सोशल ड्रामा पर फिल्म आई है. नाम है बत्ती गुल मीटर चालू. डायरेक्ट किया है श्री नारायाण सिंह ने. कहानी उत्तराखंड के टिहरी के तीन पक्के दोस्तों की. एसके यानी सुशील कुमार पंत (शाहिद कपूर), ललिता नोटियाल (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (दिव्येंदु शर्मा). कहानी में दो लड़के और एक लड़की है तो लगता है कि डायरेक्टर लव-इमाोशंस की बात करेगा. फैमिली ड्रामा क्रिएट करेगा. और सफलता-असफलता की बात करेगा. त्याग और समर्पण दिखाएगा. ये तो ठहरी प्रिडिक्शंस. लेकिन यहां दोस्तानें के इस रिश्तें में एक लड़का प्यार में हैं, दूसरा लड़का इससे अनजान और लड़की दोनों में हसबैंड मटीरियल ढूंढ रही है. पर सब कुछ अव्यक्त है. फिल्म एसके के घर के अंधेरे वाले सीन से शुरू होती है, जहां बत्ती गुल है. यहां ये सीन भी फिल्म के टाइटल की ब्रांडिंग करता है. शहर का हर मोहल्ला एक प्रतियोगिता में जुटा है. इसलिए कामकाज के हिसाब से बत्ती जरूरी भी नहीं. ब्लैक आउट के बीच जुटे लोगों की आवाज और कमेंट्री डायरेक्टर शरत कटारिया की फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ की याद दिलाती है. ज्यादातर कहानियों की तरह यहां भी हीरो एसके पूरब टोले से आता है और जीत जाता है.
भारत की कोई भी हिंदी फिल्म, फिल्म नहीं होती, वह केवल सफलता की तलाश होती है. डायरेक्टर श्री नारायाण ने पिछली फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ का फॉर्मूल ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ में भी अपनाया है. जी हां जन-जन की बात. दरअसल शहर अघोषित पावर कट और लगातार बिलों में बढ़े दामों से परेशान है. यानी हरेक घर की कॉमन प्रॉब्लम. जिसका कोई ठीक-ठाक सॉल्यूशन नहीं है. हर कोई अनिश्चितता से भरा है. उधर उन तीनों दोस्तों में करियर सेट करके शादीशुदा जिंदगी बीताने की बातें हैं. स्क्रीन पर जितनी खूबसूरती पहाड़ों की है उतनी इन किरदारों के बीच डायलॉग बाजी की. ज्यादातर बातों के पीछे ‘बल’ शब्द का इस्तेमाल है. जो अखरता नहीं पर इसे जान लेने काे मन बेताब रहता है. दो-तीन जगहों पर ‘लाटा’ शब्द भी सुनाने को मिलता है. दबंग सीरिज के सलमान खान और जॉली एलएलबी-2 के अक्षय कुमार का मिक्सअप कहूं तो यहां वो शाहिद कपूर में देखने को मिलता है. जो दोस्तों के बीच वकालत नहीं चूने की दुकान से पहचाना जाता है. कानूनी ज्ञान के दम पर छोटे-मोटे व्यापारियों को ब्लैकमेल करता है. फिल्म के हर सीन में एक्शन में रहता है. इसलिए उनकी यहां एक्टिंग लीक से हटकर लगती है. पिता के रिटायर्ड फंड और लोन के बूते सुंदर प्रिंटिंग प्रेस की स्टार्टअप कंपनी शुरू करता है. वो क्रांति नहीं शांति में विश्वास करता है. जिंदगी में अभी तक जो भी काम किए हैं नियम के मुताबिक ही किए हैं. इसी ईमानदारी की ललिता नोटियाल भी कायल है. ललिता अपने दोस्तों के बीच नॉटी नाम से पुकारी जाती है. हसबैंड मटीरियल का ऑप्शन होने के चलते नॉटी दोनों के साथ वन-वन वीक का डेट करती है. डेटिंग के वक्त नॉटी को सुंदर और भी पसंद आ जाता है. पर जिस दोस्ती की छतरी को ये तीनों ताने हुए होते हैं उसमें छेद हो ही जाती है. नॉटी का सुंदर के साथ जाना एसके को नागवार गुजरता है. और वह दूर रहने लगता है.
