Saturday, 1 December 2018

उस गैंगस्टर की कहानी जिसका ‘हिन्दू’ पत्नी की मौत पर जागा : सेक्रेड गेम्स

शहर मुंबई. आबादी दो करोड़. दिन-रात एक सा रहने वाले इस शहर को हमेशा के लिए सुला देने की बात पुलिस, खुफिया एजेंसी और राजनीतिक नेताओं की नींद उड़ा देती है. विक्रम चंद्रा की नॉवेल ‘सेक्रेड गेम्स’ पर बनी नेमसेक नेटफ्लिक्स की नई वेब सीरीज का निर्देशन विक्रमादित्या मोटवानी और अनुराग कश्यप ने किया है. सीरीज में आठ एपिसोड है. इस सीजन के ट्रेलर को देखने के बाद जो उम्मीदें बंधी थी वो रोचकता आखिर तक बनी रहती है. कहानी बिल्डिंग से फेंके गए अमेरिकन एस्किमो नस्ल के कुत्ते की सड़क पर गिरी लाश के बीच डरे बच्चों की चिखती आवाज से शुरू होती है. और बैकग्राउंड में नवाजुद्दीन सिद्दीकी की आवाज में डायलॉग डिलीवरी होती है-‘भगवान को मानते हो, भगवान को ## फर्क नहीं पड़ता.’ पर उससे भी ज्यादा ये जानना जरूरी है कि 25 दिन बाद शहर की तबाही की बात सच है या महज अफवाह. ये जानने के लिए सरताज सिंह (सैफ अली खान) की एंट्री होती है. जो पुलिस ऑफीसर है और फर्जी एनकाउंटर में उसकी सुनवाई चल रही होती है. दस साल के करियर में सरताज को लेकर सीनियर्स के बीच राय है कि वो एक नॉन परफोर्मिंग ऑफीसर है. इस धारणा को गलत साबित करने के लिए हर वक्त बड़े केस में सफलता की तलाश में रहता है. सरताज के पास गैंगस्टर गणेश गायतोंडे (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) की कॉल आती है कि- ‘25 दिन है, बचा ले अपने शहर को.’ यहां ये इंटरस्ट जगाता है कि मुंबई के सबसे बड़े गैंगस्टर ने शहर की तबाही की सूचना सरताज को ही क्यों दी. गायतोंडे ने महिला साथी की हत्या क्यों की? खुद के ही गन से सुसाइड क्यों की? सभी मर जाएंगे तो त्रिवेदी ही क्यों बच जाएगा? सरताज-गायतोंडे के बीच हुई बातचीत के इनपुट से रॉ एजेंट अंजली माथुर (राधिका आप्टे) शहर को बचा पाएगी?

यहां दो कहानियां पैरलल चलती है. वो भी टाइमलाइन के साथ. एक सरताज की, जो तलाकशुदा है और सीनिरयर ऑफीसर की नाराजगी से सस्पेंड होने के बावजूद 16 तारीख को तबाह होने वाले शहर को बचाने में जुटा है. दूसरी कहानी गायतोंडे की है. गायतोंडे की यहां बैकस्टोरी है. वो भी लंबी वाली. जाति से ब्राह्मण गायतोंडे को अपने बाप की कमजोरी से घिन्न है. लेकिन मां के प्रति प्रेम है. उस प्रेम के प्रति भी एक रोज उसे घृणा हो जाती है. जब वह अपनी मां को विवाह से इत्तर संबंध में पाता है तो वह उन दोनों की नींद में हत्या कर देता है. घटना के बाद वह भागता चला जाता है- खेत, खलिहान, बाप के भजनों और भगवान से. विचार करता है कि धर्म क्या है मां या बाप? मां-बाप से दूर हो जाने के बाद वह खुद को आजाद पाता है. और नए धर्म की तालाश में मुंबई आ जाता है. यहां शुक्ला सेठ ब्राह्मण होटल पर वेटर का काम करता है. धीरे-धीरे वो यहां धर्म के कारोबार को सीखता है. चिकन खाकर डेयरिंग करना जानता है. होटल की आड़ में दोस्त नत्थू के साथ गांजे का काम करता है. उसके बाद सलीम काका के साथ सोने की तस्करी के दौरान सलीम की पत्थर से पीट-पीट कर हत्या कर देता है. काले सोने के सफेद पैसों से गोपाल मठ में कांता बाई के साथ ताड़ी का काम शुरू करता है. धंधे को बढ़ाने के लिए आदमियों की जरूरत होती है. फिर एक गैंग तैयार कर लेता है. साथी परितोष के साथ मिलकर एयरलाइंस शुरू करता है. पर ये काम भी नहीं चलता है तो फिर गर्लफ्रेंड कुक्कू के कहने पर ‘अपना कोला’ लॉन्च करता है. लेकिन उसे यहां भी निराशा ही मिलती है.

उधर सरताज वो कड़ी है जिसके जरिए गायतोंडे की कहानी से दर्शक रूबरू होते हैं. गायतोंडे की मौत के बाद तहकीकात में सरताज एक-एक कर उन सब तक पहुंचता है जिनका उससे कनेक्शन रहा है. चाहे वो नायनिका हो या जोया मिर्जा. ज्यादा वक्त गायतोंडे के साथी कट्‌टर हिंदू बंटी और कुक्कू पर खर्च किया गया है. जबकि शुरू में मृत जोजो की कहानी पर सस्पेंस रखा हैं. ऑफीसर के तौर पर सरताज का खुद पर ऐसा भरोसा दिखाया गया है जैसे की वो एचबीओ चैनल पर आने वाले लूथर टीवी सीरीज के डिटेक्टिव जॉन लूथर हो. जो कहीं भी अनियंत्रित तरीके से चला आता है और सिचुएशन को हैंडल कर लेता है. लेकिन सरताज अपनी इनफॉर्मर नायनिका को बचाने, बंटी को पकड़ने और साथी कॉन्स्टेबल की जान बचाने में नाकाम रहता है. इसे ऐसे समझा जाए कि जिंदगी बदल डालने का जो मौका मिलता है उसके पीछे सरताज के दिवंगत पिता कांस्टेबल दिलबाग सिंह होते हैं. 15 साल तक जेल में रहते हुए गायतोंडे को जब यातनाएं दी जा रही थी तो उस वक्त दिलबाग सिंह ने जेल में उसकी मदद की होती है. वहीं रॉ एजेंट के किरदार में राधिका आप्टे का कोई एक्शन सीन नहीं है. फील्ड में उतरने के बाद भी वो डेस्क वर्क सा काम करते हुए लगती है. स्क्रीन पर ज्यादा वक्त तनाव के एक्शप्रेशन में ही दिखती है.
निर्देशक विक्रमादित्या और अनुराग ने कहानी को नए कलेवर में परोसी है. खासकर गैंगस्टर के रोल में नवाजुद्दीन काे. जो डांसर कुक्कू का दिवाना है. एक ट्रांसजेंडर के प्रति गैंगस्टार का लगाव अब तक की कहानियों में नया है. क्राइम की दुनियां में गैंगस्टर्स के लिए पैसों के सामने धर्म-जाति को डील करना मुश्किल नहीं होता. पर यहां प्रजातंत्र की कीमत 50 लाख देने वाले नेता बिपिन भोंसले गैंगस्टर गायतोंडे की सेकुलर सोच को देखकर तमतमा जाता है. ये देखकर लगता है कि अगर गैंगस्टर लोग सेकुलर बन जाएंगे तो नेताओं की राजनीतिक धंधे का क्या होगा? लेकिन गैंगवार में पत्नी सुभद्रा की मौत पर उसका ‘हिंदू’ जाग जाता है. दुबई तक पहुंच रखने वाले विरोधी गैंगस्टर सुलेमानी इसा की मौजूदगी दिलचस्प है. खूब सारे किरदारों के लिए जाने-जानी वाली वेब सीरीज में यहां माकम किरदार प्रभावित करता है. जो गायतोंडे की मौत के बाद मिशन मुंबई तबाह में लगा हुआ है. कहानी में इन्हें सीरियल साइलेंट किलर के तौर पर दिखाया गया है. मिशन में बैरियर बनने वालों की हत्या करता जाता है. खुद को इजिप्ट की पैदाइश बताने वाला माकम इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक माहदी मालूम होता हैं. जो कयामत से पहले शासन करते हुए बुराई का खात्मा करना चाहता हैं. एक सीन में माकम सरताज से कहता है-‘अल्लाह तुम से तंग आ गया है.’
सेंसर बोर्ड से मुक्त नेटफ्लिक्स प्लेटफॉर्म की ‘सेक्रेड गेम्स’ क्राइम, क्रप्शन,  क्रीड, कास्ट, पावर, पॉलिटिकल, बदला, तहकीकात से सजी है. जहां-तहां गालियों और सेक्स सीन का भरपूर इस्तेमाल किया गया है. इस सीरीज को तैयार करते हुए दर्शक के एक खास वर्ग का भी ध्यान रखा गया है. वहीं प्राइम अमेजॉन की मिर्जापुर वेब सीरीज में बाहुबली अखंडा त्रिपाठी की भूमिका निभाने वाले पंकज त्रिपाठी को यहां स्प्रिचुअल गुरु के तौर पर दिखाया गया है. उम्मीद है कि अगली वेब सीजन में त्रिवेदी, स्प्रिचुअल गुरु और जोजो के बाद पुलिस द्वारा गिरफ्तार नवाजुद्दीन सिद्दीकी के पिता को भी दिखाया जाएगा.

पूरी सीरीज देखने के बाद आप कहेंगे कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी के नाम पर भाई बेस्ट डायलॉग डिलीवरी एक्टर का अवार्ड होना चाहिए. मंटो के बाद यहां भी बैकग्राउंड में स्टोरी टेलर के तौर पर उनकी अवाज और डायलॉग दर्शक को कहानी से जोड़े रखते हैं. वरना बेहतरीन स्क्रिप्ट होने के बाद बॉलीवुड में कई एक्टर एक्टिंग के साथ-साथ कहानी के फ्लैशबैक इन-आउट में डायलॉग को संतुलन नहीं रख पाते हैं. जबकि सेक्रेड गेम्स में 40-45 साल पहले मुंबई में घटित सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं को अच्छी तरह से अंडरलाइन किया गया है. चाहे वो इमरजेंसी हो, सिख दंगा-1984 हो, शाह बानो केस पर राजीव गांधी का रवैया हो या फिर बाबरी मस्जिद आैर मुंबई दंगा. सभी का सरल, स्पष्ट और गंभीरता से जिक्र किया गया है. स्क्रिप्ट के साथ-साथ नवाजुद्दीन इसके सूत्रधार है.


Tuesday, 30 October 2018

वो बाज़ार ही क्या जहां ठगपन न हो, फिर भी देखिए बेहतरीन डायलॉग्स से अटी ‘बाज़ार’ फिल्म

बाज़ार. बाज़ार. एक इंडस्ट्री-एक टाइटल मगर फिल्में दो. पहली 1982 में आई और दूसरी 2018 में. थोड़ा कन्फ्यूजन से बचा जाए. इसलिए बाज़ार-2018 को सैफ अली खान की अभिनय वाली फिल्म समझी जाए. इस फिल्म का निर्देशन गौरव के चावला ने किया है. फिल्म का टाइटल धंधे का संकेत करती है. ट्रेलर शेयर बाजार का कनेक्शन बताता है. और ऐसी सोच का पूरा सस्पेंस थियेटर में खत्म हो जाता है. घर लौटकर दोस्तों को बताते हैं कि यह फिल्म मुंबई की आलिशान इमारत के टॉप फ्लोर के खाली दफ्तर से शुरू होती है, जहां देर रात सूट-बूट में रिजवान ठहरी निगाहों के साथ बेखौफ चलता हुआ प्रतीत सुसाइड प्वाइंट पर आ खड़ा होता है. और साथ चलता है डायलॉग- ‘ये शहर सपनों को घर देता है, इरादों को मंजिल देता है, अरमानों क हासिल करता है, दीवनों को काबिल करता, लेकिन मैं वो दीवाना था जिसने काबिल बनकर मंजिल तो हासिल किया, लेकिन सपनों के पीछे अपनों को पीछे छोड़ दिया’. सीन और डायलॉग को समझाने के लिए फिल्म फ्लेशबैक में खुलती है. शहर इलाहाबाद, जहां रिजवान अहमद (रोहन मेहरा) पेशे से स्टॉक ब्रोकर है. पैसा कमाने की चाहत में अपने पिता की सोच से ज्यादा स्मार्ट है. उसकी थ्योरी में वफादारी की कोई कीमत नहीं है. ठीक उसी तरह जैसा कि शेयर बाजार में शेयर्स के भाव किसी के वफादार नहीं होते. पिता के एतराज के बावजूद फैमिली के ड्रेमेटिक सिचुएशन में मुंबई आ जाता है।

शकुन कोठारी (सैफ अली खान) फिल्म का बहुप्रतीक्षित किरदार है. और शेयर बाजार में सिर्फ प्रॉफिट का बादशाह. यानी की बिजनेसमैन.  रिजवान का कथित खुदा. पर इस गुरु-शिष्य के बीच की दूरी कब खत्म होगी ये स्क्रीन से जोड़े रखती है. एक तरफ जहां रिजवान स्टॉक ब्रोकर की नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है, उधर शकुन बाजार में अपने दबदबे को कायम रखने के लिए डील कर रहा होता है। देश की अर्थव्यवस्था में शेयर बाजार का जो दखल है उसी अंदाज में डायरेक्टर गौरव ने इस बाजार की दुनियां में शकुन के किरदार को फैक्टर के तौर पर गढ़ा है. शकुन सेठ से शकुन कोठारी बनने के सफर को जानना दिलचस्प है. जो स्कूल भी जाता तो खिलौनों वाली क्लास तक सीमित रह जाता. किताब के पन्ने पलटने वाली उम्र में मुंबई-गुजरात के बीच अंगरिया बनकर हीरा हवाला का काम करता है. सेठ की बेटी मंदिरा (चित्रांगदा सिंह) से शादी पर मिली 50 करोड़ की कंपनी को 5 हजार करोड़ की बना देता है. कहानी में एक के बाद एक शकुन की जो सफलताएं दिखाई है. उन्हें अगर शेयर बाजार की वास्तविक दुनियां से जोड़कर देखा जाए तो वहां हर्षद मेहता और जॉर्डन बेलफोर्ट का नाम पहले लिया जाएगा. हर्षद मेहता पर गफला और जॉर्डन बेलफोर्ट पर द वुल्फ ऑफ वॉल स्ट्रीट (TWOWS) फिल्म आ चुकी है. वैसे देखा जाए TWOWS और बाज़ार में काफी कुछ कॉमन है. फिल्म का फ्लेशबैक, रिजवान-जॉर्डन (लिओनार्डो डी कॅप्रिओ) का जुनूनी स्टॉक ब्रोकर होना, उसकी ग्लेमरस को जीना और अपने-अपने सीन में कॉफी-पेन को स्मार्टली बेच डालना.

