शादी का रिश्ता तय होते ही दोस्तों के बीच बातें चलती हैं, खूब चर्चाएं होती है. आखिर हमारे शुक्ला जी सुहागरात कैसे मनाएंगे? शुक्ला जी यानी मनु शुक्ला (सहर्ष कुमार शुक्ला). इन बातों का अपना एक आनंद है. फिर चाहे वो अनुभवी दोस्त हो या अनुभवहीन. हर कोई चर्चा की इस चासनी को चाव से गटक जाना चहता है. जतला सिद्धार्थ की डायरेक्टेड लव एंड शुक्ला फिल्म के लीड रोल में मनु शुक्ला है. जो पेशे से मुंबई की सड़कों पर ऑटो ड्रावरी करता हैं. लुकिंग वाइज रफ है. पर उसके ऑटो का इंटीरियर डिजाइन बॉलीवुड हिरोइनों की चमचमाती तस्वीरों से अटा हुआ है. खासकर सोनाक्षी सिन्हा की तस्वीर से. ब्राह्मण परिवार में जन्में होने के चलते वह इस बात में भरोसा करता है कि महिलाओं को घूरना गलत है. वह ब्ल्यू फिल्म भी देखता है पर इंडियन नहीं. ये सब नजर और सोच का खेल है. वो कमिटेड है मैरिड लाइफ को सफल बनाने के लिए. अति उत्साह में आकर दोस्तों से कह बैठता है कि अपनी पत्नी को घर और बिस्तर दोनों का सुख देगा.
फिल्म मध्यवर्गीय परिवार के रहन-सहन, तौर तरीके और बर्ताव पर आधारित है. खासकर एक सास की बेटी और बहू के बीच फर्क की समझ को लेकर. पर ये बात उतनी स्पष्ट नहीं जितनी की उसे आसानी से बता दिया जाता है. बैंड-बाजे की आवाज के साथ शुक्ला अरेंज मैरिज कर पत्नी लक्ष्मी और अपने माता-पिता के साथ स्लम में बने चॉल के एक कमरे वाले घर में एंट्री करता है. घर की दीवारों से झड़ता चूना-सीमेंट उसकी हैसियत की तरफ इशारा करती है. लेकिन शुक्ला के मन में सुहागरात की दैहिक संपर्क का ख्याली पुलाव पक रहा होता है. अब तक का ये सीन दर्शकों को एक बार फिर स्क्रीन से जोड़े रखने की तरफ धकेलती है कि क्या शुक्ला सुहागरात मना पाएगा या नहीं? अगर मनाएगा तो वह कैसा होगा? स्थितियां क्या होंगी? मां-बाप के खर्राटे के बीच उस सिंगल कमरे में अपनी शर्मिली पत्नी के साथ सहज हो पाएगा या नहीं?
शुक्ला की मां मालकिन है तो उसके पास खासा ज्यादा काम भी नहीं होता. सिवाय हुक्म चलाने और वक्त-बेवक्त टीवी पर सीरियल देखने के. उस पर तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर करने के. चार सदस्यीय इस परिवार में अगर किसी दो की आवाज सुनाई नहीं देती है तो वह शुक्ला के पिता और पत्नी लक्ष्मी की. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने शुक्ला के पिता को डायलॉग नहीं दिए. इसके पीछे कोई खास कारण भी नजर नहीं आता. उस वक्त भी जब शुक्ला और उसकी मां के बीच विवाद खड़ा हो जाता है. फिल्म में जब-जब हम शुक्ला को उसकी पत्नी से संपर्क बनाने की कोशिश पाते हुए देखते हैं. तो वह बड़ा रोचक मालूम होता है. पर इसकी अपनी वजह है. उस छोटे से सिंगल कमरे में चार से बढ़कर छह आंखों वाला सीसीटीवी कैमरा नवविहाहित जोड़े पर होगा तो वह खुद को कैसे सहज पाएगा? शुक्ला की मुश्किलें तब और बढ़ जाती है जब उसकी बहन रूपा ससुराल छोड़ मायके आ जाती है. यहां से फिल्म एक अलग ही मोड में चलती है. हालांकि डायरेक्टर ने सास के तौर पर शुक्ला की मां का कोई क्रूर चेहरा पेश नहीं किया है. लेकिन उसका व्यवहार बेटी-बहू में फर्क बता जाता है.
आवश्यकता अविष्कार की जननी है. परिवार को जब ये महसूस होता कि बेटे शुक्ला और बहु लक्ष्मी के लिए पर्सनल स्पेस होना चाहिए तो उस कमरे में रात-रात के लिए सूटकेस की दीवार खड़ी कर दी जाती है. फिल्म स्क्रिप्ट की बेसिक चीजें क्लियर है इसलिए क्रिएटिविटी भी सफल लगती है. समाज में पहले से प्रचलित डायलॉग शुक्ला पर फीट बैठते हैं जैसे बीबी के आते ही मां बुरी लगने लगी और शादी के बाद बोरा (पागल) गया है. हो न हो ऐसी बाते दोस्तों और परिवार-संबंधियों की जुबान से निकल ही आती है. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने कुछ घटनाओं से शुक्ला की ऑटो ड्राइवरी के जरिए ईमानदार ऑटो वाले की छवि को गढ़ा है. पर सभी ऑटो वाले अच्छा हो ऐसा बिल्कुल नहीं है. हर जगह कुछ अच्छे ऑटो ड्राइवर भी होते है तो कुछ धुर्त और मजबूरी का फायदा उठाने वाले भी. फिल्म के उस सीन पर गौर किया जाना चाहिए जहां किराये के पैसे मांगने पर ऑटो सवार लड़की शुक्ला पर पीछा करने और उसके साथ बदसलूकी का आरोप लगाती है. ये बेहद संकुचित मानसिकता है कि आप किसी के घर या गाड़ी में रखी तस्वीरों से उसके चरित्र का अंदाजा लगा लेते हैं. यह बात ठीक उसी तरह से हैं जब कोई लड़की सिगरेट या शराब का गिलास थामे नजर अथवा छोटे व टाइट कपड़े में दिख जाए तो उसके कैरेक्टर्स को आसानी से जज कर लिया जाता है.