फिल्म का टाइटल ही फिल्म की कहानी के लिए स्पॉइलर है. कुछ भी नहीं छिपता. लाखों का बिजली बिल बनकर जब कंपनी के नाम आता है तो सुंदर परेशान हो जाता है. उपभोक्ता मंच शिकायत केंद्र और विद्युत विभाग के चक्कर लगाता है. पर नतीजा शून्य रहता है. लगातार लाखों के आने वाले बिजली बिलों के मलबे में भीतर ही भीतर दबकर क्षत-विक्षत होता रहता है. एसके की मदद से इंकार पर एक रोज रोड के रास्ते गंगा में कूदकर जान देता है. अगर इसकी तुलना कर्ज में डूबे किसानों के सुसाइड से करें तो कोई अन्याय नहीं होगा. सुंदर की मौत का कसूरवार एसके खुद को मानता है. यहां सिस्टम के खिलाफ बदला लेने की भावना जागती है. जो अभी तक जुबां पर आ चुकी होती, बिलों का अंबार आकंठ तक चढ़ चुका होता है. लेकिन घर से निकल कर सड़क से लेकर कोर्ट तक की लड़ाई अस्तित्व में नहीं आई होती है. एसके पावर सप्लाई करने वाली कंपनी एसपीटीएल के खिलाफ कोर्ट में पिटीशन डालता है. फिर कोर्टरूम के भीतर जो होता है वो बेहद दिलचस्प है. बहस काफी हद तक जॉली एलएलएबी-2 की याद दिलाती है, जहां प्रोजीक्यूटर अक्षय कुमर का मजाकिया अंदाज डिफेंस लॉयर के हर दांव-पेंच व तर्क को खारिज करते अपने पक्ष को मजबूती से रखता है. ठीक यहां भी एसके सामने वाले वकील पर 20 साबित होता। कुछ दर्शक हैरान होंगे कि कोर्टरूम की गंभीरता ही खत्म कर दी गई है, जैसा कि सुनवाई से पहले जज का क्रिकेट मैच अपडेट लेना व एसके का डिफेंस लॉयर की नॉवेल साधु, सरिता और सेक्स को लेकर अचानक कुर्सी पर चढ़कर सबूत की तरह चारों तरफ दिखाना. हो सकता है ये डायरेक्टर का समझौता हो और फिल्म के मिजाज के अनुरूप हो. पर एसके का बहस के वक्त ‘लोड बढ़ा है आधार नहीं’ डायलॉग फिल्म की जान बन जाती है. तमाम विकास के दांवों के बीच ये फिल्म आजादी के 70 साल पहले के हालात का जिक्र कर जाती है। या यूं कहे अापके शहरों की नुमाइंदगी कर जाती है। दरअसल इसकी मार हर बड़ा-छोटा भुगत रहा है. एक-डेढ़ दशक में अाबादी, कंपनियां और कंज्युमिंग पावर बढ़ी है पर सर्विस देने के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है. चाहे वह दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव, मुंबई, चेन्नई व कोलकाता हो. हर शहर में बिजली-पानी और ट्रैफिक के आगे इंसान की लाचारी है.
भारत की कोई भी हिंदी फिल्म, फिल्म नहीं होती, वह केवल सफलता की तलाश होती है. डायरेक्टर श्री नारायाण ने पिछली फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ का फॉर्मूल ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ में भी अपनाया है. जी हां जन-जन की बात. दरअसल शहर अघोषित पावर कट और लगातार बिलों में बढ़े दामों से परेशान है. यानी हरेक घर की कॉमन प्रॉब्लम. जिसका कोई ठीक-ठाक सॉल्यूशन नहीं है. हर कोई अनिश्चितता से भरा है. उधर उन तीनों दोस्तों में करियर सेट करके शादीशुदा जिंदगी बीताने की बातें हैं. स्क्रीन पर जितनी खूबसूरती पहाड़ों की है उतनी इन किरदारों के बीच डायलॉग बाजी की. ज्यादातर बातों के पीछे ‘बल’ शब्द का इस्तेमाल है. जो अखरता नहीं पर इसे जान लेने काे मन बेताब रहता है. दो-तीन जगहों पर ‘लाटा’ शब्द भी सुनाने को मिलता है. दबंग सीरिज के सलमान खान और जॉली एलएलबी-2 के अक्षय कुमार का मिक्सअप कहूं तो यहां वो शाहिद कपूर में देखने को मिलता है. जो दोस्तों के बीच वकालत नहीं चूने की दुकान से पहचाना जाता है. कानूनी ज्ञान के दम पर छोटे-मोटे व्यापारियों को ब्लैकमेल करता है. फिल्म के हर सीन में एक्शन में रहता है. इसलिए उनकी यहां एक्टिंग लीक से हटकर लगती है. पिता के रिटायर्ड फंड और लोन के बूते सुंदर प्रिंटिंग प्रेस की स्टार्टअप कंपनी शुरू करता है. वो क्रांति नहीं शांति में विश्वास करता है. जिंदगी में अभी तक जो भी काम किए हैं नियम के मुताबिक ही किए हैं. इसी ईमानदारी की ललिता नोटियाल भी कायल है. ललिता अपने दोस्तों के बीच नॉटी नाम से पुकारी जाती है. हसबैंड मटीरियल का ऑप्शन होने के चलते नॉटी दोनों के साथ वन-वन वीक का डेट करती है. डेटिंग के वक्त नॉटी को सुंदर और भी पसंद आ जाता है. पर जिस दोस्ती की छतरी को ये तीनों ताने हुए होते हैं उसमें छेद हो ही जाती है. नॉटी का सुंदर के साथ जाना एसके को नागवार गुजरता है. और वह दूर रहने लगता है.
