- शिकाराः झीलों के तल से वादियों का नजारा ले लेने का माध्यम.
- शिकाराः वो किताब जिसे लड़की ने उंगलियों से जकड़ा है.
- शिकाराः वो नाम, जो कि यहां एक जोड़े ने अपने घर को दिया है.
विधु विनोद चौपड़ा ने फिल्म शिकारा में इन सभी को खूबसूरती से जोड़ा है. जो रह रहकर याद दिला रही होती है कि आप कुछ खास देख रहे हैं. शिकारा यानी कश्मीर की एक खास पहचान.जैसे कि दिल्ली में डीटीसी की बसें, मुंबई में बेस्ट की बसें, कोलकाता की येलो टैक्सी और जयपुर में पिंक कलर के ऑटो रिक्शा. फिल्म जम्मू के रिफ्यूजी कैंप से शुरू होती है, जहां इस कहानी का हीरो शिव कुमार धर टाइपराइटर पर अमेरिकी राष्ट्रपति को खत लिख रहा है. लिखने का ये सिलसिला पिछले 28 सालों से जारी है. सभी में एक ही सवाल- ‘मैं कैंप में रह रहा हूं और आपसे 5 मिनट के लिए मिलना चाहता हूं.’ जहन में एक ही सवाल उठता है कि आखिर ये खत अमेरिका को क्यों? अमेरिकी राष्ट्रपति इस कश्मीरी पंडित से क्यों मिले? कुछ सोच पाते हैं कि शांति की एंट्री होती है. वो अमेरिका से जवाब में आए उस खत को भी लाती है. जिसमें आगरा आने का बुलावा है. स्पेशल जोड़े की पावरफुल शख्सियत से मुलाकात के ख्वाब बुनते है कि कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है. साल 1987 में शिव और शांति की मुलाकात और फिर दोनों की शादी. और एक हिंदू लड़के का मुस्लिम लड़के से पैदाइशी दोस्ती. यहां हिंदू-मुस्लिम तो मानों सुख-दुख में एक-दूसरे के साथी हो.
सच्ची घटना से प्रेरित ये फिल्म सिर्फ प्रेम, शादी और दोस्ताने तक सीमित नहीं है. यहां नैरेटिव बदलता है. पलायन की तरफ बढ़ता है. मामला हिंदू-मुस्लिम हो जाता है. इसका बीज चुनावी रैली के दौरान लागू धारा-144 में उपजे तनाव के बीच हिंदू का मुस्लिम दोस्त लतीफ अपने पिता को खो देने से पड़ता है. वह इस मौत का जिम्मेदार सरकार को ठहराता है. उसने जो सपने क्रिकेट खेलने के लिए संजोए थे उसमें अब हिंदू विरोधी विचार जन्म ले लेते है. जिन हाथ से ट्रॉफी उठाने के अरमान थे उन्होंने बंदूक थाम लिया होता. घाटी में माहौल बिगड़ते चले जाते हैं. तमाम घटनाओं से क्षुब्ध शिव और शांति के घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का बयान चल रहा होता है- ‘कश्मीरी मुस्लमानों के रगों में मुजाहिदों और गाजियों का खून है.’ पूरे शहर में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ नारेबाजी शुरू हो जाती है. उन्हें दोस्तों और पड़ोसियों से इंडिया चले जाने की सलाह मिलती है. जैसे कि वो किसी दूसरे देश के हो.और नहीं जाने पर बुरे परिणाम भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी दी जाती है. लेकिन जब उनके घरों को टार्गेट किया जाता है तो वे पलायन को मजबूर हो जाते हैं. जलते घरों व अपनों को खो देने का सदमा और गम में डूबे लोगों की तस्वीर पार्टिशन के वक्त की याद दिलाती है. पर जो आग अब लगी है वह बुझेगी कैसे?
फिल्म के एक सीन में एक मुस्लिम नेता आरोप लगाता हैं कि अगले चुनाव में ये गवर्नमेंट गढ़बड़ करेगी. यहां चुनाव नहीं सिर्फ जंग जीती जा सकती है. इतिहास के पन्नों को पलटे तो साल 1987 में हुए चुनाव में फारूक अब्दुल्ला ने जीत दर्ज की थी. तब मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट पार्टी ने भी चुनाव में धांधली का आरोप लगाया था. मसला धांधली और आरोप-प्रत्यारोप का नहीं. समझने की जरूरत है तो हर किसी ने अपने हितों को साधने के लिए कश्मीर का इस्तेमाल किया. डायरेक्टर चौपड़ा ने फिल्म में अपने ही देश में नागरिकों का सालों तक रिफ्यूजी कैंप में रहने को जिस खूबसूरती से दिखाया वह किसी भी देश के लिए एक वीभत्स तस्वीर हो सकती है. कहानी में बताया गया है कि कश्मीर का संपूर्ण बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो गया था. लेकिन सीधे तौर पर ये कहना सही नहीं है. उस दौर में आतंकवाद और उग्रवाद अपने चरम पर था. शासन की पूरी मशीनरी ध्वस्त हो चुकी थी. बेहतर होता कि जिस तरह डायरेक्टर ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर का जिक्र किया उसी तरह उस वक्त के गवर्नर जगमोहन के पक्ष को भी रखते चलते. तब हम पलायन की इस कहानी को और भी संतुलित तरीके से समझ पाते.पर जिस टोह में हम फिल्म को देख रहे होते हैं कि अब राष्ट्रपति ओबामा से शिव कुमार धर और शांति की मुलाकात होगी, ये जानने के लिए फिल्म देखनी होगी.
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