की खबर आती है. उस खबर पर उसकी पत्नी मिसिज हेरिसन यकीन करने से इंकार कर देती है. वो अपने पति को ढूंढने अमेरिका से यूगोस्लाविया रवाना होती है. इस जर्नी में उसे बम धमाकों- गोलियों और नागरिकों की चीखती-चिल्लाती आवाजें परेशान करती है. लड़ाकों द्वारा किए गए रेप की घटनाएं उसे स्तब्ध कर देती है. ठीक उसी तरह कॉल्विन को रिपोर्टिंग के दौरान ये सभी दृश्य बैचेन करते हैं. चाहे उसकी जर्नी के पड़ाव के साल 2009 में अफगानिस्तान का मरजाह शहर हो या फिर साल 2011 में लीबिया का मिसराता शहर हो. बाब-अल-अजिजिया पैलेस में लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी कॉलविन से ये कहने से नहीं कतराते कि उनके देश में महिलाओं और बच्चों की हत्याओं के पीछे अलकायदा के लड़ाके हैं. अनगिनत मौतों पर हुक्मरानों की जिम्मेदारी तय नहीं होने पर कॉल्विन वॉर रिपोर्टिंग को प्राइवेट वॉर बना लेती है. साल 2012 में सीरिया के होम्स शहर में लगातार हमलों की वजह बच्चों-गर्भवती महिलाओं की भूखमरी और उपचार के अभाव में हुई मौतों पर सीएनएन-बीबीसी जैसे चैनलों को एक साथ लाइव रिपोर्ट करती है. तब उन नागरिकों की जुबां पर एक ही लाइन थी- ‘हमें हमारे हुक्मरानों-सरकारों ने अनाथों की तरह क्यों त्यागा हुआ है’.

मौटे तौर पर डायरेक्टर मैथ्यू जर्नलिस्ट मेरी कॉल्विन के जरिए युद्ध ग्रस्त देशों की स्थिति को स्पष्ट किया है. फिल्म बताती है कि खुद की सरजमीं पर हम कितने सुरक्षित है? फिर चाहे उस सिस्टम को हमने ही मान्यता दी हो या उस सिस्टम में जबर्दस्ती सत्तासीन होने वाले हो. हमारे हितों की रक्षा नहीं करने वाले हमारी नजरों में सभी विलेन हो जाते हैं? अगर यहां की सरकारें-हुक्मरान विरोधियों के खिलाफ लड़ने में असमर्थ थी तो वे देश खुलकर मदद के रूप सामने क्यों नहीं आए जो खुद को सुपर पावर कहते हैं. बेकसूर लोगों की अमानवीय हत्याओं पर सुपर पावर जैसे देशों की नैतिकता कहां चली गई थी? संघर्ष को नासूर बनने से रोका जा सकता था. लेकिन वहां पर हर देश नीतिगत था. जर्नलिस्ट कॉल्विन ने साल 2012 में जहां आखिरी सांसे ली उस सीरिया देश में उनकी मौत तक 5 लाख लोग जान गवां चुके हैं.

Saturday, 26 January 2019

लूज टॉक पर स्टॉप लगा पाएगी फिल्म ‘सोनी’!



पुलिस की वर्दी, कंधे पर लगे डबल स्टार और आंखों में गंभीर विचार लिए महिला ऑफीसर का ये पोस्टर बेहद अट्रेक्ट करता है. और ध्यान खींचता वो सीन जहां सर्द की रात में सुनसान रास्ते से साइकिल से जाती युवती को एक युवक तंग करता है. पोस्टर और सीन दोनों सोनी फिल्म के हैं. इवान आयर के निर्देशन में बनी ये फिल्म नेटफ्लिक्स की है. लंबे वक्त के बाद ऐसी फिल्म आई है जिसका शुरुआती सीन साल 2012 के दिल्ली निर्भया केस की संभवतः याद दिलाता है. कहानी के केंद्र में दिल्ल पुलिस की दो महिला ऑफीसर है. पहली सोनी और दूसरी उसकी सुप्रीटेंडेंट कल्पना. सोनी अक्सर बदतमिजी से पेश आने वालों पर बिफर पड़ती है. इसलिए नहीं कि वो पुलिस वाली है बल्कि उसने सोसायटी से डील करने के लिए खुद को ऐसा तैयार किया। ये हम उसके सार्वजिनक जीवन के साथ-साथ निजी जीवन में भी देखते हैं.