फिल्म का टाइटल ही फिल्म की कहानी के लिए स्पॉइलर है. कुछ भी नहीं छिपता. लाखों का बिजली बिल बनकर जब कंपनी के नाम आता है तो सुंदर परेशान हो जाता है. उपभोक्ता मंच शिकायत केंद्र और विद्युत विभाग के चक्कर लगाता है. पर नतीजा शून्य रहता है. लगातार लाखों के आने वाले बिजली बिलों के मलबे में भीतर ही भीतर दबकर क्षत-विक्षत होता रहता है. एसके की मदद से इंकार पर एक रोज रोड के रास्ते गंगा में कूदकर जान देता है. अगर इसकी तुलना कर्ज में डूबे किसानों के सुसाइड से करें तो कोई अन्याय नहीं होगा. सुंदर की मौत का कसूरवार एसके खुद को मानता है. यहां सिस्टम के खिलाफ बदला लेने की भावना जागती है. जो अभी तक जुबां पर आ चुकी होती, बिलों का अंबार आकंठ तक चढ़ चुका होता है. लेकिन घर से निकल कर सड़क से लेकर कोर्ट तक की लड़ाई अस्तित्व में नहीं आई होती है. एसके पावर सप्लाई करने वाली कंपनी एसपीटीएल के खिलाफ कोर्ट में पिटीशन डालता है. फिर कोर्टरूम के भीतर जो होता है वो बेहद दिलचस्प है. बहस काफी हद तक जॉली एलएलएबी-2 की याद दिलाती है, जहां प्रोजीक्यूटर अक्षय कुमर का मजाकिया अंदाज डिफेंस लॉयर के हर दांव-पेंच व तर्क को खारिज करते अपने पक्ष को मजबूती से रखता है. ठीक यहां भी एसके सामने वाले वकील पर 20 साबित होता। कुछ दर्शक हैरान होंगे कि कोर्टरूम की गंभीरता ही खत्म कर दी गई है, जैसा कि सुनवाई से पहले जज का क्रिकेट मैच अपडेट लेना व एसके का डिफेंस लॉयर की नॉवेल साधु, सरिता और सेक्स को लेकर अचानक कुर्सी पर चढ़कर सबूत की तरह चारों तरफ दिखाना. हो सकता है ये डायरेक्टर का समझौता हो और फिल्म के मिजाज के अनुरूप हो. पर एसके का बहस के वक्त ‘लोड बढ़ा है आधार नहीं’ डायलॉग फिल्म की जान बन जाती है. तमाम विकास के दांवों के बीच ये फिल्म आजादी के 70 साल पहले के हालात का जिक्र कर जाती है। या यूं कहे अापके शहरों की नुमाइंदगी कर जाती है। दरअसल इसकी मार हर बड़ा-छोटा भुगत रहा है. एक-डेढ़ दशक में अाबादी, कंपनियां और कंज्युमिंग पावर बढ़ी है पर सर्विस देने के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है. चाहे वह दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव, मुंबई, चेन्नई व कोलकाता हो. हर शहर में बिजली-पानी और ट्रैफिक के आगे इंसान की लाचारी है.
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