बैक-टू-बैक ईयर ऑस्कर का बेस्ट पिक्चर अवार्ड नस्ल-भेद पर आधारित वाली फिल्म को मिला. 2018 में ‘द शेप ऑफर वाटर’ और 2019 में ‘ग्रीन बुक’ को. वो भी तब जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका-मैक्सिको बॉर्डर पर दीवार बनाने के लिए मजबूती से अड़े हुए हैं. ये मैसेज बताता है कि वो अपने देश में किसे रहने देना चाहते हैं किसे नहीं. इधर लगता है, ऑस्कर का इनडायरेक्ट मैसेज तब तक जारी रहेगा जब तक अश्वेतों (ब्लैक) को उन्हें वो मान-सम्मान नहीं मिल जाता जिनके वे हकदार है.
पीटर फैरेली की निर्देशित फिल्म ग्रीन बुक टोनी लिप की सच्ची कहानी से प्रेरित है. 60 के दशक के बैकड्रॉप पर बनी ये फिल्म न्यूयॉर्क सिटी से शुरू होती है. इटेलियन-अमेरिकन टोनी लिप अपनी पत्नी डोलेरेस और दो बच्चों के साथ एक किराये के मकान में रह रहा होता है और परिवार चलाने के लिए नाइट क्लब में बाउंसर की नौकरी करता है. रेनोवेशन वर्क के चलते दो माह के लिए क्लब बंद हो जाता है और वो बेरोजगार हो जाता है. लेकिन अपनी डाईट पर यकीन रखने वाला टोनी हॉट डॉग खाने के कॉन्टेस्ट में हिस्सा लेता है, और एक के बाद क 26 हॉट डॉग खा जाता है. जीती रकम घर के किराए में चली जाती है. पर रोज-रोज तो वह इतने हॉट-डॉग नहीं खा सकता. किसी पुरानी हिंदी फिल्मों की तरह आर्थिक अभाव से उपजे हालात और परिस्थितियों में जैसे कोई किरदार ज्वैलरी बेचता या किसान अपनी जमीन गिरवी रखवा देता है या बेच देता है. ठीक वैसे ही टोनी अपनी घड़ी बेच आता है. रोजी-रोटी का ये संकट टोनी का अफ्रीकन-अमेरिकन पियानिस्ट व म्यूजिशियन डॉ. डॉन शर्ली के यहां ड्राइवर की नौकरी ऑफर होने के साथ खत्म हो जाता है. लेकिन स्क्रीन पर अजीब सी स्थितियां तब पैदा होती है जब हम एक अश्वेत के यहां श्वेत को काम करते हुए पाते हैं. वो भी तब जब श्वेत समाज अश्वेतों पर हावी हो.
ये वही दौर था जब विश्व के नक्शे पर तीन बड़ी घटनाएं घटित हो रही थी. पहला भारत-चीन के बीच युद्ध, दूसरा क्यूबा मिसाइल संकट और तीसरा अमेरिका में अश्वेतों की अधिकारों की लड़ाई. नस्ल भेद के इस शोर में पियानिस्ट डॉ. शर्ली अपने ड्राइवर टोनी के साथ आठ सप्ताह के लिए तयशुदा प्रोग्रामों के लिए एक लंबे टूर पर शहरों की तरफ निकल पड़ता हैं. और साथ में होती है ‘ग्रीन बुकः फॉर वेकेशन विदाउट एग्रेवेशन’ यानी 20वीं सदी में जब अश्वेत किसी यात्रा पर निकलता था तो उसे ये किताब साथ रखनी होती थी. इस छोटी सी किताब में अश्वेतों के ठहरने-रहने के लिए होटल की जानकारियां होती थी. या यूं कहे कि एक तरह से गाइड बुक. अगर वो इस जानकारी से इत्तर किसी रेस्टोरेंट, बार या होटेल में जाएगा तो उसे अपमान सहना पड़ सकता है. डायरेक्टर पीटर ने फिल्म का ज्यादा हिस्सा एक बेहद खूबसूरत टूर पर खर्च किया है. जिसके शुरुआत में लगता है कि क्या ये टूर पूरा हो पाएगा या नहीं. लेकिन नोक-झोंक और मन-मुटाव के बाद हम देखते हैं कि श्वेत अश्वेत के जीवन से कितना कुछ सीखता चला जाता है. यात्रा में उसे ये दुनियां प्यारी लगने लगती है. पहले की अपेक्षा टोनी अपनी पत्नी को बेहद भावात्मक पत्र लिखने लग जाता.