स्क्रीन पर दर्शक इस इंतजार में रहते हैं कि दोनों ऑफीसरों की इंवेस्टिगेशन से किसी ऐसे केस से भूचाल आएगा जो न जाने कहानी को किस चरम पर ले जाएगा? वो इंतजार एक ऐसी सच्चाई में तब्दील हो जाती है जिसे हम आजतक नजरअंदाज करते ही आए हैं. जी हां, राह चलती महिलाओं पर फब्तियां कसने, सड़क किनारे खड़े युवकों के ग्रुप से महिलाओं के रंग, रूप और सेक्सुअलिटी पर आती आवाजें (लूज टॉक) और महिला आधारित तमाम तरह के गाली-गालौज.  वैसे इस विषय को यहां पर पुरुष तक ही सीमित रखा है. फिल्म में पुलिस द्वारा चलाए गए आसामजिक तत्वों के खिलाफ ऑपरेशन की हिस्सा रही सोनी को युवती के तौर पर ये सब चीजें सताती है. ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेटर हार्दिक पांड्या और केएल राहुल  के कॉफी विद करन शो पर चीयरलीडर्स को लेकर कही गई बातों ने सबको हैरान-परेशान कर दिया था. हमारे यहां महिलाओं पर कमेंट करने वाले पॉलिटिशियन और सेलेब्रिटिज की फेहरिस्त लंबी है. जैसे दिग्विज्य सिंह का महिलाओं पर दिया गया बयानटंच माल या पीएम नरेंद्र मोदी का शशि थरूर की पत्नी  को 100 करोड़ की गर्लफ्रेंड कहना.

डायरेक्टर आयर ने फिल्म को ऑफबीट बनाए रखने में सावधानी बरती है. दो-सवा दो घंटे की कहानी में अलग-अलग बिंदुओं को स्क्रीन पर पेश किया है. चाहे वो उनका पारिवारिक जीवन हो या ड्यूटी और पितृत्तात्मक का प्रेशर हो. अपराधियों और आरोपियों के खिलाफ सोनी के अपनाए गए रवैये की शिकायतें  डिपार्टमेंट के आला अफ्सरों तक पहुंचती है. यहां कल्पना अक्सर सोनी को बचाने के कोशिशें करती है। इसलिए कि डिपार्टमेंट को सोनी जैसे ईमानदार ऑफीसरों की जरूरत है. पर वहीं कल्पना अपने सीनियर ऑफीसर और पति संदीप सिंह के सामने कई जगहों पर शब्दहीन दिखती है. संदीप कल्पना से बार-बार कहता कि तुम जूनियर से इतनी अटैच क्यों हो जाती हो, न जाने हमने तुम्हें आईपीएस चुन ही क्यों.

फिल्म की खासियत यह कि बैचेन कर देने वाले सीन में कोई बैकग्राउंड म्यूजिक या बैकस्टोरी नहीं है. स्क्रीन पर जितना ध्यान खींचती है वो सब अभिनय और डायरेक्शन कैमरे का कमाल है. इस टेक्निक को सिंगल टेक कहते हैं. जो थोड़े लंबे होते हैं पर बोर नहीं करते. क्योंकि कंटेंट रियल लगता है. पुलिसकर्मी की सामान्य जिंदगी कैसी होती है. खासकर महिला की, जब वो किसी केस को डील करती है तो उन्हें ना जाने किन-किन कमेंट्स और प्रेशर का सामना करना पड़ता है. वो सब सोनी के जरिए देखते हैं. वो नेवी ऑफीसर द्वारा शराब पीकर गाड़ी चलाने पर पकड़े जाने पर उसकी दबंगई हो या लेडीज टॉयलेट में ड्रग्स-गांजा लेने वाले युवकों के पीछे पॉलिटिकल पावर. महिलाओं पर फब्तियां कसने और मसखरे मारने का जो कल्चर सड़क और सुनसान जगहों से पनपा अब उससे पुलिस कंट्रोल रूम भी अछूता नहीं लगता.  वहां भी अनजान कॉलिंग से महिलाओं की आवाज सुनने के लिए कॉल आने लगे  हैं.

मर्दवादी सोच पर फिल्में खूब बनीं है. उनके पीड़ित किरदारों के आंतरिक और बाह्य जीवन में लाचारपन और बेबस ही दिखाया. पर डायरेक्टर आयर ने ऐसे किरदारों को पुलिस की वर्दी से उसे ताकतवर दिखाया है. वो भी बिना किसी मुहीम और बदले की भावना के. कभी साथ में रहने वाले नवीन के भरोसा तोड़ने पर सोनी का रवैया दर्शकों को कठोर लग सकता है. लेकिन वो खुद सहज लगती है. कहानी को गहरा करने के लिए किस्सों का इस्तेमाल किया गया है. सोनी की मकान मालकिन उसे छेड़खानी से बचने के लिए सिंदुर लगा कर जाने का सुझाव देती है. आखिर में फिल्म का फेमिनिज्म का टेस्ट तब और तेज हो जाता है जब कल्पना अपने जूनियर ऑफीसर सोनी को फेमिनिस्ट पॉइट अमृता प्रीतम की नॉवले रसीदी टिकट थमाती है.  


