Monday, 23 November 2020

अनवर का अजब किस्सा : ड्रिमी वर्ल्ड का वो हीरो जो मोहब्बत में जिंदगी की हकीकत से रूबरू हुआ


बड़ी ही डिस्टर्बिंग स्टोरी है...एक चर्चा में यही जवाब मिला. डायरेक्टर बुद्धदेव दासगुप्ता की नई फिल्म आई है. अनवर का अजब किस्सा. कहानी-किस्से सुनने वाले के मन में बहुत से सवाल आते हैं. मसलन कहानी की टेक्नीक क्या है? तो जवाब है टेक्नीक किसे चाहिए. एक कहानीकार जिसे कुछ कहना ही नहीं. कोलकाता की गलियों से शुरू होती इस फिल्म के पहले सीन में दूधिया है, दूसरे में एक बुजुर्ग महिला जो छत की बालकनी दीवार पर आचार से भरे शीशे के डिब्बे को रखते नजर आती और तीसरे में तेज कदमों से दौड़ती रामलीला के बाल कलाकारों की मंडली. अगला सीन अनवर (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) का होता है. पूरा नाम मोहम्मद अनवर. पेशा इन्नर आई डिटेक्टिव एजेंसी के लिए निजी जासूसी करना. काली टोपी, काली पेंट, काला कोट और काला चश्मा.मिशन में सबूत जुटाने के लिए हाथ में साइबर शॉट (डिजीटल कैमरा) होता है. दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक में 10 साल का करियर बनाने वाले अनवर को बॉस से अक्सर सुनने को मिलता है कि, ‘जासूस अपना काम छुपते-छुपते करता है.This is Basic.’


बॉलीवुड में छोटे-मामूली और निजी जासूसी जॉनर की फिल्म के लिए शाहरुख खान की बादशाह फिल्म को याद किया जा सकता है. जिसकी कहानी एक बच्ची को किडनेपरों से बचाने के लिए एक राजनीतिक हत्या की साजिश के आस-पास बुनी गई है. लेकिन डायरेक्टर बुद्धदेव यहां पर शहर की खूबियां, उसका चरित्र और उसका चेहरा दिखाते हैं. एजेंसी पर आने वाले तमाम केसों में अनवर क्लाइंटों के प्रति सहानुभूति रखता है. चाहे वो बेटे की तलाश में आए एक बाप को खाना खिलाना हो या एक लड़की से अफेयर चल रहे मुखर्जी के लड़के को रेस्टोरेंट के बाहर समझाना हो. ये सब खूबसूरत मन की सुंदरता है. इन सबके बीच वो अपनी जिंदगी को एक बंद कमरे में लालू (कुत्ता) के साथ जीता है. रम पीकर आत्मवादी हो जाता है. मां-बाप के बीच रिश्तों को याद करता है. पिता के पोस्टमैन वाले थैले में समाई ‘हजारों खत हजारों कहानियां की बात दोहराता है.’ मजहब के चलते ड्रीमगर्ल आयशा से बिछोह का अकेलापन उसे सालता है. वो उसके बारे में लगातार सोचता जाता है. जैसे कि उसकी आत्मा उसी विषय पर बात करना चाहती हो. आयशा के सामने आते ही उसे हासिल कर लेने का इरादा और भी मजबूत हो जाता है. 


आमतौर पर ऐसी प्रेम कहानियाें की सफलता के लिए धर्म, जातिवाद और अमीर-गरीब की बाधाओं को सिनेमा का सबसे सेफ फॉर्मूला माना गया है. पर डायरेक्टर बुद्धदेव ने कहानी के  एलिमेंट्स, स्ट्रक्चर और विजुअल से इस अवधारणा को पलट दिया है. अनवर और उसका कुत्ता देर रात तक सड़क पर टहल रहे होते हैं. उनकी मुलाकात फुटपाथ किनारे तीन अलग-अलग पात्रों से होती है. जो अपनी-अपनी समस्याओं से परेशान और दुखी होते हैं. किसी को 20 दिन से शौच नहीं आया होता तो कोई बहुत दिनों से यौन संबंध नहीं बनाया पाया तो किसी ने 10 साल से नींद नहीं ली और न ही दिन का सुख देखा. ये तीनों पात्र अनवर को जिंदगी के प्रति नये आयाम दे जाते हैं. फिल्म के आखिर में अमोल शुक्ला (पंकज त्रिपाठी) नजर आते हैं. जो अच्छी नौकरी, पत्नी और छोटे बेटे को छोड़ शहर से दूर गुमनाम की जिंदगी जीता है. छोटी सी मुलाकात में अनवर अमोल से घर लौटने की बात करता है. जवाब में अमोल कहता है, ‘घर लौट भी जाए तो क्या फर्क होगा. सब कुछ वैसा ही होगा. लाइफ सबकी ऐसी ही होती है.’ फिल्म को देखते हुए कई जगहों पर सत्यजीत रे की 'पाथेर पंचाली' की याद आती है. मसलन डायरेक्टर बुद्धदेव का पगडंडी पर चलते राहगीरों पर फिल्माया गया सीन. अमूमन अन्य फिल्मों में इस तरह के स्टिल विजुअल से बचा जाता है. नवाजुद्दीन के अभिनय की एक बार फिर तारीफ करनी होगी. वो एक-एक किरदार से जुड़कर सभी को कहानी के एक प्लॉट में ले आते हैं.


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