फिल्म में अगर कुछ कहीं भयावह मालूम होता है तो वो हैं श्वेतों के बुलाए गए प्रोग्राम में डॉ.शर्ली को रेस्टोरेंट व टॉयलेट इस्तेमाल की अनुमति का न होना. डॉ.शर्ली के क्लासिक म्यूजिक पर श्वेत झूमते, गुनगुनाते और आनंद लेते. ये वो पल होता है जब डॉ.शर्ली खुद को उनके बराबर का पाता, लेकिन स्टेज से उतरते ही उसे हिकारत से भरी निगाहें घेरती चली जाती. दरअसल श्वेत अमेरिकियों को अश्वेतों की रचनात्मकता, उनकी कला, उनकी खोज और भूंमडलीकरण से बने अमेरिका जैसा एक समृद्ध देश तो चाहिए पर वो नहीं. विश्व में अगर एक ध्रूव अफ्रीकन-अमेरिकी है तो दूसरा ध्रूव भारतीय कश्मीरी है. हाल ही में कश्मीर के पुलवामा में जवानों के शहादत पर गुस्साए कुछ राइट विंग के कार्यकर्ताओं ने देहरादून के एक कॉलेज होस्टल में रह रहे कश्मीरी स्टूडेंट्स को पीटा, नोएडा में कई होटल मालिकों ने कश्मीरियों को कमरे तक देने इंकार कर दिया. इनका समर्थन करने वालों को कश्मीर तो चाहिए लेकिन कश्मीरी नहीं. संवैधानिक पद पर बैठे मेघालय के राज्यपाल तथागत राय ने तो उस ट्वीट का समर्थन करते हुए री-ट्वीट किया जिसमें कश्मीरियों की हर वस्तु का बहिष्कार करने की बात लिखी थी. कश्मीरियों को लेकर ये नई बात नहीं है. पिछले कई वर्ष से कश्मीरियों को लेकर ये अवधारणा से चली आ रही है. सबसे पहला किस्सा शेख अब्दुला के जरिए आया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ने वाले शेख अब्दुल्ला जब कश्मीर पहुंचे और सरकारी नौकरी करनी चाही तो उस वक्त राजा हिंदू राजा हरी सिंह ने प्रशासनिक सेवाओं में जगह देने से मना कर दिया था. ठीक ऐसा ही रवैया पाकिस्तान ने कश्मीरियों के साथ अपनाया. 1999 में करगिल युद्ध के बाद वहां के प्रधानमंत्री की तरफ से बयान आया कि एलओसी में जो घुसपैटी है वो हमारे नहीं कश्मीरी है. यहां तक के की युद्ध के शवों को पाकिस्थान ने लेने मना कर दिया. बीते वक्त की घटनाओं ने हमेंशा कश्मीरियों की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े किए, उन्हें विद्रोही की तरह पेश किया गया.
डू द राइट थिंग, द हेल्प और द हेट यू गिव जैसी फिल्में भी अमेरिका में फैले नस्ल भेद की तरफ इशारा करती है. इनकी कहानियों में अश्वेत के अधिकारों की लड़ाई ओपन फ्रंट पर नजर आती है. विचारों से निकलकर सड़क पर दिखती है. लेकिन ग्रीन बुक में टोनी और डॉ.शर्ली के बीच मूल बात निकल कर आती. सबसे पहले वाइन-बार में श्वेतों द्वारा डॉ.शर्ली की पिटाई, फिर पुलिस ऑफीसर द्वारा होटेल में उसके कपड़े उतरवा लेना और आखिर में ऑफीसर का गिरफ्तार कर जेल में डाल देना. बाहर आने के बाद दोनों के बीच बने तनाव में टोनी डॉ.शर्ली से कहता है- ‘तुम नहीं जानते कि वो लोग क्या खाते हैं?, कैसे बात करते हैं? और कैसे रहते हैं? तुम महल में रहते हो और मैं साधारण सी गलियों में.’ इसके जवाब में डॉ. शर्ली कहते हैं-‘हां मैं महल में रहता हूं, गोरे अमेरिकियों का मनोरंजन कर उन पैसों से और ये उन्हें सभ्य बनाता है. लेकिन मुझे न तो अपने लोगों ने स्वीकार किया और न श्वेत-अश्वेत लोगों ने, क्या मैं इंसान नहीं हू तो फिर बताओ टोनी मैं क्या हूं.’ बारिश की लगातार बूंदे डॉ.शर्ली के बहते आंसुओं को धोती जाती है लेकिन आंखों में उभरे उस गुस्से को नहीं जो उसे उस समाज से मिलता है. टूर से जब दोनों लौटते हैं तो वे एक-दूसरे को और भी बेहतर से समझ चुके होते हैं.
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