Monday, 14 January 2019

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर पर बनी फिल्म क्या डॉ. सिंह की मिनी बायोपिक है?

के सरा-सरा यानी जो होगासो होगा. कांग्रेस की आपत्ति के बाद भी द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म रिलीज हो गई. कुछ दर्शकों (बीजेपी वालों) ने देख लिया और सीना भी चौड़ा कर लिया. और क्रिटिक्स ने द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर किताब आधारित नेमसेक फिल्म की फैक्ट से तुलना भी कर दी. विजय रत्नाकर गुट्टे की निर्देशित फिल्म को मिली-जुली प्रतिक्रियाएं मिली. 2019 के लोकसभा चुनाव नजदीक है. ऐसे में पॉलिटिकल ड्रामा जॉनर की फिल्म का आना और वो भी उस सरकार पर जिसे सत्ता से हटाने के लिए देशभर में मुहिम चली थी. लोकपाल बिल लाए अन्यथा जाए. मुहिम जनता के मूड में बदलाव लाती है और फिल्में दर्शकों में. ऐसी फिल्मों को देखना जरूरी तब और भी हो जाता जब आप उस मुहिम के भागीदार रहे हो. ताकि रील और रियल में फर्क को समझा जा सके. 6-7 साल पहले जब-जब स्क्रीन  और न्यूज पेपर्स में घोटालों-क्रप्शन पर खबरें देखीं-पढ़ीं गई तब-तब जुबां से एक ही लाइन निकली  ये सरकार गिर जाएलोकसभा के मध्यावधि चुनाव हो जाए और इस पीएम का इस्तीफा हो जाए.

भारतीय राजनीति के इतिहास में एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के नाम से दर्ज हो चुके पूर्व पीएम डॉ.मनमोहन सिंह को इस फिल्म में वर्ष 2004 से दिखाया गया है. यहां उनके किरदार में अनुपम खैर है. फिल्म खास पीरियड पर बनी हैइसलिए उस दौर के कैरेक्टर के नाम हूबहू लिए गए है. इसके नैरेटर में संजय बारू (अक्षय खन्ना) है. जो पीएम के मीडिया एडवाइजर की भूमिका में हैं. हम दर्शक कहानी को उन्हीं के नजरीये से देख रहे होते हैं कि दस जनपथ और पीएमओ पर क्या-क्या चर्चाएं हैकैसे समीकरण है और कौन किसकी आवाज है? हॉल में उस वक्त और जोर से ठहाके लगते हैंसीटियां बजती है जब यूपीए-1 को भारी बहुमत के बावजूद सोनिया गांधी (टी सुजैन बर्नर्ट) पीएम का पद स्वीकार करने से इंकार कर देती है और मीडिया को ब्रीफ करने के लिए  राहुल गांधी (अर्जुन माथुर) स्क्रीन पर आते हैं. डायरेक्टर रत्नाकर ने फिल्म को रियल व्यू देने के लिए उस वक्त के फुटेज का इस्तेमाल किया है जिसमें सुषमा स्वराजउमा भारती और बाला साहेब ठाकरे अपने-अपने बयान में पीएम पद पर सोनिया गांधी की दावेदारी को अस्वीकार्य बताया. गठबंधन वाली सरकार के लिए पीएम पद पर सोनिया गांधी डॉ. मनमोहन सिंह के नाम की घोषणा करती है. इस पर शपथ समारोह में अटल जी को लालकृष्ण आडवाणी से मास्टर स्ट्रॉक कहते सुने जाते हैं.

स्क्रीन पर संजय बारू की एंट्री दिलचस्प लगती है. ऐसा लगता है कि मानों अब हम करीब दो घंटे की फिल्म में विपक्षियों के कथित देश के कीमती समय में से दस साल की बर्बादी को देख पाएंगे. मीडिया एडवाइजर के तौर पर संजय पीएम डॉ. सिंह की तरफ से मीडिया को ही टैकल करने में नाकाम लगते हैं. फिल्म में बार-बार उन्हें पीएम की तरफ से स्पीच लिखने का श्रेय मिलता है. पर उसका एक भी नमूना ऐसे किसी सीन में नहीं दिखता जो उनकी इमेज की छाप छोड़ती हो. यहां तक की संसद में पक्ष-विपक्ष के गतिरोध पर पीएम डॉ. सिंह को बोलने की बजाय हंगामे में सिर्फ इधर-उधर ताकते हुए नजर आते हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी वे बेअसर से लगते हैं. हो सकता है संजय रियल में अलग हो पर रील में तो वे पीएम डॉ. सिंह को एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर बनाने में जुटे हुए से लगते हैं. कहानीकार की भूमिका में संजय एक परिवार का पीएम पर हावी बताते हैं. या यूं कहे पार्टी वर्सेज पीएम. कुल मिलाकर ये उसी  धारणा को साथ लेकर चलती है जो साल 2004-14 तक रही. न्यूक्लीयर डील पर कम्युनिस्ट पार्टी की आपत्ति के बाद सोनिया गांधी और पीएम डॉ. सिंह के बीच तनाव दिखाया है. ये सच है कि राहुल गांधी ने मीडिया के सामने सरकार के एक अध्यादेश पर नाखुशी जाहिर की थी. जो बताता है कि सिस्टम में पीएम के अलावा पावर का एक बड़ा सेंटर और भी था.

