Thursday, 31 January 2019

जर्नलिज्म की दुनियां में कॉल्विन एक आंख वाली जर्नलिस्ट के नाम से जानी गई - फिल्म ‘अ प्राइवेट वॉर’

“मैं नहीं जानती की आगे क्या होग? कौन मरेगा और कौन जिएगा? मैं नहीं चाहती कि मेरे शब्द कागज पर महज स्याही बन कर रह जाए.  मैं चाहती हूं कि दुनियां मेरी कहानी जानें कि यह बच्चा मर रहा है. पूरी की पूरी एक पीढ़ी खत्म हो रही है. ये भूखमरी, बीमारी और ठंड से मर रहे हैं.”- साल 2012 में होम्स शहर पर हमले के दौरान एक इमारत में डेढ़ साल के बच्चे के साथ छिपी सीरियाई महिला का जर्नलिस्ट कॉल्विन को दिए गए इंटरव्यू में.
#tenyearchallenge में फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर आने वाली ज्यादातर तस्वीरें खूबसूरत थी, प्रोग्रेसिव थी. दो तस्वीरों में दस साल के अंतर में तब और अब दिलचस्प लगी. इसके उलट इराक, लीबिया, यमन और सीरिया की फ्रेम वाली तस्वीर पर सबसे ज्यादा वक्त बिता. वजह अघोषित युद्व से उजड़े देशों की इन तस्वीरों ने भीतर तक झकझोरा. यहां भयावह हालात में जिंदगियों को अगर कोई बेहतर ढंग से संबोधित करती है तो वो है ‘अ प्राइवेट वॉर’ फिल्म. जर्नलिस्ट मेरी कॉल्विन (रोजमंड पाईक) की वॉर रिपोर्टिंग पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन मैथ्यू हायनेमेन ने किया है. फिल्म दो लाइनों में इंट्रोड्यूस करवाती है- ‘इराक, अफगानिस्तान से लेकर सीरिया में वॉर पर रिपोर्टिगं करने वाली मेरी कॉल्विन अमेरिकन है और साल 1986 में करिअर की शुरुआत वॉर रिपोर्टिंग से की.’ स्क्रीन पर अगला सीन सीरिया के होम्स शहर का उभरता है, जहां की आलिशान इमारतें हवाई हमलों से अब खंडर में तब्दील हो चुकी है. कहानी होम्स की रिपोर्टिंग से 11 साल पहले यानी 2001 में लंदन से शुरू होती है. कॉल्विन ब्रिटिश मेगजीन द संडे टाइम्स के लिए काम करती है. बॉस कॉल्विन को फिलिस्तीन जाकर रिपोर्टिंग करने का सुझाव देता है। पर वो इंकार करते हुए श्रीलंका के वान्नी शहर पर रिपोर्टिंग की बात कहती है. जो लिट्टे के कब्जे में हैं. उसके खिलाफ वहां की सरकार का संघर्ष जारी है. ये वही शहर है जहां की रिपोर्टिंग पर सरकार ने छह से ज्यादा सालों तक बैन रखा था. इसलिए की हजारों निर्दोष लोगों की हत्या वैश्विक स्तर पर मुद्दा न बन जाए. सुपर पावर में श्रेणीबद्ध देश अपने-अपने हित न साधने लग जाए.