बेहतरीन स्क्रीनप्ले, क्लाइमैक्स के साथ फिल्म में खूब सारे डायलॉग है. खासकर सैफ अली खान के बोले गए डायलॉग्स- जैसे गुजराती में ‘पैसा सिर्फ उसका, जो धंधा जानता हो और हम धंधो न गांदो छौकरों छै’. इसके अलावा ‘मैराथन में दौड़ने वालों को कोई याद नहीं करता’ और इनवेस्टमेंट के लिए रिजवान को दिए गए करोड़ों के चैक पर बोला गया डायलॉग ‘रूल नंबर एक मेरा पैसा कभी खोना नहीं, रूल नंबर-दो रूल नंबर-1 को भूलना नहीं’. ये डॉयलॉग्स न किरदार को परफेक्ट बनाते हैं बल्कि स्क्रिप्ट का आधा काम भी कर देते हैं. ये समझा जाते है कि फिल्म का मुख्य किरदार क्या चाहता है और किस मिजाज का है. कहानी के आखिर तक पता तक नहीं चलने दिया जाता कि यह किरदार फिल्म का नायक हैं या खलनायक. वहीं करियर के लिए मुंबई का रूख करने वाले युवा रिजवान के उस वक्तव्य को एडोप्ट कर सकते हैं, जहां वह मकान के मालिक को बोलता है कि-‘यहां स्ट्रगल करने नहीं सेटल होने आया है’ और ‘सपने कभी मरने नहीं देते’.

फिल्म में शकुन बनाम रिजवान को देखना अच्छा लगता. पर डायरेक्टर का दर्शकों के लिए ये सरप्राइज थोड़ी ही देर के लिए. जब मालूम चलता है कि रिजवान की तमाम उपलब्धियां शकुन का एक जाल है, तब दर्शक कुछ ठगा सा महसूस कर सकते हैं. बाजार में फर्जी काम करने वालों पर नजर रखने वाली एजेंसी सेबी का ऑफीसर भी है. वो भी अपने दमदार रोल में. लेकिन सीमित है. ये तो एंटरटेनमेंट है. सब कुछ जायज है. बशर्ते: कि इसमें द वुल्फ ऑफ वाल स्ट्रीट जैसी मूवी की कहानी न ढूंढे. बाज़ार फिल्म को देखने के बाद हो सकता है कई युवा इस सेक्टर में करियर के लिए बढ़ें. इनवेस्टर भी राजनीतिक गतिविधियों, आंदोलनों और प्राकृतिक आपदाओं को जान लेने बाद ही बाजार में पैसा लगाए. फिल्म में सुझाव है तो चेतावनी भी है. नहीं भूलना चाहिए ऊपर जिक्र की गई तीनों फिल्मों में शेयर बाजार के डीएनए में फ्रॉडपन भी (असुरक्षा) नजर आता है.

Thursday, 25 October 2018

कई किस्सों से मिलकर बनी वो फिल्म जो अनावश्यक डायलॉग से बचाती है : द आर्टिस्ट

म्यूट फिल्म का नाम सुनकर जो इंटरस्ट जागता है वो स्क्रीन तक ले जाने में इतना सक्षम नहीं होता है. कन्फ्यूजन रहता है दर्शकों में. न जाने अपनी तबीयत की फिल्म होगी या नहीं. टाइम वेस्ट, पैसा वेस्ट. ऊपर से फिल्म का औसतन वक्त दो से ढाई घंटे भी झेलों. इन बातों को दरकिनार करते हुए द आर्टिस्ट फिल्म देख लें तो एक साइलेंट फिल्म को लेकर बनी सारी धारणाएं टूट जाएंगी. और फेसिअल एक्सप्रेशन के नाम पर मुग्ध-मोहित कर देने वाली प्रिया प्रकाश वारियर के प्रशंसकों की फेहरिस्ट भी थोड़ी छोटी पड़ जाएगी.  मिशेल हेजेनाविशुस की डायरेक्टेड ये फिल्म साल 2012 में आई. फिल्म का बैकड्रॉप पर 1920 के दशक का है. तब सिनेमा ब्लैक एंड व्हाइट हुआ करता था. और आर्टिस्ट अपने आर्ट से उसमें कलर भरते थे. यहां लीडिंग रोल में जॉर्ज वेलिनटाइन हीरो है. थियेटर में तालियां और उसके बाहर प्रशंसकों की भीड़ का सीन जॉर्ज के स्टारडम को बयां कर रही होती है. जॉर्ज जिस भीड़ के सामने बाउंसरों के घेरे में अदाए बिखेर रहा होता उसकी झलक पाने और ऑटोग्राफ लेने के लिए ठसाठस भीड़ से  एक युवती अचानक बाहर निकल आती है. भीड़ से अलग पाकर लड़की शांत और संकोच वाले भाव में दिखती है. जॉर्ज युवती के पास आता है. ऑटोग्राफ देता है. हंसता चेहरा जैसे प्रशंसकों की तरफ उठाता है वैसे ही युवती उसके चेहरे को चुम लेती है. ये तस्वीर अगले दिन सभी अखबारों की सूर्खियां बन जाती है. ये पूरा सीन एक स्टार के स्टारडम का औरां और फैंस फोलोविंग को बताता है.
जॉर्ज का राज न सिर्फ प्रशंसकों के दिलों तक है बल्कि किनोग्राफ स्टूडियो पर भी है. उधर अखबारों के जरिए चर्चा में आई प्रशंसक युवती भी किनोग्राफ स्टूडियो विजिट करती है. बाय चांस उसे वहां ऑडिशन का मौका मिलता है. यहां जॉर्ज और उस युवती की ये दूसरी मुलाकात होती है. फिल्म में आगे युवती की महत्वाकांक्षा दिखाई गई है. वो भी स्टार बनना चाहती है. दोनों स्क्रीन पर एक साथ दिखने लग जाते हैं. युवती पेप्पी का डांस दर्शकों को जॉर्ज के बजाय ज्यादा अच्छा पसंद आने लगता है. पसंद के आधार पर किनोग्राफ स्टूडियो फिल्में बनाना शुरू कर देता है. और शुरू होता है अनुभवी एक्टर जॉर्ज का स्टार्डम ग्राफ तेजी से गिरना और पेप्पी के स्टार्डम का ग्राफ ऊपर की ओर बढ़ना है. डायरेक्टर, जॉर्ज से कहता है कि पब्लिक नया चेहरा देखना चाहती है. पर जॉर्ज उस बात को दरकिनार करते हुए खुद ‘द टिअर्स ऑफ लव’ फिल्म डायरेक्ट-प्रोड्यूस करता है. पर दर्शकों को पसंद नहीं आती. नाकामयाबी पर जॉर्ज शराब पीता है। जरूरतों को पूरी करने के लिए अपनी महंगी ड्रेस बेच देता है. घर की चीजें नीलामी करता है. कहानी का ये हिस्सा मोहित सूरी की डायरेक्टेड आशिकी-2 में भी देखने को मिलता है, जहां पॉपुलर सिंगर राहुल जयकर की मदद से रेस्टोरेंट में गाने वाली आरूही बड़ी सिंगर बन जाती है.


डायरेक्टर मिशेल की फिल्म को देखते वक्त लगता है कि कई फिल्मों के किस्सों को  जोड़-जोड़ कर बनाई है. चाहे जॉर्ज द्वारा एक साल से अपने ड्राइवर क्लीफ्टन को सैलरी नहीं दिए जाने के बदले में उसे वो कार देकर अकेला छोड़ देने की बात कहता है. यहां क्लीफ्टन की वफादारी डेविड धवन की डायरेक्टेड स्वर्ग फिल्म में नौकर कृष्णा और उसके मालिक मिस्टर. कुमार के बीच रिश्ते वाले सीन की याद दिलाती है। या फिर जॉर्ज का पालतू कुत्ता जो फिल्म के शुरू से लेकर अंत तक उसके साथ दिखता है. वो कुत्ता उसकी स्टार्डम में पॉजीटिव ‌इफेक्ट है. कुत्ता अपनी समझदारी से जॉर्ज की जान बचाता है। उसे देख जैकी सैरॉफ की तेरी मेहरबानियां फिल्म में उसके पालतू कुत्ते की चतुराई नजर आती है.
फिल्म अगर किसी कंटेंट पर केंद्रित है तो वो है स्टार सिस्टम. जो सालों से किसी प्रोडक्शन हाउस या स्टूडियों पर किसी एक स्टार या गिने-चुने अभिनेताओं का वर्चस्व रहा है. लेकिन अब दर्शकों के बीच अच्छी और बुरी फिल्मों में फर्क करने की समझ पैदा हो गई है. यहीं वजह है कि आज सिर्फ सिनेमा ही नहीं बदला उसका दर्शक वर्ग भी बदल गया है.  

Monday, 22 October 2018

सिर्फ एंटरटेनमेंट मटीरियल नहीं है फिल्म बधाई हो

ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यूं हुआ, जब हुआ, तब हुआ ...जानने के लिए पढ़ें

बधाई जुल्म भी हो सकती है, ये पहली बार ‘बधाई हो’ फिल्म देखकर अहसास हुआ. आप भी जरूर देखिए. इसलिए कि जीवन की यात्रा में यदा-कदा हम सभी इसके पात्र है. बधाई लेने के भी और देने के भी. पर अमित रविंद्रनाथ शर्मा की डायरेक्शन में बनी बधाई हो फिल्म में कौशिक परिवार के उन दो बच्चों के लिए ‘बधाई हो’ (तीसरे बच्चे की प्लानिंग) उस कहावत की तरह हो जाती है जो न निगला जाए और न ही उगला जाए. यह परिवार दिल्ली के लोदी गार्डन के रिहायशी एरिया में रहता है. एरिया कहें या सरकारी क्वार्टर. परिवार का मुखिया अधेड़ उम्र का जितेंद्र उर्फ जीतू (गजराज राव) रेलवे में टीटी है, वो भी रिटायरमेंट के करीब वाला. अपनी मां के लिए सरकारी नौकर है और सरकार की बात (हम दो हमारे दो) से न समझ रखने वाला भी. पत्नी प्रियंवदा (नीना गुप्ता) की नजरों में वह सभ्य-सुशील और वफादार है. जीतू रोमेंटिक कविताएं भी लिखता है. उन छपी कविताओं में से एक रोज ‘मिलन की ऋतु’ रात के वक्त पत्नी को सुनाता है. और बच्चों के नजरिये से थोड़ा कंजूस है. इसे उस सीन से देखा जा सकता है, जहां जीतू आम की पेटी कार में रखने की एवज में टिप भी आम ही देता है। वो भी चुन कर. लेकिन सेवा के बदले वस्तु का थमाना बीते दौर में कंजूसी नहीं होती थी. मिडिल क्लास फैमिली वाली लाइफ की तरह कौशिक परिवार में सब कुछ सही चल रहा होता है. बड़े बेटे नकुल (आयुष्मान खुराना) की कॉरपोरेट दफ्तर में नौकरी और गर्लफ्रेंड के साथ इश्क-रोमांस. छोटे बेटे गुलर  की 12वीं बोर्ड की पढ़ाई. कौशिक परिवार की रफ्तार पर ब्रेक तब लगता है जब नन्हे मेहमान की एंट्री होती है. यानी की प्रियंवदा मां बनने वाली होती है. पर सास, पति और दोनों बच्चों के लिए इसे समाज, रिश्तेदारों और दोस्तों से डील करना चुनौती भरा होता है. पता चलने पर पड़ोसी कौशिक परिवार को बधाइयां देते हैं और साथ में दबी आवाज में खिकियाईं हंसी भी. जो रोके न रुके. ये हंसी नकुल और गुलर पर ऐसे बीतती है जैसे कि कोई जुल्म हो.
फिल्म के एक पात्र का प्रियंवदा की प्रेग्नेंसी पर एक डायलॉग है-‘ये न टोकने की उम्र है न टोक खाने की’. यह डायलॉग तेरे नाम फिल्म के उस सीन की याद दिलाता है जब राधे (सलमान खान) का दोस्त असलम लाइब्रेरी में घूसकर उसे खाली करवाता है और वहां उसका सामना पढ़ रही महिला से होता है, तब असलम बोलता है-‘ये लो इनको लो मां बनने की उम्र है और यहां पढ़ाई कर रही है'. ऐसे डायलॉग दर्शकों का ध्यान जरूर खींचते हैं. पर सिर्फ ठहाके के अंदाज. पूछा जाना चाहिए कि क्या पढ़ाई करना गलत है या फिर पति-पत्नी के बीच बना संबंध, जिस पर रिश्तेदारों व पड़ोसियों की तंज भरी हंंसी की गुब्बार जो बार-बार शर्मिंदा करवाने के लिए बढ़ती चली जाती है। डायरेक्टर अमित ने फिल्म के जरिए समाज की जिस वर्जना को दिखाया है, दरअसल उस पर हमारे बीच ज्यादा बात ही नहीं की जाती. ऐसा कहीं पढ़ने-सुनने को ही नहीं मिलता कि कोई अपने पैरेंट्स की सेक्स लाइफ पर बात करे. खासकर लड़के. यही कारण है कि समाज के उस रिएक्शन से बचने के लिए नकुल और उसका छोटा भाई गुलर दोस्त, दफ्तर और स्कूल से दूरी बनाकर रखते हैं. फिल्म का एक बिंदु और है जहां बात करना बेहद जरूरी हो जाता है. बच्चा पैदा होने और न होने से लेकर परिवार में जब ये बात मसला बन जाती है तो उसका ठीकरा भी महिलाओं के सिर फोड़ा जाता है. नकुल की दादी ये बात कहने में बिलकुल भी देर नहीं लगाती कि इसकी जिम्मेवार बहू है. उम्र के एक पड़ाव को पार करने के बाद बहू के लगाए गए लिपिस्टिक की जिक्र तपाक से कर देती है. और अपने बेटे जीतू को कैरेक्टर सर्टिफिकेट दे देती है. लेकिन पति-पत्नी के बीच बॉन्डिंग अच्छी है. वो देखना मजेदार है. डायरेक्टर अमित की यहां तारीफ करने पड़ेगी कि इसे सास-बहू की कहानी नहीं बनने दिया है. उनका स्क्रिप्ट पर अच्छा कंट्रोल है.
दिल्ली के लोकल लड़के वाले किरदार में आयुष्मान खुराना फिट बैठे. वैसे ये उनकी तीसरी पिक्चर है. जब उन्हें स्क्रीन पर शर्मिंदगी झेलनी पड़ी. बधाई हो से पहले विक्की डोनर और दम लगा के हईशा जैसी फिल्म में दिख चुके हैं. पहली फिल्म में स्पर्म डोनेट की बात मां और गर्लफ्रेंड को मालूम चलने के बाद झेंप जाता है. गर्लफ्रेंड तो छोड़कर चली जाती है. जबकि दूसरी फिल्म दम लगा के हईशा में बीवी के मोटापे को खुद के लिए असहज मानता है. उसे बाजार ले जाने में हिचकता है. उसके साथ घूमने-फिरने से बचता है. पर उन दोनों फिल्मों की तरह बधाई हो में भी यहां आयुष्मान का किरदार और भी ताकतवर बनकर उभरता है. आयुष्मान ने साबित कर दिया है कि दिल्ली का ठेठ लड़का वाले किरदार में उनसे बेहतर रोल कोई नहीं कर सकता है. चाहे वो  एक्सेंट की बात हो या गर्लफ्रेंड की मां को इंप्रैस करना हो. या फिर वो सीन जब नकुल मां-बाप से नाराजगी के बाद छोटे भाई गुलर को थप्पड़ लगाने के बाद उसका डायलॉग है - ‘ बोलता रहता था अलग कमरा चाहिए, अलग कमरा चाहिए...थोड़े दिन और नहीं सो सकता था मम्मी-पापा के बीच में?’ ये मुंहफट अंदाज दिल्ली के और करीब ले आता है। 


