कॉलेज,
मैदान और लड़की का दिल जीतने वाले एक हारे हुए हीरो की कहानी है ‘कबीर सिंह’
हां
वो कॉलेज का टॉपर है और वो लड़की उसकी जूनियर. सीनियॉरिटी दिखाकर लड़की के करीब आ
जाने की कहानी फिल्म ‘कबीर
सिंह’ की है. जिसका निर्देशन संदीप वांगा ने
किया है. दिल्ली का एक मेडिकल कॉलेज, जहां से प्रेम कहानी शुरू होती है. लड़की
(कियारा आडवाणी) चुप रहकर लड़के (शाहीद कपूर) के हर अच्छे-बुरे कामों में साथ देती
जाती है. ऐसी कहानियों पर फिल्मों की भरमार 80-90 के दशक में खूब देखने को मिलती
है. लेकिन जहां हाल ही में 17वीं संसदीय चुनाव में सबसे ज्यादा महिलाएं जीतकर संसद
गई हो. उस वक्त मर्दवादी सोच पर आधारित फिल्म का आना, यह बताता है कि हम अतीत से
नहीं निकल पाए हैं. हो सकता है निर्देशक ने ऐसे प्लॉट को आज के शहरी कॉलेज लाइफ
में लड़के-लड़कियों को दिखाने की कोशिश की हो, पर यहां लड़का लड़की की तमाम बातों
में दखल करता है- जैसे चुन्नी से सीने को ढकने के लिए बोलना, बिना इजाजत के सरेआम
क्लास में उसे ‘खुद की बंदी’ बता देना या सैकड़ों स्टूडेंट्स के
बीच होली पर रंग लगाने का अधिकार भी अपने तक रखना. इस तरह खुद की लाइफ में
प्राइवेट स्पेस की चाहत में लड़की की प्रिवेसी को खत्म करता जाता है.
निर्देशक
वांगा की करीब तीन घंटे की इस फिल्म का ज्यादा वक्त हीरो पर खर्च किया है. जो लव
के चक्कर में गर्लफ्रेंड का केयर-टेकर है. उसे पाने में गुस्से व नफरत को जगह-जगह
दिखाता है. जब जात की बात पर लड़की का पिता उसके शादी के प्रोपोजल को ठुकरा देता है. तो वह खुद
को संभालने के लिए शराब का सहारा लेता. इस कदर की हर वक्त नशे में ही रहता है.
गर्लफ्रेंड से दूर होने का दर्द उसकी करीब रही दादी ही सझती है. एक सीन में दादी
कहती है-
·
एक होता है अपने चाहने वालों का मर जाना.
·
और एक होता है उनका हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चले जाना.
पहले केस में वो
इंसान कभी वापस नहीं आएगा. यह कह कर हम अपने आप को समझा लेते हैं जैसे कि मैं-
लेकिन सेकंड केस में बिल्कुल आसान नहीं
जैसे कि- वो (कबीर) हम उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं. लेकिन उसका दर्द नहीं बांट
सकते हैं
हीरो
अपने प्यार को आदर्शवाद के रूप में स्थापित करने के लिए सब कुछ करता है. घर छोड़
देता है. सिगरेट पीता है. शराब के नशे में
डूबा रहता है. चरस लेता है. रफ लुक वाली शेव में रहता. जो बताती है कि उस लड़की से
अलग होना उसके जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद उससे दूर हो गया हो. यहां तक की एक एक्टर
के संपर्क में आने के बाद जब उसे आई-लव-यू ऑफर होता है तो एकदम से आक्रामक होकर
पीछे हट जाता है. मानो की वह एक रोबोट हो. सिर्फ अपनी ही बात कहना जानता हो. उसके
बावजूद हीरो और हीरोइन के रिलेशनशिप में लव-इमोशन का वैसा वेग देखने को नहीं मिलता
जिसे हम अनुराग कश्यप की ‘मनमर्जियां’ में देखते हैं. तमाम बेदम सीन को
डार्क म्यूजिक से भरने की कोशिश की गई है।
फिल्म
को देखने पर ऐसा लगता है कि जहां कहीं भी पर कहानी बिखरने लगती है तो उसे समेटने
की जिम्मेदारी उसके दोस्तों पर है या फिर हीरो के बड़े भाई पर. दोस्त बार-बार ऐसे
हालत में नजर आते हैं जैसे कि इन तीन मेडिकल स्टूडेंट्स की तुलना ‘थ्री इडियट्स’ के उन तीन इंजीनियरिंग वाले लड़कों से
हो. पर ये दोस्त भी वहां पर कमजोर ही मालूम पड़ते हैं. इसकी एक वजह जो हीरो के लिए
कुछ-कुछ थैंकलेस से लगते हैं. यहां तक की हीरो फुटबॉल के मैच के ग्राउंड से
लेकर ऑपरेशन थियेटर तक विजेता दिखते हुए भी भीतर से हारा हुआ जान पड़ता है.
‘कबीर
सिंह’ फिल्म एक ऐसे मोड़ पर खत्म होती है
जहां दूसरे लड़के से शादी होने के बाद लड़की उसका घर छोड़ कर किसी दूसरे शहर में
अकेले रहने लगती है. साथ में नौ महीने का गर्भ लिए है. वहीं उसकी मुलाकात एक बार
फिर हीरो से होती है. जिसे वह एक बार फिर जीवन में साथ रहने की बात करता है. उसे
इस बच्चे से भी कोई एतराज नहीं. काश ऐसा हो पाता कि जहां पर यह कहानी खत्म होती है
वहीं से शुरू होती. प्रोग्रेसिव सोसाइटी में रिलेशनशिप पर दर्शकों को कुछ नया
देखने को मिलता है. फिल्म में डॉक्टरी के पेशे को लेकर कुछ डॉक्टरों ने सवाल उठाए
है. पर शाहीद के साथ यह कोई पहला मामला नहीं इससे पहले भी फिल्म ‘बिजली गुल मीटर चालू’ में वकील के किरदार में फ्रॉड से पेशे
की इमेज खराब करने को लेकर आपत्तियां आई थी. ऐसे में अब निगाहे शाहीद की अगली
फिल्म पर रहेंगी.
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