जुलाई-अगस्त के दूसरे सप्ताह में जासूसी जॉनर की दो फिल्में आई. पहली मिशन इम्पोसिबल: फॉलआउट और दूसरी विश्वरूपम-2. दोनों फिल्मों में काफी कुछ कॉमन सा है.
क्रिस्टोफर मैक्वॉरी की डायरेक्टेड मिशन इम्पोसिबल: फॉलआउट और कमल हसन की विश्वरूपम-2 अपनी-अपनी फिल्मों के सीक्वेल है. दोनों फिल्मों के पिछले सीक्वेल दर्शकों को खूब पसंद आए. उसी का नतीजा है कि स्क्रीन पर हम लीड रोल में उन्हीं एक्टर्स को दोबारा नए मिशन-नई कहानी के जरिए देख रहे हैं. कहानी क्या है? दुनिया भर में न्यूक्लियर हथियारों को लेकर पागलपन सा माहौल बना हुआ. कभी अमेरिका-नॉर्थ कोरिया तो कभी अमेरिका-ईरान. मिशन इम्पोसिबल: फॉलआउट का हीरो ईथन (टोम क्रूज) वैश्विक आतंकवादी जॉन लार्क और उसके साथियों से उन तीन न्यूक्लियर बमों (प्लूटोनियम) को हासिल करना चाहता है. जिसके इस्तेमाल से दुनिया तहस-नहस हो सकती है. ईथन की आईएमएफ टीम सीआईए के एजेंट अगस्त वॉकर (हैनरी कैविल) और यूके की खुफिया एजेंसी एमआई-6 की एजेंट इल्सा फाउस्ट की मदद से प्लूटोनियम को हासिल करने के लिए मिशन में हैं. वही प्लूटोनियम जिसे वो बर्लिन में एक डील के वक्त मिस कर देता है. ईथन को देखकर जासूस बनने की हसरत पालने वाले एक स्मार्ट जासूस बन सकते हैं. फिल्म में ईथन को छोड़ दे तो एजेंट इल्सा और एजेंट अगस्त के एक्शन सींस अच्छे लगते हैं. इससे पहले अगस्त वॉकर को फिल्म बैटमैन वर्सेस सुपरमैन : डॉन ऑफ जस्टिस में सुपरमैन की भूमिका में देख चुके हैं. कहानी में ट्वीस्ट तब और आता है जब अगस्त ईथन को डबल क्रॉस करते हुए दुश्मन सोलोमन लेन से हाथ मिला लेता है. फिल्म में ईथन एजेंट अगस्त पर भारी पड़ते हैं. 56 की उम्र में भी सड़क से लेकर कॉरपोरेट ऑफिस की छतों पर उनकी दौड़-जंप के अलावा फाइट, बाइक पर स्टंट और हेलीकॉप्टर को उड़ाते देख लगता है कि जैसे-जैसे वो उम्र के पड़ाव पार करते जा रहे हैं वैसे-वैसे एक्शन में उम्र की सीमा को तोड़ते जा रहे हैं. कठिन हालात में भी ईथन के चेहरे पर शिकन न आना बताता है कि वे ही असली सुपरस्टार है. खासियत है कि दो घंटे से भी ज्यादा वक्त की ये फिल्म आपको बोर नहीं करती. फिल्म अमेरिका के अलावा बेलफास्ट, बर्लिन और भारत के सियाचिन में शूट हुई है. भारत के विदेश मंत्रालय ने फिल्म में कश्मीर से जुड़ी सीमाओं को लेकर दिखाए गए फैक्ट्स पर आपत्ति भी जताई थी. इसके बाद रिलीज से पहले फिल्म के कुछ सींस काट दिए गए थे.
‘‘जंग में जाने जाएंगी, मौते होंगी और जख्म भी। जरा खून देखते ही आसू बहते हैं तो पर्दा पहन लो’’- अलकायदा जिहादी उमर कुरैशी (राहुल बोस) का ये डायलॉग अपने साथी विजाम अहमद कश्मीरी (कमल हसन) से हैं. फिल्म के शुरुआत में स्क्रीन पर कुछ लाइनें लिखी हुई आती है. ये लाइन दर्शकों को 2013 की विश्वरूपम से जोड़ती है. ‘जिहादी उमर वही है जो साल 2011 में न्यूक्लियर हमले से न्यूयॉर्क को तबाह करना चाहता था.’ लेकिन रॉ एजेंट विजाम अहमद कश्मीरी की बदौलत नाकाम हो जाता है. उसके बाद उमर और सलीम के हिंदुस्तानी खुफिया एजेंसी की कैद से भाग जाने के साथ विश्वरूपम का पहला अध्याय खत्म होता और यहां से शुरू होता विश्वरूपम-2. फिल्म में दो से तीन बार फ्लैशबैक इन और आउट है जो कहानी की कड़ियों को जोड़ते हुए चलती है. लेकिन उससे भी ज्यादा जानना ये जरूरी है कि आखिर कब तक दुश्मनों की जासूसी के लिए प्लान के मुताबिक हम अपने जावानों का बहिष्कार कर उसे दुश्मनों की नजर में खुद का दुश्मन साबित करते रहेंगे. अार्मी ऑफीसर विजाम भी इसी सोच और सिस्टम का शिकार होता है. उसका कोर्ट मार्शल कर आर्मी से निकाल दिया जाता है. सारे रिकॉर्ड्स मिटा दिए जाते हैं. तभी वह उमर के संपर्क में आता है. ऐसा ही हम मेघना गुलजार की डारेक्टेड राजी फिल्म में देखते हैं. पाकिस्तान की जासूसी के लिए दुश्मन के घर में सेहमत (आलिया भट्ट) को बहु बनाकर और फिल्म द: हीरो- ए लव स्टोरी में रेशमा (प्रीति जिंटा) को नौकरानी के रूप में भेजते हैं. इसके अलावा फिल्म में न्यूयॉर्क में बम लगाने का सिलसिला शुरू होने के साथ ही लंदन और फिर दिल्ली तक आता है. रॉ एजेंट विजाम इन्हीं बमों को मुंह बोली पत्नी निरुपमा, एजेंट अस्मिता व कर्नल जगन्नाथ (शेखर कपूर) और यूके की गुप्त एजेंसी एमआई-6 के एजेंट की मदद से डिफ्यूज करता है. फिल्म में ओमार के जरिए जिहादी के जीवन को करीब से दिखाया गया है. उसके बेटे नाजीर और जलाल की ख्वाहिश है कि वे जिहादी नहीं बल्कि डॉक्टर और इंजीनियर बनना चाहते हैं. पर एक जिहादी यही चाहता है कि जिहादी का बेटा जिहादी ही बने. एजेंट विजाम की फाइट अच्छी है. लंबे वक्त के बाद हिंदी फिल्मों में ऐसी फाइट देखने को मिली है जिसमें कुछ ओरिजनल लगे. फिल्म में एक दूसरा पहलू भी है जिसे डायरेक्टर हसन ने दिखाया है कि किस तरह से कुछ पोलिटिशियन देशहित में चल रही खुफिया गतिविधियों को प्रभावित कर रहे हैं. उमर के रोल में राहुल बोस को पर्दे पर लंबे समय याद रखा जा सकता है. कई सींस में वो प्रभावित भी नहीं कर पाते. डायलॉग्स में प्रोपर आवाज नहीं है. लेकिन फिल्म में जिहादी का खौफ पैदा करने का काम उन्होंने सफलतापूर्वक किया है. स्क्रीन पर शेखर कपूर को देखकर अच्छा लगता है.
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