कुल मिलाकर बधाई हो फिल्म महज एंटरटेनमेंट मटीरियल नहीं है, जहां कॉमेडी के नाम पर सिर्फ खिलखिलाकर हंसा जाए. अकसर सोचा और कहा जाता है कि दिल्ली की सीमा में घूसते ही कई वर्जनाएं खत्म हो जाती है. पर यहां हम डायरेक्टर अमित की बधाई हो के जरिए देखते हैं कि किस तरह से समाज पति-पत्नी के व्यक्तिगत मामलों पर बेमियादी हंसी हंसता चला जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए फिल्म देखने के बाद अभिभावक या अभिभावक के उम्र के लोगों की ऐसी भावनाओं की सहज स्वीकार्यता मिलेगी.

Tuesday, 9 October 2018

इलेक्शन-2018 : ‘मोदी लहर’ को राजस्थान की अंधड़ का साथ मिलेगा !


कहते हैं जब धरती पर एक समान ताकतें आमने-सामने हो तो उनमें अपने वर्चस्व की लड़ाई होती है और उनमें एक-दूसरे की जरूरत बनकर सभी धारणाओं को तोड़ने की भी जद्दोजहद होती. खासकर जो वर्षों से कामय हो. अब देखना यह होगा राजस्थान चुनाव 2018 रूपी धरती पर है पीएम मोदी की कथित ‘मोदी लहर’ और राजस्थान की अंधड (सत्ता का ट्रेंड) के बीच कौन, किस पर कितना भारी पड़ता है या उन धारणाओं को तोड़ देगी जो इसके प्रहरी है. 
तारीख 6-अक्टूबर-2018. वक्त दोपहर के ठीक 2 बजे. जगह अजमेर. टीवी मीडिया ने पीएम नरेंद्र मोदी की आमसभा में टेंट के फटने पर न्यूज फ्लैश की- ‘आंधी से फटा टेंट’. पर पीएम मोदी बोले थे- ‘लो आ गई जीत की आंधी’. वो यहीं नहीं रूके. 53 हजार बूथों की जीत पर चुनाव की जीत सुनिश्चित की बात पर जैसे ही उन्होंने पॉज लिया वैसे ही सभा स्थल कायड़ विश्राम स्थली में जोर से हवाएं चलने लगी. सभा में बैठी लाखों लोगों की भीड़ हवा के साथ आए रेत के कणों को आंखों से निकाल पाती, तभी पीएम बोले- ‘देखिए प्रकृति भी हमारा साथ देने के लिए आई है. विजय की आंधी भी चल पड़ी हैं. राजस्थान की धरती में जब धरती माता आशीर्वाद देने आती है तो विजय निश्चित हो जाती है. और विजय को लेकर आगे बढ़े. पूरे संकल्प को साकार करने के लिए चल पड़ें.’ रेत के कणों से जनता राहत पाकर आंखें खोलते ही पाती है कि पीएम मोदी स्पीच खत्म कर चुके है. अभिवादन के अंदाज में हाथ हिलाते हुए मंच से जा रहे है. वैसे ये पूरा नजारा किसी फिल्मी सीन से कम नहीं लग रहा था.

पीएम मोदी यहां सीएम वसुंधरा राजे की ‘राजस्थान गौरव यात्रा’ के समापन पर आए थे. अपने चीर-परीचित अंदाज में मोदी कांग्रेस पर खूब बरसे. उन्होंने जनता को ऐसा पाठ पढ़ाया की उनके लिए कांग्रेस और विफलता में फर्क करना भी कुछ देर के लिए मुश्किल हो गया. हालांकि पार्टी में करीब 74 दिनों तक चले प्रदेशाध्यक्ष के उम्मीदवार पर तनाव को भुलाकर पीएम मोदी ने वसुंधरा के सुशासन में कसीदे पढ़ीं. उन्होंने वसुंधरा सरकार की तारीफ की. कहा, ये सरकार 63 दिनों की यात्रा में जनता को हिसाब दे रही है. मंच का ये फ्रेम अतीत में झांकने को मजबूर कर रहा था. वो दिन, तारीख 11-09-2013 का ही था. जगह जयपुर में अमरूदों के बाग, जहां प्रदेशभर में 78 दिनों तक चली सुराज संकल्प यात्रा का वसुंधरा राजे ने समापन सम्मेलन किया. तब नरेंद्र मोदी भाजपा चुनाव अभियान के प्रमुख थे. और भाजपा की तरफ से साल 2014 के आम चुनावों में पीएम कैंडिडेट. उस वक्त उन्होंने वसुंधरा राजे और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ मंच सांझा करते हुए कहा था- ‘आ रही है परिवर्तन की आंधी, राजस्थान रंग लाएगा तो देश भी दम दिखाएगा’. उन्होंने मंच से जनता को एबीसीडी का मतलब भी बताया था. ए यानी आदर्श घोटाला, बी यानी बोफोर्स-भंवरी देवी, सी यानी कोयला-कॉमनवेल्थ घोटाला और डी यानी डिफेंस का भ्रष्टाचार-दामाद का कारोबार. तब वे रूपया के सेहत पर भी बोले थे. उन्होंने कहा था गुजराती और राजस्थानी से बेहतर रूपया की कीमत कौन जानता है? बहरहाल मोदी पीएम रहते हुए अजमेर की आमसभा से रूपया पर कुछ नहीं बोले. पेट्रोल-डीजल के कम किए गए दामों का जिक्र जरूर किया गया. पर इस फैसले से ट्रेडिंग में सरकारी तेल कंपनियों में निवेशकों के बीच नुकसान से मचे बवंडर का संकेत तक नहीं किया.
देखा जाए तो प्रदेश में सीएम वसुंधरा के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी का भी माहौल है. इसे 11 माह पहले हुए अजमेर व अलवर लोकसभा सीट और विधानसभा की मांडलगढ़ सीट पर उप-चुनाव के नतीजे से टोह लगाया जा सकता है. पीएम मोदी बुलेट ट्रेन चलाने की बात करते हैं लेकिन प्रदेश में 15-16 दिन तक रोडवेज नहीं चल पाती. केंद्र-राज्य की सरकारें डिजिटल की बातें करती है. लाखों-करोड़ों रूपए खर्च कर बीकानेर में डिजि राजस्थान पर प्रोग्राम किया जाता है. पर हर एग्जाम कंडक्ट करवाने के लिए सरकार पूरे-पूरे दिन इंटरनेट शटडाउन कर देती है. पांच साल पहले नरेंद्र मोदी ने प्रदेश में गहलोत सरकार को सांप्रदायिक दंगे और झड़पों पर घेरा था. लेकिन वसुंधरा सरकार के शासन में हुई लिंचिंग पर दम तक नहीं भरा. पीएम होने के नाते मोदी वसुंधरा सरकार को हिदायतें दे सकते थे. लेकिन माहौल चुनाव का है. ये माहौल कुछ मेहमान की तरह है. जैसा कि घर आए मेहमानों के बीच घर की शिकायतें नहीं की जाती. ठीक यही फॉर्मूल यहां राजनीति में भी अपना लिया गया.

फलसफा यही है कि मोदी आज तक कथित ‘आंधी’ और ‘लहर’ की ही बातें करते आ रहे हैं. पर कमबख्त राजस्थान की जमींनात तो धोरों की है. यहां आंधी और लहर की जगह अंधड़ शब्द उपर्युक्त है. इसलिए भी की यहां टीले टिकते नहीं. जिन हवाओं के साथ ये टीले नीत नये मुकाम हासिल करते रहते हैं. अब देखना ये होगा कि ‘मोदी लहर’ को राजस्थान की अंधड़ (सत्ता का ट्रेंड) का कितना सहारा मिलता है? क्यों कि यहां की सत्ता पर तयशुदा वक्त पर सियासी दलों का कब्जा होता रहा है. साल 1993 के बाद से हुए पांच चुनावों के सत्ता में कभी बीजेपी रही है तो कभी कांग्रेस. पिछले डेढ़-दो दशक में सत्ता का कुछ ऐसा ही ट्रेंड हिमाचल व उत्तराखंड में बीजेपी और कांग्रेस के बीच, केरल में सीपीआई (एम) और कांग्रेस+यूडीएफ के बीच में भी देखने को मिलता है. हमें चाहिए की हर पॉसिबिलिटी का वेलकम करें. एबीपी न्यूज और टाइम्स नाउ जैसे चैनल्स लगातार जनता के मूड को ओपीनियन पोल पर सर्वे रिपोर्ट लेकर आ रहे हैं कि विधानसभा की 200 सीटों पर कौन सी पार्टी, कितने सीटों पर कब्जा करने वाली है. इन सबके बीच एक साफ, ईमानदार और नई ऊर्जावान सरकार बनाने में ओपीनियन पोल अहम हो जाता है. 

Wednesday, 3 October 2018

क्या मेड इन इंडिया की पहली किस्त है फिल्म सुई-धागा

मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है. मेड इन चाइना की जगह मेड इन इंडिया ले रहा है. तकनीकी डेवलपमेंट के लिहाज से सुई-धागा की ट्रांसफोर्मिंग तस्वीर है सिलाई मशीन है. हर जुबां बोले सिलाई मशीन यानी ऊषा की सिलाई मशीन. जो कभी किसी घर के एक कोने में पड़ी रहती है. साफ-सफाई के वक्त ही नजर आती है. लेकिन फिल्म सुई-धागा में शरत कटारिया ने इस पर विंटर-वॉर छेड़ दिया है, जहां कभी चाय पिलानी पड़ती है, मशीन के मालिक पड़ोसी से झगड़ना पड़ता है और कंपनी स्टाफ के धक्के खाने पड़ते हैं. सब कुछ आप से कनेक्ट करते हुए चलती है. फिल्म का एक्टर मौजी (वरूण धवन) है नाम से भी और मन से भी. और आशावादी उसकी खासियत है. एक्ट्रेस ममता (अनुष्का शर्मा) मिडिल क्लास फैमिली की बहू है. जो हर वक्त घर के कामों में उलझी रहती है. कभी पानी भरना तो कभी रोटी बनाने से लेकर ससुर के लिए चाय तैयार करने और सास के लिए दवा लाने तक में. पारिवारिक मामलों में मुंह से दखल की एक बात तक न निकलती. एक पल के लिए माथे से साड़ी का पल्लू तक न हटता. एकदम भारतीय नारी. और अपने पति मौजी के लिए पत्नी से बढ़कर दोस्त बन जाती है. डायरेक्टर शरत ने इस कैरेक्टर को कसकर डायरेक्ट किया.