फिल्म के एक सीन में न्यूक्लीयर डील को लेकर हो रही मीटिंग में शामिल अटल जी स्माइल पास करते है. उस पर वॉइस ओवर होती है-चुप रहकर बोलने में उस्ताद थे वाजपेयी जी. बेहद खास मुद्दे पर उनकी तरफ से किसी राय का न आना कला है. उधर क्रप्शन और घोटालों जैसे तमाम आरोपों पर पीएम डॉ. सिंह को लेकर उन्हें डमी पीएमसाइलेंट पीएममौनी बाबा और पपेट पीएम न जाने क्या-क्या कहा गया. इस आवेश में आकर कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के पूर्व पीएम नवाज शरीफ ने उनको देहाती औरत तक कह डाला था. इनका उन्होंने कभी सीधे तौर पर आलोचना नहीं की. जवाब में इतना ही कहा कि अनगिनत सवालों के  ढेरों उत्तर देने की जगह मेरी चुप्पी ही बेहतर है. यहां तक की यूपीए-2 की सरकार बनने पर उन्होंने खुद का दावा कभी नहीं किया. जबकि  ये जनादेश उन्हीं को मिला था. सीरीज ऑफ स्कॉलरशिप के दम पर पहले कैमब्रिज और बाद में ऑक्सफोर्ड में पढ़ने वाले डॉ. सिंह पहली बार आर्थिक संकट के दौरान स्पॉटलाइट हुए. उसके एक दशक बाद 2004 में  उन्होंने खुद को महत्वपूर्ण जगह पर पाया. लेकिन सरकार में हुए घोटालों के चलते और पार्टी के प्रेशर में खुद के लिए एक शब्द का जिक्र किया एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर. आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इतना ही कहा कि उम्मीद है इतिहास मुझे मीडिया की नजर से नहीं देखेगा.

फिल्म देखने के बाद या देखते वक्त यह कहना गलत नहीं होगा कि ये एक प्रोपेगेंडा नहीं है या एंटी यूपीए ओरियंटेड नहीं है. एक सीन में सोनिया गांधी और पीएम डॉ. सिंह आमने-सामने होते हैं. सोनिया गांधी इतना  ही कहती है कि शायद आप मेरी बात ठीक से समझे नहीं. उसके बाद दोनों के क्लॉज शॉट्स ऐसे दिखाए जाते हैं जैसे कि न जाने दोनों में कितनी नाराजगी हो और पीछे से आती बैकग्राउंड म्यूजिक उसे सही ठहरा रही होती. एक दूसरे सीन में घोटाले की सीएजी रिपोर्ट पर पीएमओ की प्रेस कॉन्फ्रेंस हास्यपद लगती है. जैसे की उन्हें बिठाया ही इसीलिए गया हो. इसके अलावा फिल्म में नीरा राडिया टेप कांड,डॉ. नरसिम्हा राव के निधन पर दफनानेडॉ. सिंह के इस्तीफे की पेशकश और मनरेगा जैसे घटनाक्रमों की झलक देखने को मिलती है. कहा जा सकता है कि जो मकसद वर्ष 2014 में किताब का था अब वहीं मकसद फिल्म का वर्ष 2019 में.

डायरेक्टर रत्नाकर का काम अच्छा है पर उतना उमदा नहीं जितनी कि पॉलिटिकल ड्रामा फिल्मों से उम्मीद होती है. लेकिन डॉ. सिंह के पीएम रहते दस सालों और उनका पार्टी सुप्रीमों सोनिया गांधी के साथ संबंधों को लेकर बनी इस फिल्म के पॉलिटिकल पार्ट में उन्होंने किरदारों से बाखूबी काम लिया है. स्क्रीन पर अटल जीआडवाणी जीअहमद पटेलप्रियंका गांधी,  कपिल सिब्बल जैसी शख्सियतों को देखना अच्छा लगता है. किताब या इस फिल्म को लेकर डॉ.सिंह की तरफ से कोई बयान नहीं आया है या उन कृतियों के विचारों पर सहमति नहीं जताई है जिससे कि इस कहानी को बायोपिक के कैटेगरी में रख सके।



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