Monday, 14 January 2019

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर पर बनी फिल्म क्या डॉ. सिंह की मिनी बायोपिक है?

के सरा-सरा यानी जो होगासो होगा. कांग्रेस की आपत्ति के बाद भी द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म रिलीज हो गई. कुछ दर्शकों (बीजेपी वालों) ने देख लिया और सीना भी चौड़ा कर लिया. और क्रिटिक्स ने द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर किताब आधारित नेमसेक फिल्म की फैक्ट से तुलना भी कर दी. विजय रत्नाकर गुट्टे की निर्देशित फिल्म को मिली-जुली प्रतिक्रियाएं मिली. 2019 के लोकसभा चुनाव नजदीक है. ऐसे में पॉलिटिकल ड्रामा जॉनर की फिल्म का आना और वो भी उस सरकार पर जिसे सत्ता से हटाने के लिए देशभर में मुहिम चली थी. लोकपाल बिल लाए अन्यथा जाए. मुहिम जनता के मूड में बदलाव लाती है और फिल्में दर्शकों में. ऐसी फिल्मों को देखना जरूरी तब और भी हो जाता जब आप उस मुहिम के भागीदार रहे हो. ताकि रील और रियल में फर्क को समझा जा सके. 6-7 साल पहले जब-जब स्क्रीन  और न्यूज पेपर्स में घोटालों-क्रप्शन पर खबरें देखीं-पढ़ीं गई तब-तब जुबां से एक ही लाइन निकली  ये सरकार गिर जाएलोकसभा के मध्यावधि चुनाव हो जाए और इस पीएम का इस्तीफा हो जाए.

भारतीय राजनीति के इतिहास में एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के नाम से दर्ज हो चुके पूर्व पीएम डॉ.मनमोहन सिंह को इस फिल्म में वर्ष 2004 से दिखाया गया है. यहां उनके किरदार में अनुपम खैर है. फिल्म खास पीरियड पर बनी हैइसलिए उस दौर के कैरेक्टर के नाम हूबहू लिए गए है. इसके नैरेटर में संजय बारू (अक्षय खन्ना) है. जो पीएम के मीडिया एडवाइजर की भूमिका में हैं. हम दर्शक कहानी को उन्हीं के नजरीये से देख रहे होते हैं कि दस जनपथ और पीएमओ पर क्या-क्या चर्चाएं हैकैसे समीकरण है और कौन किसकी आवाज है? हॉल में उस वक्त और जोर से ठहाके लगते हैंसीटियां बजती है जब यूपीए-1 को भारी बहुमत के बावजूद सोनिया गांधी (टी सुजैन बर्नर्ट) पीएम का पद स्वीकार करने से इंकार कर देती है और मीडिया को ब्रीफ करने के लिए  राहुल गांधी (अर्जुन माथुर) स्क्रीन पर आते हैं. डायरेक्टर रत्नाकर ने फिल्म को रियल व्यू देने के लिए उस वक्त के फुटेज का इस्तेमाल किया है जिसमें सुषमा स्वराजउमा भारती और बाला साहेब ठाकरे अपने-अपने बयान में पीएम पद पर सोनिया गांधी की दावेदारी को अस्वीकार्य बताया. गठबंधन वाली सरकार के लिए पीएम पद पर सोनिया गांधी डॉ. मनमोहन सिंह के नाम की घोषणा करती है. इस पर शपथ समारोह में अटल जी को लालकृष्ण आडवाणी से मास्टर स्ट्रॉक कहते सुने जाते हैं.

स्क्रीन पर संजय बारू की एंट्री दिलचस्प लगती है. ऐसा लगता है कि मानों अब हम करीब दो घंटे की फिल्म में विपक्षियों के कथित देश के कीमती समय में से दस साल की बर्बादी को देख पाएंगे. मीडिया एडवाइजर के तौर पर संजय पीएम डॉ. सिंह की तरफ से मीडिया को ही टैकल करने में नाकाम लगते हैं. फिल्म में बार-बार उन्हें पीएम की तरफ से स्पीच लिखने का श्रेय मिलता है. पर उसका एक भी नमूना ऐसे किसी सीन में नहीं दिखता जो उनकी इमेज की छाप छोड़ती हो. यहां तक की संसद में पक्ष-विपक्ष के गतिरोध पर पीएम डॉ. सिंह को बोलने की बजाय हंगामे में सिर्फ इधर-उधर ताकते हुए नजर आते हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी वे बेअसर से लगते हैं. हो सकता है संजय रियल में अलग हो पर रील में तो वे पीएम डॉ. सिंह को एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर बनाने में जुटे हुए से लगते हैं. कहानीकार की भूमिका में संजय एक परिवार का पीएम पर हावी बताते हैं. या यूं कहे पार्टी वर्सेज पीएम. कुल मिलाकर ये उसी  धारणा को साथ लेकर चलती है जो साल 2004-14 तक रही. न्यूक्लीयर डील पर कम्युनिस्ट पार्टी की आपत्ति के बाद सोनिया गांधी और पीएम डॉ. सिंह के बीच तनाव दिखाया है. ये सच है कि राहुल गांधी ने मीडिया के सामने सरकार के एक अध्यादेश पर नाखुशी जाहिर की थी. जो बताता है कि सिस्टम में पीएम के अलावा पावर का एक बड़ा सेंटर और भी था.