फिल्म की कहानी वर्तमान के हालात के बेहद नजदीक है. उससे भी ज्यादा इसका कथानक फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ के करीब लगता है। जिसे डायरेक्ट शरत ने ही किया था. उन्होंने ‘सुई-धागा’ में भी फैमिली ड्रामा दिखाया है. खासकर बाप-बेटे का संबंध. आयुष्मान खुराना की तरह यहां वरूण धवन शॉप पर काम करते हैं. फर्क ये कि शॉप खुद की बजाय किसी दूसरे की है. शरत की उस फिल्म का हीरो पत्नी को साथ लेकर चलने से बचता था, झिझकता था, पर यहां हीरो हमकदम होकर पत्नी के साथ चलता है. मसला रोजगार के संकट का भी है. शॉप ऑनर का बेटा प्रशांत मौजी की ही उम्र का है. जो उसके साथ भद्दे मजाक करने से बाज नहीं आता है. अपने एंटरटेनमेंट के लिए अपनी ही शादी में मौजी को पालतू कुत्ता कहकर मांस दिखाकर उसे इधर-उधर दौड़ाता है. ये देख पत्नी ममता की भौंहे खींच जाती है. अपमान का ये घूंट वो पीकर रह जाती है. वैसे ये सीन उन तमाम महानगरों और छोटे नगरों की तस्वीर है, जहां मालिक अपने कर्मचारियों से उसी पगार पर घर के काम करवाते और गाड़ियां भी धुलवाते हैं. मतलब की मालिक-मालिक होता है और नौकर-नौकर होता है. फिल्म जो केंद्रित है वो हैंडलूम के अन-ऑर्गेनाइज्ड कारीगरों पर आधारित है. मौजी इसका उस्ताद होता है. इसलिए की ये उसका पुश्तैनी काम है. उसकी पीढ़ी आते-आते उसके पिता ने ये काम बंद कर दिया है. वजह अनुभव में असफलता का हाथ लगना. विफलता के जिस दौर से एक बाप गुजरा उससे बेटे का सामना न हो. इसलिए वह अपने बेटे को इस धंधे में आने से रोकता रहता है. डॉग-शो पर पत्नी की आंखों में खुद के लिए नाराजगी देखकर नौकरी छोड़ देता है. इज्जत की रोटी के लिए पत्नी ममता की सुझाई बात पर खुद का काम शुरू करता है.

ममता हर जगह मौजी का साथ देती है. काम का आइडिया देने से लेकर, दुकान की जगह और ग्राहकों को लाने तक में. हॉस्पिटल में एडमिट मां के लिए बनाई पुरानी चादरों की मैक्सी वहां के मरीजों व उनके परिजनों को खूब पसंद आती है. हाथों हाथ ऑर्डर्स मिलते हैं. ये पहला मौका होता जब मौजी के हाथों का टेलेंट दिखता है. और यहां से पूरी फिल्म का प्रिडिक्शंस लगा लिया जाता है. फिल्म को डायरेक्टर ने मौजी-ममता को कुछ यूं दिखाया है जैसे सुई-धागा. इन्हें अलग कर दिया जाए तो किसी काम के नहीं. और एकसाथ आ जाए तो फटी किस्मत भी सील सकते हैं. वैसे फिल्म में एक अच्छे वाला डायलॉग भी है- ‘ऑल इज वेल’ or ‘एवरिथिंग इज ऑल राइट’. ‘सब बढ़िया है’. जिंदगी का हर बड़े से बड़ा बोझ इस वाक्या के जरिए ढोया जा सकता है. यानी उस वक्त जब हर चीज बोझिल मालूम होती हो. यहां तक की आकाश में छितराये बादलों के तले खुद को दबा महसूस होता हो. ममता मौजी की इस लाइन को बेहद अच्छे ढंग से जानती है. और इसका बयां भी खूबसूरती से करती है. मां के इलाज के लिए दोनों जब कोरपोरेट की नौकरी ले लेते तो हैं तो मौजी वहां खुद को मिसफिट पाता है. उसे वहां का कल्चर रास नहीं आता है. खासकर मार्केटिंग का वो फंडा जिसका वह खुद शिकार होता है. खुद की बनाई चीज कंपनी के जरिए मार्केट में उसे चार गुनी महंगी मिलती है तो वह और भी अपने अाप से बाहर हो जाता है. और ये स्वभाविक है.

वैसे हाथों के टेलेंट पर बनी ये कोई पहली फिल्म नहीं है. जो निर्मित प्रोडक्ट का कंपनी के जरिए बाजार में पहुंचने पर उसके दाम कम मिलते हो और सीधे बाजार में पहुंचाने पर उसका पूरा लाभ. बिचौलिये के कमीशन का ये खेल ‘अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’ फिल्म में भी देखने को मिलता है. हैंडीक्राफ्ट का जो प्रोडक्ट ग्रामीण क्षेत्रों से बनकर बंबई की दुकान पर पहुंचता है तो वह और भी महंगा बिकता है. फिल्म सीधे-सीधे उन्हें प्रोमोट करती है जिनके पास खुद का कौशल है तो वह खुद का काम शुरू कर उस ऊंचाई तक पहुंच सकते है जहां मौजी पहुंचता है. साथ ही उस एेरा से भी निकलने में यकीन दिलाती है की अब जो प्रोडक्ट आप तक पहुंच रहा है वो मेड इन चाइना या मेड इन जापान नहीं बल्कि मेड इन इंडिया है.

Sunday, 30 September 2018

एडल्टरी पर लिखे नॉवेल ‘छोर’ में महिला साथी की वो चिट्‌ठी क्यों पढ़ी जानी चाहिए?

रेलगाड़ी में जैसे-जैसे बंबई की ओर बढ़ रहा था तब जानती हो, कलेजा पीछे मैसूर की ओर खिंच रहा था! मैसूर का मतलब तुम.  वरना, बंबई में ही रह जाता. नवीन ने बड़ा आग्रह किया. कहा कि यहीं रह जाओ, तुम जितना कर सको उससे बढ़कर यहां काम है. खाने के टेबल पर सोमशेखर और अमृता के बीच बातचीत का ये अंश नॉवेल ‘छोर’ का है. दोनों एडल्टरी रिलेशनशिप में हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक फैसले में अवैध मानने से इंकार कर दिया. सोमशेखर और अमृता के बीच विश्वास, चाहत, केयरिंग और उदारता है. जो उस रिश्तें में खाद-पानी का काम करते हैं. फिर भी ये रिश्ता समाज-परिवार के डर के साये में गिनती की सांसे लेता मालूम होता है.

डॉ. एस.एल भैरप्पा का ये नॉवेल साल 1992 में आया. तब भारत में एडल्टरी रिलेशनशिप शब्द का इस्तेमाल मुखर नहीं था. लेकिन सामाजिक व्यवस्था में थे और अवैध ही थे. इसी दौर में देश कैपिटलिज्म के ट्रेक पर बढ़ा. आर्थिक निर्भरता ने समाज की बहुत सी वर्जनाएं तोड़ी. उनमें से एक एडल्टरी रिलेशनशिप भी रहा. नॉवेल मैसूर शहर के बाहरी ललित महल रोड पर बने पुरानी इमारत से शुरू होती है. बारिश का सीजन शुरू होने को है. घर की मालकिन डॉ. अमृता छत के बीचों-बीच बनी दो दरारों को लेकर चिंतित है. उससे भी ज्यादा चिंता की बात ये कि मरम्मत पर 30 हजार रुपए खर्च होंगे. बाद में आने की बात बोल कर एक महीने बाद अमृता आर्केटेक सोमशेखर के पास आती है. और छत की दरारों में सुर्खी डलवाने को मजबूर हो जाती है. सोमशेखर क्लाइंट अमृता की आर्थिक हालत को उसकी पुरानी इमारत से पहचान जाता है. और फिर एक महीने बाद पुन: आई अमृता उसकी सलाह पर मुहर लगा जाती है. इसलिए वो उसे अस्थाई रूप से डामर भरवाने की सलाह देता है. खर्चे के नाम पर 500-600 रुपए की लागत है. साधारण काम बता सोमशेखर फीस लेने से इंकार कर देता है. पहली बारिश में पानी छत से नहीं टपका. ये बात अमृता सोमशेखर को फोन पर बताती है और चाय पर इनवाइट करती है. पहली दफा सोमशेखर टालमटोल कर मना करने का विचार करता है लेकिन अमृता को सीधे जवाब देने की अपेक्षा में आने के लिए हां बोल देता है.  पर उस रोज सोमशेखर चाय पर नहीं आता है. और उसके नाम बैंगलोर जाने की बात लिखकर चिट्‌ठी छोड़ देता है।

 लेखक भैरप्पा ने सोमशेखर और अमृता की पहली मुलाकात को फ्रेश तरीके से लिखा है. जबकि दूसरी मुलाकात सहज और परिचित लगती है. और फिर आगे सोमशेखर की ऑफिस का लंच टाइम से लेकर शाम के 4 बजे तक का वक्त अमृता के घर के रजिस्टर में दर्ज होने लगता है. ये वक्त दोनों के लिए उपर्युक्त होता है. ऑफिस में सोमशेखर का असिस्टेंट नीलकंठप्पा लंच करके आ जाता था. कन्नड साहित्य की प्रो. डॉ. अमृता कॉलेज में पढ़ा कर आ जाती थी. उधर, उसके बच्चे विजय (7) और विकास (4) स्कूल में होते थे. ये कहना गलत न होगा कि किसी पुरुष के द्वारा सहज भाव से दिए गए जरा से सहयोग के चलते ही बहुत बार स्त्रियां प्रेम के तीव्र आवेग की स्थिति में पहुंच जाती है. तीसरी मुलाकात में दोनों पास की चामुंडी पहाड़ी पर कार से घूमने निकल जाते हैं. यहां अमृता-सोमशेखर और भी करीब आ जाते हैं. पाठक दोनों के अतीत के बारे में जानते हैं. कहते हैं न वर्तमान और भविष्य के संबंधों की डिपेंडेंसी अतीत पर टिकी होती है. सोमशेखर का बंबई में 12 साल गुजारना. वहां पत्नी के जिंदा रहते हुए भी एक अन्य महिला के साथ संबंध में रहने वाली सारी बातें बता देता है. दरअसल होता क्या है कि ‘हम जिस व्यक्ति के प्यार में होते हैं और पता चलता है कि उस व्यक्ति का किसी और के साथ संबंध था तो कोई उसे बर्दास्त नहीं कर पाता’. पर ये सच्चाई उस भावी रिश्ते के लिए ठोस आधार का काम करता है. पति रंगनाथ के जिंदा रहते हुए भी अमृता का सोमशेखर के साथ एडल्टरी में रहने की वजह उसका अकेलापन नहीं है. वजह उसकी पति की शख्सियत को लेकर है. दो बच्चों की मां होने बाद भी अमृता उस संदेह को दूर नहीं कर पाई थी कि चाची द्वारा उसके एस्टेट को कब्जाने में उसके पति रंगनाथ का भी हाथ है. अमृता के नाम पर जो एस्टेट मैसूर और उसके बाहरी इलाके में हैं उसे वो अपने नाना के विरासत में मिली होती है. बचपन में नाना फिर मां की मौत के बाद पिता ने विरासत को अच्छे से संभाला. चाची के घर में आने के बाद उनका प्यार और दुलार अमृता को हमेशा झूठी ही लगी. एक रोज पिता की भी मौत हो जाती है. एस्टेट को हथियाने के उद्देश्य से ही चाची ने अमृता की शादी अपने भाई रंगनाथ से करवा देती है. रंगनाथ जिसने पढ़ाई भी एस्टेट के डोनेशन से की होती. यही असहजता अमृता को रंगनाथ से दूर कर देती है और सोमशेखर से मिलने के बाद उसके करीब.

सोमशेखर का अमृता के लिए सोमू बनना और अमृता का सोमशेखर के लिए अमू बनना

‘पति-पत्नी और वो’ में पत्नी और वो के बीच के रिश्ते को हमेशा जरूरत की नजर से देखा गया है. फिर पूछना ये भी चाहिए ऐसा कौन सा रिश्ता है जहां जरूरत निहित न हो. पढ़ते वक्त लगता ही नहीं कि आप किसी जरूरत के संबंध पर लिखी नॉवेल पढ़ रहे हो. लेखक भैरप्पा की लेखन कलात्मकता है की ये दो अनुभवी प्रेमियों की मैच्योर कहानी की बजाय अधपक्की लगती है. हर बात में नयापन है. खूब सारा ड्रामा है. पर फीलिंग सच्ची है.  नॉवेल में कई बार सोमशेखर-अमृता के बीच खूब सारा और बार-बार तनाव और तकरार होता है. फिर कुछ देर बाद सब सामान्य हो जाता है. अमृता के भाव शून्य होने पर लाइसेंसशुदा रिवॉल्वर से, पंखे से लटकर, नशीली गोलियां खाकर या कन्ननबाड़ी बांध में कूदकर आत्महत्या की पहल करते ही सोमशेखर के फोन की घंट बज जाती है या फिर वो खुद ही स्कूटर पर चला आता है. तो कभी बच्चों के अनाज हो जाने और रिवॉल्वर की आवाज से उनके उठ जाने के भाव से खुद रोक लेती है. अमृता के तुनकमिजाज और समर्पण के बीच आकार में कोई फर्क नहीं है. नॉवेल का वो अनापेक्षित हिस्सा, जहां अमृता सोमशेखर पर हाथ उठा देती है. पर अमृता के मान-मनौव्वल के बाद अपमानित सोमशेखर सहज हो जाता है. इसलिए की वो अमृता के मिजाज से वाकीफ और शायद प्यार में भी. इस सामाजिक नाम-पहचान से अलग प्यार की दुनिया में प्यार का दिया नाम भी होता है. अमृता सोमशेखर को सोमू पुकारती है तो सोमशेखर अमृता को अमू.