जाते-जाते शुक्ला का वो डायलॉग सुनने लायक है जब लूटपाट की घटना में जख्मी हालत में घर लौटता है और लक्ष्मी से कहता है कि- "सूरत चाहे जितनी भी बुरी हो जाए, हम हमेशा सुंदर थे और आपके लिए रहेंगे"
फिल्म मध्यवर्गीय परिवार के रहन-सहन, तौर तरीके और बर्ताव पर आधारित है. खासकर एक सास की बेटी और बहू के बीच फर्क की समझ को लेकर. पर ये बात उतनी स्पष्ट नहीं जितनी की उसे आसानी से बता दिया जाता है. बैंड-बाजे की आवाज के साथ शुक्ला अरेंज मैरिज कर पत्नी लक्ष्मी और अपने माता-पिता के साथ स्लम में बने चॉल के एक कमरे वाले घर में एंट्री करता है. घर की दीवारों से झड़ता चूना-सीमेंट उसकी हैसियत की तरफ इशारा करती है. लेकिन शुक्ला के मन में सुहागरात की दैहिक संपर्क का ख्याली पुलाव पक रहा होता है. अब तक का ये सीन दर्शकों को एक बार फिर स्क्रीन से जोड़े रखने की तरफ धकेलती है कि क्या शुक्ला सुहागरात मना पाएगा या नहीं? अगर मनाएगा तो वह कैसा होगा? स्थितियां क्या होंगी? मां-बाप के खर्राटे के बीच उस सिंगल कमरे में अपनी शर्मिली पत्नी के साथ सहज हो पाएगा या नहीं?
शुक्ला की मां मालकिन है तो उसके पास खासा ज्यादा काम भी नहीं होता. सिवाय हुक्म चलाने और वक्त-बेवक्त टीवी पर सीरियल देखने के. उस पर तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर करने के. चार सदस्यीय इस परिवार में अगर किसी दो की आवाज सुनाई नहीं देती है तो वह शुक्ला के पिता और पत्नी लक्ष्मी की. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने शुक्ला के पिता को डायलॉग नहीं दिए. इसके पीछे कोई खास कारण भी नजर नहीं आता. उस वक्त भी जब शुक्ला और उसकी मां के बीच विवाद खड़ा हो जाता है. फिल्म में जब-जब हम शुक्ला को उसकी पत्नी से संपर्क बनाने की कोशिश पाते हुए देखते हैं. तो वह बड़ा रोचक मालूम होता है. पर इसकी अपनी वजह है. उस छोटे से सिंगल कमरे में चार से बढ़कर छह आंखों वाला सीसीटीवी कैमरा नवविहाहित जोड़े पर होगा तो वह खुद को कैसे सहज पाएगा? शुक्ला की मुश्किलें तब और बढ़ जाती है जब उसकी बहन रूपा ससुराल छोड़ मायके आ जाती है. यहां से फिल्म एक अलग ही मोड में चलती है. हालांकि डायरेक्टर ने सास के तौर पर शुक्ला की मां का कोई क्रूर चेहरा पेश नहीं किया है. लेकिन उसका व्यवहार बेटी-बहू में फर्क बता जाता है.
आवश्यकता अविष्कार की जननी है. परिवार को जब ये महसूस होता कि बेटे शुक्ला और बहु लक्ष्मी के लिए पर्सनल स्पेस होना चाहिए तो उस कमरे में रात-रात के लिए सूटकेस की दीवार खड़ी कर दी जाती है. फिल्म स्क्रिप्ट की बेसिक चीजें क्लियर है इसलिए क्रिएटिविटी भी सफल लगती है. समाज में पहले से प्रचलित डायलॉग शुक्ला पर फीट बैठते हैं जैसे बीबी के आते ही मां बुरी लगने लगी और शादी के बाद बोरा (पागल) गया है. हो न हो ऐसी बाते दोस्तों और परिवार-संबंधियों की जुबान से निकल ही आती है. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने कुछ घटनाओं से शुक्ला की ऑटो ड्राइवरी के जरिए ईमानदार ऑटो वाले की छवि को गढ़ा है. पर सभी ऑटो वाले अच्छा हो ऐसा बिल्कुल नहीं है. हर जगह कुछ अच्छे ऑटो ड्राइवर भी होते है तो कुछ धुर्त और मजबूरी का फायदा उठाने वाले भी. फिल्म के उस सीन पर गौर किया जाना चाहिए जहां किराये के पैसे मांगने पर ऑटो सवार लड़की शुक्ला पर पीछा करने और उसके साथ बदसलूकी का आरोप लगाती है. ये बेहद संकुचित मानसिकता है कि आप किसी के घर या गाड़ी में रखी तस्वीरों से उसके चरित्र का अंदाजा लगा लेते हैं. यह बात ठीक उसी तरह से हैं जब कोई लड़की सिगरेट या शराब का गिलास थामे नजर अथवा छोटे व टाइट कपड़े में दिख जाए तो उसके कैरेक्टर्स को आसानी से जज कर लिया जाता है.
जाते-जाते शुक्ला का वो डायलॉग सुनने लायक है जब लूटपाट की घटना में जख्मी हालत में घर लौटता है और लक्ष्मी से कहता है कि- "सूरत चाहे जितनी भी बुरी हो जाए, हम हमेशा सुंदर थे और आपके लिए रहेंगे"
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