फिल्म जर्नलिस्ट कॉल्विन की बायोपिक है. यहां उनकी पर्सनल और पब्लिक दोनों लाइफ को दिखाया है. उम्र ज्यादा होने के चलते उन्हें बच्चे की ख्वाहिश रह जाती है. लिट्टे नेता थामीसेल्वन का इंटरव्यू कर लौटते वक्त वान्नी के जंगलों में कॉल्विन हवाई हमले में एक आंख की रोशनी खो बैठती है. ये वही साल था जब कॉल्विन को फॉरेन कोरेसपोंडेंट ऑफ द ईयर का ब्रिटिश प्रेस अवार्ड मिला. पति से अलग होने और एक आंख की रोशनी जाने के बाद भी उनका जर्नलिज्म के प्रति उत्साह कभी कम नहीं हुआ. आगे स्क्रीन पर टाइमलाइन फ्लैश होती है. साल 2003, इराक बॉर्डर. यानी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का इलाका. इस्लामिक लड़ाकों द्वारा निशाने बनाए गए वहां के पुरुषों की मौत पर उनकी महिलाओं के मातम को जर्नलिस्ट कॉल्विन, दोस्त मुराद और फ्रीलांस फोटोग्राफर पॉल बेहद करीबी से देखते हैं.
डायरेक्टर मैथ्यू की ये फिल्म एली चॉरकी की निर्देशित हेरिसंस फ्लावर फिल्म की याद दिलाती है. जिसमें पुलित्जर विजेता फोटोग्राफर मिस्टर हेरिसन नब्बे के दशक में युगोस्लाविया वार की कवरेज के लिए जाता है. वहां से उसके मरने की खबर आती है. उस खबर पर उसकी पत्नी मिसिज हेरिसन यकीन करने से इंकार कर देती है. वो अपने पति को ढूंढने अमेरिका से यूगोस्लाविया रवाना होती है. इस जर्नी में उसे बम धमाकों- गोलियों और नागरिकों की चीखती-चिल्लाती आवाजें परेशान करती है. लड़ाकों द्वारा किए गए रेप की घटनाएं उसे स्तब्ध कर देती है. ठीक उसी तरह कॉल्विन को रिपोर्टिंग के दौरान ये सभी दृश्य बैचेन करते हैं. चाहे उसकी जर्नी के पड़ाव के साल 2009 में अफगानिस्तान का मरजाह शहर हो या फिर साल 2011 में लीबिया का मिसराता शहर हो. बाब-अल-अजिजिया पैलेस में लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी कॉलविन से ये कहने से नहीं कतराते कि उनके देश में महिलाओं और बच्चों की हत्याओं के पीछे अलकायदा के लड़ाके हैं. अनगिनत मौतों पर हुक्मरानों की जिम्मेदारी तय नहीं होने पर कॉल्विन वॉर रिपोर्टिंग को प्राइवेट वॉर बना लेती है. साल 2012 में सीरिया के होम्स शहर में लगातार हमलों की वजह बच्चों-गर्भवती महिलाओं की भूखमरी और उपचार के अभाव में हुई मौतों पर सीएनएन-बीबीसी जैसे चैनलों को एक साथ लाइव रिपोर्ट करती है. तब उन नागरिकों की जुबां पर एक ही लाइन थी- ‘हमें हमारे हुक्मरानों-सरकारों ने अनाथों की तरह क्यों त्यागा हुआ है’.

मौटे तौर पर डायरेक्टर मैथ्यू जर्नलिस्ट मेरी कॉल्विन के जरिए युद्ध ग्रस्त देशों की स्थिति को स्पष्ट किया है. फिल्म बताती है कि खुद की सरजमीं पर हम कितने सुरक्षित है? फिर चाहे उस सिस्टम को हमने ही मान्यता दी हो या उस सिस्टम में जबर्दस्ती सत्तासीन होने वाले हो. हमारे हितों की रक्षा नहीं करने वाले हमारी नजरों में सभी विलेन हो जाते हैं? अगर यहां की सरकारें-हुक्मरान विरोधियों के खिलाफ लड़ने में असमर्थ थी तो वे देश खुलकर मदद के रूप सामने क्यों नहीं आए जो खुद को सुपर पावर कहते हैं. बेकसूर लोगों की अमानवीय हत्याओं पर सुपर पावर जैसे देशों की नैतिकता कहां चली गई थी? संघर्ष को नासूर बनने से रोका जा सकता था. लेकिन वहां पर हर देश नीतिगत था. जर्नलिस्ट कॉल्विन ने साल 2012 में जहां आखिरी सांसे ली उस सीरिया देश में उनकी मौत तक 5 लाख लोग जान गवां चुके हैं.

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