नॉवेल में अमृता का कैरेक्टर प्रभावित करता है. वो खुद को सुपीरियर समझती है। उसका सेंस ऑफ ह्यूमर उस वक्त भी झलकता है जब वह सोमशेखर के बंबई वाली महिला के संबंधों को बारीकी से पूछती है। वो यहां तक कहती है कि ‘ सोमू मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जान लेना चाहती हूं. ‘मैं जानती हूं मैं तुम्हें वो खुशी कभी नहीं दे पाई’. हो सकता है लेखक ने अमृता को फेमिनिज्म की शक्ल देनी चाही हो. पर अमृता की वो चिट्‌ठी अच्छी लगती है जब अबॉर्शन करवाने के बाद उस अजन्में शिशु के गुमनाम पते पर खत लिखती है। उस खत में उसकी मानवता, और मातृत्व की झलक दिखती है। खुद को हत्यारिन कहती है सिर्फ समाज-परिवार के डर से. लिखती है- ‘ तुमने जो जीव रूप लिया वह धोखे से नहीं था. सावधानी की सीमा के पार उत्साह के क्षणों में तुम्हारा अवतरण हुआ था’. उम्मीद की जानी चाहिए कि कानून का ऐसे संबंधों को अवैध मानने से इंकार कर दिए जाने पर इस तरह की हत्याएं अब नहीं होनी चाहिए. इसका फैसला महिला पर ही छोड़ी देनी चाहिए. बदले की भावना में उन हत्याओं पर भी रोक लगेगी जिसे हम दर्शक फिल्म रूस्तम और नॉट अ लव स्टोरी में देखते आ रहे हैं.

Tuesday, 25 September 2018

आपके शहरों की नुमाइंदगी करती फिल्म- बत्ती गुल मीटर चालू

सोशल ड्रामा पर फिल्म आई है. नाम है बत्ती गुल मीटर चालू. डायरेक्ट किया है श्री नारायाण सिंह ने. कहानी उत्तराखंड के टिहरी के तीन पक्के दोस्तों की. एसके यानी सुशील कुमार पंत (शाहिद कपूर), ललिता नोटियाल (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (दिव्येंदु शर्मा). कहानी में दो लड़के और एक लड़की है तो लगता है कि डायरेक्टर लव-इमाोशंस की बात करेगा. फैमिली ड्रामा क्रिएट करेगा. और सफलता-असफलता की बात करेगा. त्याग और समर्पण दिखाएगा. ये तो ठहरी प्रिडिक्शंस. लेकिन यहां दोस्तानें के इस रिश्तें में एक लड़का प्यार में हैं, दूसरा लड़का इससे अनजान और लड़की दोनों में हसबैंड मटीरियल ढूंढ रही है. पर सब कुछ अव्यक्त है. फिल्म एसके के घर के अंधेरे वाले सीन से शुरू होती है, जहां बत्ती गुल है. यहां ये सीन भी फिल्म के टाइटल की ब्रांडिंग करता है. शहर का हर मोहल्ला एक प्रतियोगिता में जुटा है. इसलिए कामकाज के हिसाब से बत्ती जरूरी भी नहीं. ब्लैक आउट के बीच जुटे लोगों की आवाज और कमेंट्री डायरेक्टर शरत कटारिया की फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ की याद दिलाती है. ज्यादातर कहानियों की तरह यहां भी हीरो एसके पूरब टोले से आता है और जीत जाता है.
भारत की कोई भी हिंदी फिल्म, फिल्म नहीं होती, वह केवल सफलता की तलाश होती है. डायरेक्टर श्री नारायाण ने पिछली फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ का फॉर्मूल ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ में भी अपनाया है. जी हां जन-जन की बात. दरअसल शहर अघोषित पावर कट और लगातार बिलों में बढ़े दामों से परेशान है. यानी हरेक घर की कॉमन प्रॉब्लम. जिसका कोई ठीक-ठाक सॉल्यूशन नहीं है. हर कोई अनिश्चितता से भरा है. उधर उन तीनों दोस्तों में करियर सेट करके शादीशुदा जिंदगी बीताने की बातें हैं. स्क्रीन पर जितनी खूबसूरती पहाड़ों की है उतनी इन किरदारों के बीच डायलॉग बाजी की. ज्यादातर बातों के पीछे ‘बल’ शब्द का इस्तेमाल है. जो अखरता नहीं पर इसे जान लेने काे मन बेताब रहता है. दो-तीन जगहों पर ‘लाटा’ शब्द भी सुनाने को मिलता है. दबंग सीरिज के सलमान खान और जॉली एलएलबी-2 के अक्षय कुमार का मिक्सअप कहूं तो यहां वो शाहिद कपूर में देखने को मिलता है. जो दोस्तों के बीच वकालत नहीं चूने की दुकान से पहचाना जाता है. कानूनी ज्ञान के दम पर छोटे-मोटे व्यापारियों को ब्लैकमेल करता है. फिल्म के हर सीन में एक्शन में रहता है. इसलिए उनकी यहां एक्टिंग लीक से हटकर लगती है. पिता के रिटायर्ड फंड और लोन के बूते सुंदर प्रिंटिंग प्रेस की स्टार्टअप कंपनी शुरू करता है. वो क्रांति नहीं शांति में विश्वास करता है. जिंदगी में अभी तक जो भी काम किए हैं नियम के मुताबिक ही किए हैं. इसी ईमानदारी की ललिता नोटियाल भी कायल है. ललिता अपने दोस्तों के बीच नॉटी नाम से पुकारी जाती है. हसबैंड मटीरियल का ऑप्शन होने के चलते नॉटी दोनों के साथ वन-वन वीक का डेट करती है. डेटिंग के वक्त नॉटी को सुंदर और भी पसंद आ जाता है. पर जिस दोस्ती की छतरी को ये तीनों ताने हुए होते हैं उसमें छेद हो ही जाती है. नॉटी का सुंदर के साथ जाना एसके को नागवार गुजरता है. और वह दूर रहने लगता है.
फिल्म का टाइटल ही  फिल्म की कहानी के लिए स्पॉइलर है. कुछ भी नहीं छिपता. लाखों का बिजली बिल बनकर जब कंपनी के नाम आता है तो सुंदर परेशान हो जाता है. उपभोक्ता मंच शिकायत केंद्र और विद्युत विभाग के चक्कर लगाता है. पर नतीजा शून्य रहता है. लगातार लाखों के आने वाले बिजली बिलों के मलबे में भीतर ही भीतर दबकर क्षत-विक्षत होता रहता है. एसके की मदद से इंकार पर एक रोज रोड के रास्ते गंगा में कूदकर जान देता है. अगर इसकी तुलना कर्ज में डूबे किसानों के सुसाइड से करें तो कोई अन्याय नहीं होगा. सुंदर की मौत का कसूरवार एसके खुद को मानता है. यहां सिस्टम के खिलाफ बदला लेने की भावना जागती है. जो अभी तक जुबां पर आ चुकी होती, बिलों का अंबार आकंठ तक चढ़ चुका होता है. लेकिन घर से निकल कर सड़क से लेकर कोर्ट तक की लड़ाई अस्तित्व में नहीं आई होती है. एसके पावर सप्लाई करने वाली कंपनी एसपीटीएल के खिलाफ कोर्ट में पिटीशन डालता है. फिर कोर्टरूम के भीतर जो होता है वो बेहद दिलचस्प है. बहस काफी हद तक जॉली एलएलएबी-2 की याद दिलाती है, जहां प्रोजीक्यूटर अक्षय कुमर का मजाकिया अंदाज डिफेंस लॉयर के हर दांव-पेंच व तर्क को खारिज करते अपने पक्ष को मजबूती से रखता है. ठीक यहां भी एसके सामने वाले वकील पर 20 साबित होता। कुछ दर्शक हैरान होंगे कि कोर्टरूम की गंभीरता ही खत्म कर दी गई है, जैसा कि सुनवाई से पहले जज का क्रिकेट मैच अपडेट लेना व एसके का डिफेंस लॉयर की नॉवेल साधु, सरिता और सेक्स को लेकर अचानक कुर्सी पर चढ़कर सबूत की तरह चारों तरफ दिखाना. हो सकता है ये डायरेक्टर का समझौता हो और फिल्म के मिजाज के अनुरूप हो. पर एसके का बहस के वक्त ‘लोड बढ़ा है आधार नहीं’ डायलॉग फिल्म की जान बन जाती है. तमाम विकास के दांवों के बीच ये फिल्म आजादी के 70 साल पहले के हालात का जिक्र कर जाती है। या यूं कहे अापके शहरों की नुमाइंदगी कर जाती है। दरअसल इसकी मार हर बड़ा-छोटा भुगत रहा है. एक-डेढ़ दशक में अाबादी, कंपनियां और कंज्युमिंग पावर बढ़ी है पर सर्विस देने के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है. चाहे वह दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव, मुंबई, चेन्नई व कोलकाता हो. हर शहर में बिजली-पानी और ट्रैफिक के आगे इंसान की लाचारी है.  

Monday, 17 September 2018

लव इमोशंस का हाई वोल्टेज है फिल्म मनमर्ज़ियां

बेपरवाही से एक-एक छत टाप जाने की चाहत तो उस लहराती कटी पतंग की डोर को थाम लेने में होती थी. ऐसा ही जुनून मनमर्ज़ियां में विक्की (विक्की कौशल) को देखकर महसूस होता है. वो इश्क में है. रूमी (तापसी पन्नू) से मिलने के लिए विक्की अमृतसर की छत्ते दनादन टापता चला जाता है. शहर में दोनों का रिश्ता और इश्क जगजाहिर है. पर अक्ल में डालने वाली बात तो ये हैं कि समाज-परिवार में लड़के-लड़कियों के ऐसे रिश्तें को कम ही अहमियत दी जाती है या उसे खुले तौर पर स्वीकारा जाता है. जब विक्की के लिए रूमी के घर का रास्ता सीधे दरवाजे से न होकर छत का बनता है तो वो सीन और भी जबर्दस्त हो जाता है. और प्यार की इस बुनावट में दर्शक भी सहज हो जाते हैं.

मनमर्ज़ियां फिल्म को डायरेक्ट अनुराग कश्यप ने किया है. फिल्म लव स्टोरी बेस्ड है. विक्की एक डीजे स्ट्रगलर है. प्रोफेशन के अनुरूप अपने लुक को सेट किया हुआ है. मोहॉक हेयरस्टाइल, हाथ में टैटू, आंखों में काला चश्मा और चलने के लिए ब्लैक ओपन जिप्सी. जितनी तेजी उसकी ऑडियों प्ले की साउंड में हैं उतना ही तेज उसका इश्क रोमांस हैं. पर सब कुछ रूमी के आगे थोड़ा कमजोर पड़ जाता है. रूमी विक्की से एक कदम आगे हैं. बेबाक, बिंदास और आक्रामक है। अपने प्यार को लाइफ पार्टनर बनाने के लिए कमिटिड है. इसके लिए तो वह परिवार के सामने मजबूती से बात रखती है. फिल्म शुरुआत से ही काफी तेज चलती है. थोड़े से वक्त में सारे हालात बता देती है. और ये अच्छा भी है. वरना ज्यादातर फिल्मों में ऐसे सीन इंटरवल के बाद दिखाया जाता है या फिर फिल्म के खत्म होते-होते. तब हम दर्शक भी आगे की स्टोरी जान नहीं पाते. सिवाय इसके कि उनका एक-दूजे का होना. लेकिन डायरेक्टर कश्यप यहां मनमुताबिक कहानी लेकर आए हैं.  रूमी की शादी की बात छिड़ती है तो वो थमती ही नहीं. फिर उसके साइड में स्टोरी चलती है. शादी की बात के लिए रूमी के घर पर आने की. रूमी विक्की से बोलती है कि- “अगर  तू बात करने के लिए घर नहीं आया तो वह किसी भी उल्लू के पट्‌ठे से ब्याह कर लेगी”.  लेकिन विक्की इस जिम्मेदारी से हट जाता है. बहाने बनाता है. कहता है- ‘‘हम प्यार तो करते हैं ही फिर शादी करने की जरूरत क्या है’’. इधर रॉबी (अभिषेक बच्चन) की एंट्री होती है। लंदन से आता है। जो बैंकर है और मां-बाप की जिद पर अरेंज मैरिज के लिए तैयार हो गया है. रॉबी के लिए भी हां बोल देने का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं कि मां की सुझाई किसी नौकरानी, एस्कॉर्ट या फिर नर्स से शादी कर ले. वो अपनी पसंद का लाइफ पार्टनर चाहता है. यहां से फिल्म मनमर्ज़ियां तीनों किरदारों के लिए मन की मर्जी लगती है.

स्क्रीन पर ज्यादा देर तक देखने का मन होता है तो वह रूमी को. वो मुखर है. विक्की की नापसंद हरकत पर उसे थप्पड़े लगाती है, हॉकी से मारती है. गुस्सा होने पर तीखे पानी में गोलगप्पे खाती है. रनिंग करती है. अपने प्यार को एक और मौका देने के लिए विक्की संग घर से भाग जाती है. पर वहीं परिवार की लाज बचाने के रॉबी से शादी कर लेती है. एक ऐसा जीवन जिसका प्रेम खत्म नहीं हुआ और शादी का शुरू हो गया.  स्क्रिप्ट का एक हिस्सा, जहां रूमी विक्की को पिटती है, दुतकारती है, दुकान और घर से बाहर निकलवाती है. और फिर टूटकर उससे प्यार करती है. इसे लेखक डॉ. एस.एल भैरप्पा के नॉवेल ‘छोर’ में भी देखा जा सकता है, जहां अमृता व्यभिचार (एडल्टरी) में रहते हुए सोमशेखर के साथ ऐसा करती है। ऐसा करने के पीछे अमृता की तरफ से नॉवेल में ये अभिव्यक्त किया गया है कि उसके द्वारा सोमशेखर के प्रति समर्पण करने के बाद भी ये अहसास होता है कि सामने वाला उतना समर्पित नहीं है, उस पर अधिकार नहीं जताता है. इससे उपेक्षित होकर वो खीझ बार-बार बाहर आती है.