फिल्म के एक सीन में न्यूक्लीयर डील को लेकर हो रही मीटिंग में शामिल अटल जी स्माइल पास करते है. उस पर वॉइस ओवर होती है-चुप रहकर बोलने में उस्ताद थे वाजपेयी जी. बेहद खास मुद्दे पर उनकी तरफ से किसी राय का न आना कला है. उधर क्रप्शन और घोटालों जैसे तमाम आरोपों पर पीएम डॉ. सिंह को लेकर उन्हें डमी पीएमसाइलेंट पीएममौनी बाबा और पपेट पीएम न जाने क्या-क्या कहा गया. इस आवेश में आकर कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के पूर्व पीएम नवाज शरीफ ने उनको देहाती औरत तक कह डाला था. इनका उन्होंने कभी सीधे तौर पर आलोचना नहीं की. जवाब में इतना ही कहा कि अनगिनत सवालों के  ढेरों उत्तर देने की जगह मेरी चुप्पी ही बेहतर है. यहां तक की यूपीए-2 की सरकार बनने पर उन्होंने खुद का दावा कभी नहीं किया. जबकि  ये जनादेश उन्हीं को मिला था. सीरीज ऑफ स्कॉलरशिप के दम पर पहले कैमब्रिज और बाद में ऑक्सफोर्ड में पढ़ने वाले डॉ. सिंह पहली बार आर्थिक संकट के दौरान स्पॉटलाइट हुए. उसके एक दशक बाद 2004 में  उन्होंने खुद को महत्वपूर्ण जगह पर पाया. लेकिन सरकार में हुए घोटालों के चलते और पार्टी के प्रेशर में खुद के लिए एक शब्द का जिक्र किया एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर. आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इतना ही कहा कि उम्मीद है इतिहास मुझे मीडिया की नजर से नहीं देखेगा.

फिल्म देखने के बाद या देखते वक्त यह कहना गलत नहीं होगा कि ये एक प्रोपेगेंडा नहीं है या एंटी यूपीए ओरियंटेड नहीं है. एक सीन में सोनिया गांधी और पीएम डॉ. सिंह आमने-सामने होते हैं. सोनिया गांधी इतना  ही कहती है कि शायद आप मेरी बात ठीक से समझे नहीं. उसके बाद दोनों के क्लॉज शॉट्स ऐसे दिखाए जाते हैं जैसे कि न जाने दोनों में कितनी नाराजगी हो और पीछे से आती बैकग्राउंड म्यूजिक उसे सही ठहरा रही होती. एक दूसरे सीन में घोटाले की सीएजी रिपोर्ट पर पीएमओ की प्रेस कॉन्फ्रेंस हास्यपद लगती है. जैसे की उन्हें बिठाया ही इसीलिए गया हो. इसके अलावा फिल्म में नीरा राडिया टेप कांड,डॉ. नरसिम्हा राव के निधन पर दफनानेडॉ. सिंह के इस्तीफे की पेशकश और मनरेगा जैसे घटनाक्रमों की झलक देखने को मिलती है. कहा जा सकता है कि जो मकसद वर्ष 2014 में किताब का था अब वहीं मकसद फिल्म का वर्ष 2019 में.

डायरेक्टर रत्नाकर का काम अच्छा है पर उतना उमदा नहीं जितनी कि पॉलिटिकल ड्रामा फिल्मों से उम्मीद होती है. लेकिन डॉ. सिंह के पीएम रहते दस सालों और उनका पार्टी सुप्रीमों सोनिया गांधी के साथ संबंधों को लेकर बनी इस फिल्म के पॉलिटिकल पार्ट में उन्होंने किरदारों से बाखूबी काम लिया है. स्क्रीन पर अटल जीआडवाणी जीअहमद पटेलप्रियंका गांधी,  कपिल सिब्बल जैसी शख्सियतों को देखना अच्छा लगता है. किताब या इस फिल्म को लेकर डॉ.सिंह की तरफ से कोई बयान नहीं आया है या उन कृतियों के विचारों पर सहमति नहीं जताई है जिससे कि इस कहानी को बायोपिक के कैटेगरी में रख सके।



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