आखिर रूमी विक्की के उस प्यार में हैं, जहां उसका प्यार बढ़ता ही जा रहा है. छोटी बहन के पूछने पर रूमी कहती है कि ‘‘ ये वो वाला प्यार है जिसमें जितना करो न कम पड़ता है’’.  इसलिए रॉबी से शादी के बाद भी उसे भूला नहीं पा रही। उधर विक्की के साथ भी ऐसा ही होता है. बगैर रूमी को याद किए, उसकी बात किए और उसकी इश्क की गलियों में आए बिना नहीं रह पाता। मर जाने की बात तक कह डालता है. शादी के बाद भी विक्की का रूमी को उसी शिद्दत से चाहने की वजह है कि रूमी अभी भी उसे दिल-दिमाग से नहीं निकाल पाई है. वो जानता है कि रूमी चाहे तो वो दोनों फिर से एक साथ रह सकते हैं. यहां डायरेक्टर कश्यप ने रॉबी को, ‘हम दिल दे चुके सनम’ में अजय देवगन की भूमिका में रखा है, जहां अपनी पत्नी के किसी दूसरे मर्द के साथ प्रेम में बने रहने के बावजूद उसके साथ बना हुआ हुआ. इसे सहन करने की ताकत भी इश्क से ही मिलती है. अभी तक फिल्मों में प्यार की पहचान लड़ाई कर उसे पा लेने की होती थी या फिर खुद की कुर्बानी देकर। हमने ‘दिलवाले’ जैसी कई प्रेम कहानी आधारित फिल्मों में देखा है कि हीरो प्यार के लिए लड़ता है. हमने ‘कल हो न हो’ या ‘आशिकी-2’ जैसी फिल्मों में ये भी देखा है कि प्यार को बचाने और उसकी खुशी के लिए हीरो त्याग व खुद की कुर्बानी तक दे डालता है। दोनों ही स्थितियों को आदर्श के तौर पर अपनाया गया। लेकिन मनमर्ज़ियां में रॉबी को देखकर लगता है इसे सीधा रखने की कोशिश की गई है. कोई झुकाव किसी की तरफ नहीं है. अब देखने वाली बात ये हैं कि क्या इस कैरेक्टर को आदर्श की पहचान मिल पाएगी?





Saturday, 15 September 2018

सिंगल कमरे में फैमिली के बीच पर्सनल स्पेस ढूंढता न्यू मैरिड कपल : फिल्म- लव एंड शुक्ला

शादी का रिश्ता तय होते ही दोस्तों के बीच बातें चलती हैं, खूब चर्चाएं होती है. आखिर हमारे शुक्ला जी सुहागरात कैसे मनाएंगे? शुक्ला जी यानी मनु शुक्ला (सहर्ष कुमार शुक्ला). इन बातों का अपना एक आनंद है. फिर चाहे वो अनुभवी दोस्त हो या अनुभवहीन. हर कोई चर्चा की इस चासनी को चाव से गटक जाना चहता है. जतला सिद्धार्थ की डायरेक्टेड लव एंड शुक्ला फिल्म के लीड रोल में मनु शुक्ला है. जो पेशे से मुंबई की सड़कों पर ऑटो ड्रावरी करता हैं. लुकिंग वाइज रफ है. पर उसके ऑटो का इंटीरियर डिजाइन बॉलीवुड हिरोइनों की चमचमाती तस्वीरों से अटा हुआ है. खासकर सोनाक्षी सिन्हा की तस्वीर से.  ब्राह्मण परिवार में जन्में होने के चलते वह इस बात में भरोसा करता है कि महिलाओं को घूरना गलत है. वह ब्ल्यू फिल्म भी देखता है पर इंडियन नहीं. ये सब नजर और सोच का खेल है. वो कमिटेड है मैरिड लाइफ को सफल बनाने के लिए. अति उत्साह में आकर दोस्तों से कह बैठता है कि अपनी पत्नी को घर और बिस्तर दोनों का सुख देगा.

फिल्म मध्यवर्गीय परिवार के रहन-सहन, तौर तरीके और बर्ताव पर आधारित है. खासकर एक सास की बेटी और बहू के बीच फर्क की समझ को लेकर. पर ये बात उतनी स्पष्ट नहीं जितनी की उसे आसानी से बता दिया जाता है.  बैंड-बाजे की आवाज के साथ शुक्ला अरेंज मैरिज कर पत्नी लक्ष्मी और अपने माता-पिता के साथ स्लम में बने चॉल के एक कमरे वाले घर में एंट्री करता है. घर की दीवारों से झड़ता चूना-सीमेंट उसकी हैसियत की तरफ इशारा करती है. लेकिन शुक्ला के मन में सुहागरात की दैहिक संपर्क का ख्याली पुलाव पक रहा होता है. अब तक का ये सीन दर्शकों को एक बार फिर स्क्रीन से जोड़े रखने की तरफ धकेलती है कि क्या शुक्ला सुहागरात मना पाएगा या नहीं? अगर मनाएगा तो वह कैसा होगा? स्थितियां क्या होंगी? मां-बाप के खर्राटे के बीच उस सिंगल कमरे में अपनी शर्मिली पत्नी के साथ सहज हो पाएगा या नहीं?

शुक्ला की मां मालकिन है तो उसके पास खासा ज्यादा काम भी नहीं होता. सिवाय हुक्म चलाने और वक्त-बेवक्त टीवी पर सीरियल देखने के. उस पर तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर करने के. चार सदस्यीय इस परिवार में अगर किसी दो की आवाज सुनाई नहीं देती है तो वह शुक्ला के पिता और पत्नी लक्ष्मी की. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने शुक्ला के पिता को डायलॉग नहीं दिए. इसके पीछे कोई खास कारण भी नजर नहीं आता. उस वक्त भी जब शुक्ला और उसकी मां के बीच विवाद खड़ा हो जाता है. फिल्म में जब-जब हम शुक्ला को उसकी पत्नी से संपर्क बनाने की कोशिश पाते हुए देखते हैं. तो वह बड़ा रोचक मालूम होता है. पर इसकी अपनी वजह है. उस छोटे से सिंगल कमरे में चार से बढ़कर छह आंखों वाला सीसीटीवी कैमरा नवविहाहित जोड़े पर होगा तो वह खुद को कैसे सहज पाएगा? शुक्ला की मुश्किलें तब और बढ़ जाती है जब उसकी बहन रूपा ससुराल छोड़ मायके आ जाती है. यहां से फिल्म एक अलग ही मोड में चलती है. हालांकि डायरेक्टर ने सास के तौर पर शुक्ला की मां का कोई क्रूर चेहरा पेश नहीं किया है. लेकिन उसका व्यवहार बेटी-बहू में फर्क बता जाता है.

आवश्यकता अविष्कार की जननी है. परिवार को जब ये महसूस होता कि बेटे शुक्ला और बहु लक्ष्मी के लिए पर्सनल स्पेस होना चाहिए तो उस कमरे में रात-रात के लिए सूटकेस की दीवार खड़ी कर दी जाती है. फिल्म स्क्रिप्ट की बेसिक चीजें क्लियर है इसलिए क्रिएटिविटी भी सफल लगती है. समाज में पहले से प्रचलित डायलॉग शुक्ला पर फीट बैठते हैं जैसे बीबी के आते ही मां बुरी लगने लगी और शादी के बाद बोरा (पागल) गया है. हो न हो ऐसी बाते दोस्तों और परिवार-संबंधियों की जुबान से निकल ही आती है. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने कुछ घटनाओं से शुक्ला की ऑटो ड्राइवरी के जरिए ईमानदार ऑटो वाले की छवि को गढ़ा है. पर सभी ऑटो वाले अच्छा हो ऐसा बिल्कुल नहीं है. हर जगह कुछ अच्छे ऑटो ड्राइवर भी होते है तो कुछ धुर्त और मजबूरी का फायदा उठाने वाले भी. फिल्म के उस सीन पर गौर किया जाना चाहिए जहां किराये के पैसे मांगने पर ऑटो सवार लड़की शुक्ला पर पीछा करने और उसके साथ बदसलूकी का आरोप लगाती है. ये बेहद संकुचित मानसिकता है कि आप किसी के घर या गाड़ी में रखी तस्वीरों से उसके चरित्र का अंदाजा लगा लेते हैं. यह बात ठीक उसी तरह से हैं जब कोई लड़की सिगरेट या शराब का गिलास थामे नजर अथवा छोटे व टाइट कपड़े में दिख जाए तो उसके कैरेक्टर्स को आसानी से जज कर लिया जाता है.

जाते-जाते शुक्ला का वो डायलॉग सुनने लायक है जब लूटपाट की घटना में जख्मी हालत में घर लौटता है और लक्ष्मी से कहता है कि- "सूरत चाहे जितनी भी बुरी हो जाए, हम हमेशा सुंदर थे और आपके लिए रहेंगे"

Saturday, 18 August 2018

गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन- 200 सालों की गुलामी पर गोल्ड की चमक में कितना सुकुन!

कहानी- जोश की, जुनून की, ज़ज्बे की और सेंटर फॉरवर्ड प्लेयर की जगह फैक्ट्स में टकराहट की 



एक पीढ़ी ने सपना देखा दूसरे ने साकार किया.  गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन फिल्म की ये लाइन कानों में पड़ते ही दिल में समा जाती है. सीना चार गुना चौड़ा हो जाता है. और हो भी क्यों न? जब पूरे विश्व की निगाहे हमारी जीत पर टिकी हो. आजादी के बाद 1948 में हुए लंदन ओलंपिक में हमारे देश की हॉकी टीम ने पहली बार हिस्सा लिया और गोल्ड जीत लिया. यही सार है रीमा कागती की डायरेक्टेड गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन फिल्म का. फिल्म हॉकी के इतिहास से शुरू होती है. और अपने फैक्ट्स से दर्शकों को जोड़ती चली जाती है. लीड रोल में तपन दास (अक्षय कुमार) है. आजादी से पहले भारतीय खिलाड़ी ब्रिटिश इंडिया के नाम से बनी टीम में खेला करते थे. तपन दास इसी टीम के जूनियर मैनेजर है, जहां वो खुद को मैनेजर कम कुली बताकर परिचित करवाते हैं. साल 1936 में जर्मनी में खेले जा रहे ओलंपिक के फाइनल मैच से ठीक पहले एडोल्फ हिटलर का भारत के खिलाफ भाषण आता है. और उस भाषण के खिलाफ जर्मनी में विरोध होता है. नारेबाजी होती है. तपन को भी तिरंगे का उस वक्त अहसास होता है जब नाराज भारतीयों की भीड़ को ब्रिटिश इंडिया टीम की बस पर झंडा फहराने की कोशिश में वहां की पुलिस की लाठीचार्ज को सहना पड़ता है. तिरंगे के नीचे गिरने से पहले ही वो उसे लपक लेता है. यहीं से शुरू होती सम्मान से तिरंगे को लहराने की ज़िद. ओलंपिक में आजाद भारत के नाम गोल्ड की ज़िद.


यूं तो आजादी की लड़ाई के साथ-साथ विभाजन के वक्त की साइड बाय ढेरों सारी कहानियों-किस्सों पर फिल्में बनी है. डायरेक्टर रीमा की ये फिल्म भी उन्हीं का हिस्सा है. फिल्म के अच्छे-खासे वक्त को विभाजन के दंश से जोड़ कर दिखाया है. अखबार के जरिए जब तपन को मालूम चलता है कि ब्रिटिश भारत को मुक्त कर देंगे और 1948 का ओलंपिक लंदन में खेला जाएगा तो वह सीधा आईएचएफ के पास पहुंचता है. ताकि आजाद भारत की हॉकी टीम बना सके. अपने सपनों की टीम तैयार कर सके. लेकिन इतिहास के पन्ने पर एक और घटना होनी बाकी थी. भारत-पाकिस्तान का बंटवारा. इस बंटवारे के साथ तपन की बनाई टीम भी दो हिस्सों में बंट जाती है. टीम में कप्तान इम्तियाज शाह समेत कई बेहतर मुस्लिम खिलाड़ियों को अपने मुल्क पाकिस्तान लौटना पड़ता है. तब तपन का वो डायलॉग बेहद गौर करने लायक है जब वो ये कहता है कि- “लाइन खींचने वाले को मालूम ही नहीं कि लाहौर किधर और लुधियाना किधर है”. यहां कमलेश्वर की नॉवेल कितने पाकिस्तान में लिखी वो लाइन  याद आती है जिसमें जुलाई, 1947 में माउंटबेटन ने बैरिस्टर सिरिल रेडक्लिफ को देश को बांटने का काम सौंपा था. जो न समाजशास्त्री था और न भूगोलविद. पांच हजार साल पुरानी सभ्यता को चंद दिनों में तोड़ हजारों  किलोमीटर की सरहद बना दी. फिल्म का ये सीन दर्शकों को सहज ही जोड़ता है. ब्रिटिश इंडिया टीम को 1936 के ओलंपिक में विजेता बनाने वाले सम्राट (कुनाल कपूर) की सपोर्टिव एंट्री होती है. जो तपन को फिर से नई टीम बनाने में उम्मीद बांधता है.

नई टीम बनती है तो कुछ समस्याएं भी उजागर होती है. चाहे वो फंड से जुड़ा हो या खेल के लिए मैदान से या फिर उनके लिए डॉक्टर और फिजियों की व्यवस्था को लेकर हो. सुविधाओं के अभाव का बदस्तूर दौर आज भी जारी है। फेडरेशन में राजनीति की वजह से खिलाड़ियों का खेल कम अफसरों का खेल ज्यादा दिखता है. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स 2018 के दौरान देखा गया कि भारतीय खिलाड़ियों को फिजियों की सेवाएं नहीं मिल पाई थी। 327 एथलीट के साथ महज दो डॉक्टर भेजे गए थे. गोल्ड फिल्म का इस तरफ संकेत अच्छा है. मैनेजमेंट की कुछ तो कमी रही होगी जो आजादी के बाद खेले गए पहले ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम को मैच नंगे पांव खेलना पड़ा था.

फिल्म कहीं पर रीयल बेस्ड स्टोरी लगती है तो कहीं फिक्शनल लगती है. डायरेक्टर रीमा ने खूब सारा फैक्ट्स डाला है. चाहे वो पहले विश्व युद्ध की बात करती हो या दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ओलंपिक को लेकर भारत के नजरीये की या फिर साल 1928 में ब्रिटेन की साजिश के चलते भारत को ओलंपिक से बाहर रखने की बात हो. फिल्म देखने पर मालूम चलता है कि नई पीढ़ी की टीम में हिम्मत सिंह और कुंवर रघुवीर सिंह के बीच सेंटर फॉरवर्ड खेलने की बजाय फैक्ट्स की टकराहट ज्यादा दिखती है. क्योंकि जब भी हम हॉकी का नाम लेते हैं तो जहन में सबसे पहले मेजर ध्यानचंद की तस्वीर आती है. ठीक उसी तरह जैसे सचिन का नाम लेते क्रिकेट की तस्वीर बनती है. पूरी फिल्म में हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद का जिक्र नहीं है. अच्छा होता कि फिल्म के जरिए दर्शक हिटलर का भारत के खिलाफ दिए गए बयान को भी जान पाते. लेकिन वो भी नादारद है. कम से कम ऐसी उम्मीद बिल्कुल भी नहीं की जा सकती कि जहां आप (रीमा जी) हॉकी की दीवानगी से फिल्म की सजावट कर रही हो और वहां फैक्ट्स से समझौता कर उसकी चमक पर पर्दा डाल रही हो.




Thursday, 16 August 2018

न्यूक्लियर के निशाने पर दुनिया: क्या हॉलीवुड-बॉलीवुड के दो हीरो इस हमले से बचा पाएंगे?

जुलाई-अगस्त के दूसरे सप्ताह में जासूसी जॉनर की दो फिल्में आई. पहली मिशन इम्पोसिबल: फॉलआउट और दूसरी विश्वरूपम-2. दोनों फिल्मों में काफी कुछ कॉमन सा है. 



क्रिस्टोफर मैक्वॉरी की डायरेक्टेड मिशन इम्पोसिबल: फॉलआउट और कमल हसन की विश्वरूपम-2 अपनी-अपनी फिल्मों के सीक्वेल है. दोनों फिल्मों के पिछले सीक्वेल दर्शकों को खूब पसंद आए. उसी का नतीजा है कि स्क्रीन पर हम लीड रोल में उन्हीं एक्टर्स को दोबारा नए मिशन-नई कहानी के जरिए देख रहे हैं. कहानी क्या है? दुनिया भर में न्यूक्लियर हथियारों को लेकर पागलपन सा माहौल बना हुआ. कभी अमेरिका-नॉर्थ कोरिया तो कभी अमेरिका-ईरान. मिशन इम्पोसिबल: फॉलआउट  का हीरो ईथन (टोम क्रूज) वैश्विक आतंकवादी जॉन लार्क और उसके साथियों से उन तीन न्यूक्लियर बमों (प्लूटोनियम) को हासिल करना चाहता है. जिसके इस्तेमाल से दुनिया तहस-नहस हो सकती है. ईथन की आईएमएफ टीम सीआईए के एजेंट अगस्त वॉकर (हैनरी कैविल) और यूके की खुफिया एजेंसी एमआई-6 की एजेंट इल्सा फाउस्ट की मदद से प्लूटोनियम को हासिल करने के लिए मिशन में हैं. वही प्लूटोनियम जिसे वो बर्लिन में एक डील के वक्त मिस कर देता है. ईथन को देखकर जासूस बनने की हसरत पालने वाले एक स्मार्ट जासूस बन सकते हैं. फिल्म में ईथन को छोड़ दे तो एजेंट इल्सा और एजेंट अगस्त के एक्शन सींस अच्छे लगते हैं. इससे पहले अगस्त वॉकर को फिल्म बैटमैन वर्सेस सुपरमैन : डॉन ऑफ जस्टिस  में सुपरमैन की भूमिका में देख चुके हैं. कहानी में ट्वीस्ट तब और आता है जब अगस्त ईथन को डबल क्रॉस करते हुए  दुश्मन सोलोमन लेन से हाथ मिला लेता है. फिल्म में ईथन एजेंट अगस्त पर भारी पड़ते हैं. 56 की उम्र में भी सड़क से लेकर कॉरपोरेट ऑफिस की छतों पर उनकी दौड़-जंप के अलावा फाइट, बाइक पर स्टंट और हेलीकॉप्टर को उड़ाते देख लगता है कि जैसे-जैसे वो उम्र के पड़ाव पार करते जा रहे हैं  वैसे-वैसे एक्शन में उम्र की सीमा को तोड़ते जा रहे हैं. कठिन हालात में भी ईथन के चेहरे पर शिकन न आना बताता है कि वे ही असली सुपरस्टार है. खासियत है कि दो घंटे से भी ज्यादा वक्त की ये फिल्म आपको बोर नहीं करती. फिल्म अमेरिका के अलावा बेलफास्ट, बर्लिन और भारत के सियाचिन में शूट हुई है. भारत के विदेश मंत्रालय ने फिल्म में कश्मीर से जुड़ी सीमाओं को लेकर दिखाए गए फैक्ट्स पर आपत्ति भी जताई थी. इसके बाद रिलीज से पहले फिल्म के कुछ सींस काट दिए गए थे.

‘‘जंग में जाने जाएंगी, मौते होंगी और जख्म भी। जरा खून देखते ही आसू बहते हैं तो पर्दा पहन लो’’- अलकायदा जिहादी उमर कुरैशी (राहुल बोस) का ये डायलॉग अपने साथी विजाम अहमद कश्मीरी (कमल हसन) से हैं. फिल्म के शुरुआत में स्क्रीन पर कुछ लाइनें लिखी हुई आती है. ये लाइन दर्शकों को 2013 की विश्वरूपम  से जोड़ती है. ‘जिहादी उमर वही है जो साल 2011 में न्यूक्लियर हमले से न्यूयॉर्क को तबाह करना चाहता था.’ लेकिन रॉ एजेंट विजाम अहमद कश्मीरी की बदौलत नाकाम हो जाता है. उसके बाद उमर और सलीम के हिंदुस्तानी खुफिया एजेंसी की कैद से भाग जाने के साथ विश्वरूपम का पहला अध्याय खत्म होता और यहां से शुरू होता विश्वरूपम-2. फिल्म में दो से तीन बार फ्लैशबैक इन और आउट है जो कहानी की कड़ियों को जोड़ते हुए चलती है. लेकिन उससे भी ज्यादा जानना ये जरूरी है कि आखिर कब तक दुश्मनों की जासूसी के लिए प्लान के मुताबिक हम अपने जावानों का बहिष्कार कर उसे दुश्मनों की नजर में खुद का दुश्मन साबित करते रहेंगे. अार्मी ऑफीसर विजाम भी इसी सोच और सिस्टम का शिकार होता है. उसका कोर्ट मार्शल कर आर्मी से निकाल दिया जाता है. सारे रिकॉर्ड्स मिटा दिए जाते हैं. तभी वह उमर के संपर्क में आता है. ऐसा ही हम मेघना गुलजार की डारेक्टेड राजी  फिल्म में देखते हैं. पाकिस्तान की जासूसी के लिए दुश्मन के घर में सेहमत (आलिया भट्‌ट) को बहु बनाकर और फिल्म द: हीरो- ए लव स्टोरी  में रेशमा (प्रीति जिंटा) को नौकरानी के रूप में भेजते हैं. इसके अलावा फिल्म में न्यूयॉर्क में बम लगाने का सिलसिला शुरू होने के साथ ही लंदन और फिर दिल्ली तक आता है. रॉ एजेंट विजाम इन्हीं बमों को मुंह बोली पत्नी निरुपमा, एजेंट अस्मिता व कर्नल जगन्नाथ (शेखर कपूर) और यूके की गुप्त एजेंसी एमआई-6 के एजेंट की मदद से डिफ्यूज करता है. फिल्म में ओमार के जरिए जिहादी के जीवन को करीब से दिखाया गया है. उसके बेटे नाजीर और जलाल की ख्वाहिश है कि वे जिहादी नहीं बल्कि डॉक्टर और इंजीनियर बनना चाहते हैं. पर एक जिहादी यही चाहता है कि जिहादी का बेटा जिहादी ही बने. एजेंट विजाम की फाइट अच्छी है. लंबे वक्त के बाद हिंदी फिल्मों में ऐसी फाइट देखने को मिली है जिसमें कुछ ओरिजनल लगे. फिल्म में एक दूसरा पहलू भी है जिसे डायरेक्टर हसन ने दिखाया है कि किस तरह से कुछ पोलिटिशियन देशहित में चल रही खुफिया गतिविधियों को प्रभावित कर रहे हैं.  उमर के रोल में राहुल बोस को पर्दे पर लंबे समय याद रखा जा सकता है. कई सींस में वो प्रभावित भी नहीं कर पाते. डायलॉग्स में प्रोपर आवाज नहीं है. लेकिन फिल्म में जिहादी का खौफ पैदा करने का काम उन्होंने सफलतापूर्वक किया है. स्क्रीन पर शेखर कपूर को देखकर अच्छा लगता है.

Tuesday, 7 August 2018

हरियाणा चुनाव-2019 : चंडीगढ़ को हरियाणा का हक बना पाएगी इनेलो ?

चुनावी चिंता : विधानसभा में करीब सवा साल और लोकसभा में 7 माह का वक्त है। विपक्ष इनेलो मेनिफेस्टो के 5 वादें जनता के सामने ले आया है।

पढ़े-लिखे हाथ आज काम को तरसते हैं, खेत में खड़े किसान आज दाम को तरसते हैं, तरसती हैं आज बहने सुरक्षा के लिए, बुजुर्ग आज हमारे सम्मान को तरसते हैं’-  हिसार सांसद दुष्यंत चौटाला का ये संबोधन अपने युवाओं से था। निशाने पर थी प्रदेश में भाजपा और केंद्र सरकार। बड़ी ही चतुराई से इनेलो (इंडियन नेशनल लोकदल) के युवा नेता दुष्यंत ने देश की सभी समस्याओं को एक लाइन में पिरो कर उसकी माला विरोधियों के गले में पहना दी। उम्मीद की जा रही थी कि अपने लंबे संबोधन में दुष्यंत मॉब लिंचिंग, गुड़गांव में मुस्लिम युवक की जबरन दाढ़ी काटे जाने और सार्वजनिक जगहों पर नमाज अदा किए जाने जैसे मुद्दों पर भी बोलेंगे। पर सब कुछ सिफर रहा।

लौटते हैं कैथल पर। पंजाब से सटे हरियाणा के इस जिले से विपक्षी पार्टी इनेलो 5 जुलाई, 2018 को आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनाव के अपने मेनिफेस्टो से 5 वादें जानता के सामने ले आई है, तो हो-हल्ला भी मचना है। आखिर 90 सीटों में से 19 विधायकों वाली पार्टी इतनी जल्दी कथित मेनिफेस्टो कैसे जारी सकती है? क्या विपक्ष को एेसा आभास हो चुका है कि प्रदेश में 2019 के अक्टूबर की बजाय विधानसभा के चुनाव लोकसभा के साथ होंगे? वरना इनेलो अपनी स्टूडेंट इकाई (इनसो) के 16वें फाउंडेशन-डे प्रोग्राम के मंच से ऐसी घोषणा क्यों करेगी? वो भी तब जब उसके कई बड़े नेताओं की नाराजगी की खबरें मीडिया में आ चुकी हो। कैथल के अनाज मंडी में लगे बड़े से पंडाल में युवाओं की जबर्दस्त भीड़ देखने को मिली। युवाओं का एेसा क्रेज उन सभी बातों को झूठला रहा था कि हरियाणा के युवा राजनीतिक गतिविधियों में रुचि नहीं रखते। वे तो सिर्फ कुश्ती, कबड्‌डी और निशानेबाजी जैसे खेलों की तरफ भागते हैं या सेना और पुलिस में भर्ती होते हैं? पंडाल के बीचों-बीच युवाओं की भीड़ और उसके दोनों तरफ लगे लोहे के पाइप पर चढ़े युवाओं के हाथों में हरे झंडे और उड़ते ड्रोन कैमरे दिख रहे थे।

मंच पर आए हरियाणा विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता और ओमप्रकाश चौटाला के छोटे बेटे अभय सिंह चौटाला ने सीबीआई और ईडी को भाजपा की एजेंसी बताई। इशारा था उनके पिता ओम प्रकाश चौटाला और बड़े भाई अजय चौटाला को शिक्षक भर्ती घोटाले में फंसाया गया है। उन्होंने कहा कि पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती पर 25 सितंबर को हमने जनता से 5 वादें किए हैं। इसे वर्ष 1987 में चौधरी देवीलाल के प्रदेश की जनता से किए 3 वादें से जोड़कर अपनी बात रखी। उन्होंने अपने दादा देवीलाल की बातों को दोहराते हुए कहा कि अगर आपने मुझे प्रदेश की सत्ता सौंपी, अगर आपने मुझे प्रदेश की बागडोर सौंपी तो बुजुर्गों को मान और सम्मान दूंगा, किसानों के दस-दस हजार रुपए तक के कर्ज माफ कर दूंगा और गरीब की बेटी की शादी में कोई रूकावट न आए इसके लिए 5100 सौ रुपए कन्यादान के रूप में दूंगा। उस वक्त जब देवीलाल सत्ता में आए तो उन्होंने सबसे पहले यही 3 वायदे पूरे किए। अब इसी गुणा-भाग के जरिए अभय चौटाला सत्ता में वापसी चाहते है। वक्त के साथ इनेलो नेता अभय ने वादें में बिजली के दामों से राहत देने और सतलुज-यमुना लिंक नहर से ज्यादा पानी की मांग और बुजुर्गों के लिए 2500 पेंशन और कन्यादान के लिए 5 लाख की राशि में भी बढ़ोतरी कर दी है। उन्होंने राजीव लोंगोवाल समझौते का जिक्र करते हुए कहा कि इंदिरा सरकार ने हरियाणा के हितों की अनदेखी कर, उसे कमजोर करने की साजिश रची थी। हरियाणा की बलि दी थी। उस समझौते में जो चंडीगढ़ हमारा था। उन्होंंने शाह कमीशन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि जब फाजिल्का समेत उन 107 हिंदी भाषी गांवों पर फैसला हो, जब कभी भी चंडीगढ़ पर फैसला लिया जाए तो उस रिपोर्ट में लिखा था कि चंडीगढ़ पर अधिकार हरियाणा प्रदेश का रहेगा। यानी इनेलो के पास अच्छा-खासा मुद्दा है। देखना होगा कि चंडीगढ़ के नाम पर इनेलो वोटर्स की कितनी गोलबंदी कर पाती है?

हरियाणा का यूपी-बिहार कनेक्शन

कैथल के इनेलो मंच से युवाओं की बात हो रही थी। तो जाहिर है कि जेपी मूवमेंट की भी बात होगी। चीफ गेस्ट के तौर पर बिहार के पूर्व सीएम और  विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यावद और सपा नेता मुलायम सिंह यादव के भतीजे और बदायूं से सांसद धर्मेंद्र यावद मौजूद थे। दोनों नेताओं ने संघर्ष की बात कही। तेजस्वी तो यहां तक कह गए कि ये खट्टर सरकार नहीं कट्‌टर सरकार है। इन्हें दंगे फसाद से समय नहीं मिलता। बयानबाजी बता रही थी कि हरियाणा में थर्ड फ्रंट की सुगबुगाहट चल रही है। ये कोई पहली बार नहीं है जब यूपी और बिहार का हरियाणा के नेताओं के साथ संघर्ष की बात हो रही हो। हरियाणा प्रदेश के गठन में अहम भूमिका निभाने वाले चौधरी देवीलाल जब वीपी सिंह की सरकार में उप प्रधानमंत्री बने तो उनके साथ लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ही थे। परिणाम ये रहा कि चौधरी देवीलाल ने दोनों नेताओं को अपने-अपने प्रदेश में जातिगत पिछड़े वर्ग के नेता की पहचान दिलाई। चाहे वो मंडल कमीशन को लागू करवाने में अप्रत्यक्ष भूमिका रही हो या यूपी के 1989 विधानसभा चुनाव में चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह को समर्थन न देकर मुलायम सिंह यादव को दिया। तब मुलायम यूपी के पहली बार सीएम बने थे। 

हरियाणा में भाजपा को कोई गठबंधन नहीं

सांसद दुष्यंत जब ओम प्रकाश चौटाला को जेल से उठाकर चंडीगढ़ की सीट पर बिठाने के नारे लगा रहे थे उसी दिन सीएम मनोहर लाल खट्‌टर उनके संसदीय क्षेत्र में किसान धन्यवाद रैली कर रहे थे। सीएम खट्‌टर यहां ट्रैक्टर चलाकर पहुंचे। बरवाला विधानसभा क्षेत्र में स्टेडियम और सामुदायिक केंद्र के लिए उन्होंने 110 करोड़ की घोषणा की। उन्होंने प्रदेश में भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस और इनेलो को जिम्मेदार ठहराया। सीएम खट्‌टर प्रदेशभर में पौने चार साल की उपलब्धियों को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं, रोड शो कर रहे और राहगीरी का हिस्सा बन रहे हैं। पानीपत से शुरू हुआ, देशभर में पॉपुलर हुआ बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान से हरियाणा में लिंगानुपात की स्थिति सुधारी है। इसे हरियाणा सरकार अपनी उपलब्धि मानती है। लेकिन जाट आरक्षण आंदोलन, किसान आंदोलन, राम रहीम प्रकरण में जान-माल के नुकसान से लॉ एंड ऑर्डर के दामन पर सरकार की नाकामी का दाग माना जा रहा है। अगर इन मुद्दों से सरकार पार पा भी लेती है तो भी क्या उसे अपने मंत्रियों के उन बड़बोले पन से कामयाब मिल पाएगी। जिसने न सिर्फ मीडिया में सूर्खियां बटोरी बल्कि सरकार की किरकिरी भी करवाई। राज्य सरकार की कैबिनेट में कृषि मंत्री रहे ओम प्रकाश धनकड़ ने एक कार्यक्रम में कहा था कि गांव को साफ करो तो बीवी मिलेगी। गुजरात चुनाव-2018 के दौरान स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने विवादित ट्वीट किया था- 100 कुत्ते मिलकर भी एक शेर का शिकार नहीं कर सकते। जबकि शिक्षा मंत्री रहते हुए रामविलास शर्मा ने रामरहीम के मामले पर बयान दिया कि उनके समर्थकों की श्रद्धा पर धारा 144 नहीं लगाई जा सकती। प्रदेश में भाजपा के हालात जो भी हो, पर सीएम खट्टर कह चुके हैं कि वे चुनाव में किसी से गठबंधन नहीं करेंगे।

अब देखना ये होगा कि भाजपा और इनेलो के बाद प्रदेश में कांग्रेस का क्या स्टैंड रहेगा। प्रदेश की वर्तमान सरकार ने पिछली सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के 4 मामलों की जांच शुरू करवा दी है। पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्‌डा पर ये भी आरोप है कि उनके कार्यकाल में रॉबर्ट वाड्रा को गुड़गांव में सस्ती जमीन के सीएलयू, राजीव गांधी ट्रस्ट को गुड़गांव में और नेशनल हेराल्ड के ट्रस्ट एजीएल को पंचकूला में सस्ती जमीन देकर सरकार को नुकसान पहुंचाने के मामलों की जांच आगे नहीं बढ़ पाई थी।

Monday, 30 July 2018

डिजिस्थान ब्रांडिंग के जरिये इंटरनेट शटडाउन वाले राजस्थान की इमेज बदल रही है सरकार!

लोचे को समझिए आखिर क्यों सीएम वसुंधरा राजे ‘मुख्यमंत्री आपके द्वार’ की जगह ई-गवर्नेंस को तवज्जो दे रही हैं?


भव्य सा मंच, विशाल सा डोम, अंग्रेजी भाषा के भारी-भरकम बोल से लेकर हिंदी के हल्के-फुल्के लहजे के साथ-साथ डिजिटल से वाकिफ आईटी के हैकर्स, देशभर के कोडर, युवाओं की फौज, सियासत के मंझे कलाकार। ये स्क्रिप्ट है बीकानेर के डिजिफेस्ट के आखिरी दिन की। राजस्थान का 5वां डिजिटल मेला, जहां हर उम्र का व्यक्ति पहुंचा। स्कूली बच्चों से लेकर कॉलेज-कंपनिज के यूथ। देखने को रोबोट्स थे, स्मार्ट विलेज, स्मार्ट सिटी और डिजिटल एंटरटेनमेंट के उपकरण। डोम में एंट्री करते ही एक नई दुनिया का आभास हो रहा था। सब कुछ गुड सा फील करवा रहा था। तय था 27 जुलाई को मेले के तीसरे दिन सरकार यानी सीएम वसुंधरा राजे का आना। उनके संबोधन का फेसबुक वीडियो लाइव होना। सब कुछ इतना अभिभूत कर रहा था कि चिमनाराम मेघवाल बारबाता नाम के एक यूजर ने यहां तक कि लिख डाला की-प्रोग्राम बीकानेर में चल रहा है या लंदन में??

सीएम वसुंधरा ने परिस्थितियों को भांपते हुए बोलना शुरू किया। अपने संबोधन में कहा- राजस्थान विल एक्वायर नंबर वन पोजिशन इन आईटी इन दा कंट्री... ये वाक्या उन्होंने दो घंटे के प्रोग्राम में दो से तीन बार दोहराया। जब सीएम राजे ने मंच से एक के बाद एक योजनाओं को बड़ी सी स्क्रीन पर लॉन्च करना शुरू किया तो कुछ वक्त के लिए राजस्थान डिजिस्थान में तब्दील हो गया। ये इशारा था कि सरकार आपको ई-गवर्नेंस मुहैया करवाएगी। यानी सरकारी सिस्टम आपके मोबाइल फोन, लेपटॉप और कंप्यूटर की पहुंच में होंगे। हर योजना की सुलभ पहुंच, समय-पैसे की बचत। पूरे सिस्टम में ट्रांसपेरेंसी और वर्ल्ड से कनेक्टिविटी। हर कोई मदहोश था डोम में चल रहे उस बैकग्राउंड के म्यूजिक में और भाषण पर आने वाली तालियों की आवाज में। महज दस दिन के भीतर माथे से उन चिंताओं की लकीरें भी मिट गई जो पूरे राज्य में दो दिन तक इंटरनेट शटडाउन से बनी थी। राजस्थान के इतिहास में ये भी पहली बार था जब किसी भर्ती परीक्षा में नकल को रोकने के लिए इंटरनेट की सेवाएं बंद कर दी गई। किसी ने इसे साइबर इमरजेंसी करार दिया तो किसी ने डिजिटल कर्फ्यू । तब सरकार भी इस असमंजस में पड़ गई कि सफल परीक्षा के लिए अपनी पीठ थपथपाएं या फिर जनता के अधिकारों को पाबंद करने के साथ-साथ रेलवे, बैंक, कैब व रोडवेज में ऑनलाइन बुकिंग नहीं हो पाने से करोड़ों के नुकसान पर अपने हाथ मसले।

ऐसा पहली बार नहीं था जब राजस्थान में इंटरनेट शटडाउन रहा। कांस्टेबल भर्ती परीक्षा से पहले सरकार ने पद्मावत (पहले पद्मावती) फिल्म, जयपुर के रामगंज में हुए उपद्रव और गैंगस्टर आनंदपाल एनकाउंटर से उपजे तनाव के वक्त भी इंटरनेट सेवाएं बंद थी। अप्रैल, 2017 में टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर नाम की एनजीओ ने जम्मू एवं कश्मीर, गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर के मुख्यमंत्रियों को इंटरनेट शटडाउन के संबंध में पत्र लिखे थे। 2012 से अप्रैल, 2017 तक जम्मू एवं कश्मीर में इंटरनेट शटडाउन के 28 मामले, गुजरात में 9, हरियाणा में 8 और राजस्थान में तीन। राज्य सरकारें धारा 144 के तहत कानूनन इंटरनेट शटडाउन कर सकती है। केंद्र सरकार भी आईटी एक्ट 69 के तहत इसकी पालना के लिए बाध्य है। पर ये बात हजम नहीं होती कि महज परीक्षा में नकल रोकने के लिए सरकार दो दिन तक इंटरनेट सेवाएं बंद रखें। सवाल उठते हैं कि क्या सरकार के पास ऐसी कोई सक्षम एजेंसी नहीं जो सफल परीक्षा कंडक्ट करवा सके। हाल ही में सरकार के इस कदम से इस बात को मानने में भी कोई गुरेज नहीं होनी चाहिए कि आने वाले दिनों में प्रदेश में जो भी परीक्षाएं होंगी उनमें सरकार ये व्यवस्था जारी रख सकती है। तब वो दिन भी दूर नहीं जब इंटरनेट शटडाउन के मामले में विवादित राज्य की पहचान रखने वाले जम्मू एवं कश्मीर को पछाड़ कर राजस्थान पहले नंबर पर आ जाए। क्योंकि साल 2015 से 14 जुलाई, 2018 तक राजस्थान में 26 बार इंटरनेट सेवाएं बंद हो चुकी है। ये आंकड़ा जम्मू एवं कश्मीर के बाद आता है।

तो क्या किसी सुशासन में ई-गवर्नेंस और इंटरनेट शटडाउन साथ-साथ चल सकते हैं? डिजिफेस्ट के समापन समारोह पर सीएम वसुंधरा राजे ने ये भी मंशा जाहिर की कि प्रदेश के लोगों के चेहरों पर सदैव मुस्करहाट रहे। लेकिन पिछले सात महीने में नौ बार इंटरनेट शटडाउन के रिकॉर्ड को देखते हुए उन चिंताओं की लकीरें दूर कैसे होंगी? जब किसी का ई-बिल पेमेंट न हो पाया हो, किसी के पेमेंट में देरी से उसे जुर्माना देना पड़ा हो, डिजिटल ट्रांजेक्शन नहीं कर पाया हो, डिजिटल वॉलेट के इस्तेमाल से वंचित रह गया हो ऐसे तमाम मौके रहे होंगे जब उसे अपने मोबाइल के इंटरनेट की अहमियत मालूम हुई होगी। और तब उसने सिर्फ सरकार को कोसा ही होगा। डिजिफेस्ट मंच की विशाल सी स्क्रीन पर सरकार की लंबी फेहरिस्त में कोटा-जोधपुर के लिए इन्क्यबेशन सेंटर आई स्टार नेस्ट, राजस्थान सिक्योरिटी ऑपरेशन सेंटर, डिजास्टर रिकवरी डाटा सेंटर, इंटीग्रेटेड हेल्थ मैनेजमेंट, राजस्थान टेलीप्रेजेंस प्रोजेक्ट, राज वाइ-फाइ और राजस्थान वाइल्डलाइफ सर्विलांस सिस्टम जैसी बेशुमार योजनाओं को डिजिटल लॉन्च किया गया। ये देख जनता को भी सरकार से बड़ी उम्मीदें होंगी कि किसी बड़े कारण की बजाय अपनी विफलता को छिपाने के लिए सरकार इंटरनेट शटडाउन न करें। वरना उसे विधानसभा प्रतिपक्ष नेता रामेश्वर डूडी के उस आरोप को स्वीकार करने में भूल नहीं होगी कि डिजिफेस्ट के नाम पर ये 100 करोड़ रुपए से भी ज्यादा का घोटाला है। 

भारत के नक्शे पर राजस्थान इंटरनेट शटडाउन के मामले में अव्वल की दिशा में बढ़ता नजर आ रहा है तो विश्व के नक्शे भारत खुद सबसे आगे हैं। यूनेस्को और इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स की साउथ एशिया प्रेस फीडम रिपोर्ट 2017-18 में देश में 82 बार इंटरनेट सेवाएं बंद रही। रिपोर्ट में अशांत देश पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं। हमें समझना चाहिए कि बार-बार इंटरनेट बंद की घटनाओं से हमने, हमारी सरकारों ने बीते वक्त में क्या सीखा? 

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