Sunday, 12 April 2020

कंटेजियन वो फिल्म जो आज कोविड-19 से जूझ रहे विश्व के सामने वर्तमान और भविष्य के दर्पण सी लगती है!

नेशनल वैक्सीन लॉटरी. ये शब्द वैक्सीन जैसे मामले में थोड़ा अटपटा सा लगता है. लेकिन जब अमेरिकी एजेंसी सीडीसी यानी सेंटर डिजिज फॉर कंट्रोल एंड प्रीवेंशन इसके डिस्ट्रीब्यूशन की शर्तों को समझा रही होती है तो हर कोई घर की टीवी पर नजरें गड़ाए होता है. महामारी का 133वां दिन अपने चरम पर है. संक्रमण के उस अनजान वायरस से हॉन्गकॉन्ग से लेकर अमेरिका तक हर कोई खौफ में हैं. बढ़ती मौतों और पॉजिटिव केसों से डब्ल्यूएचओ में हड़कंप मचा है. अगर एमईवी-1 वैक्सीन समय पर मिला जाए तो कुछ दिन और जिंदा रह लेंगे. फिर क्या पता आने वाले दिनों में ये जानलेवा वायरस अपने आप ही अप्रभावी हो जाए? टीनेज जॉरी महामारी के शुरूआती चरण में मां बैथ और छोटे भाई क्लार्क खो चुकी है. वो टीवी पर उन बातों को सुन कर पिता मिच हॉमएफ से कहती है- अब हम समर गवाएंगे. हम और 144 दिन गवाएंगे. जो कभी वापस नहीं आएंगे. वो लोग ऐसा इंजेक्शन क्यों नहीं बनाते जो समय को बीतने से रोक सके. स्टीवन सोडरबर्ग की निर्देशित कंटेजियन फिल्म का ये सीन आज के कोविड-19 महामारी के बीच बने हालात सा लगता है. जैसे कि हम इस कहानी के किरदार हो. मात्र संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आकर मर जाने के डर से लोग घरों में कैद हैं. इस कहानी की शुरूआत फिल्म के डे टाइमर-2 से होती है. 34 साल की बैथ एक कंपनी की एज्गीक्यूटिव है. काम के सिलसिले से ज्यादा वक्त ट्रिप में बीताती है. वाया शिकागो होते हुए हॉन्गकॉन्ग से मेनोपोलिस अपने शहर पहुंचती. बेटे क्लार्क को दुलारती है. चौथे रोज बैथ अपने पति के सामने दम तोड़ देती है. हॉस्पिटल से लौटने पर बेटे क्लार्क की मौत हो जाती है. पत्नी और बेटे की मौत की वजह नहीं मालूम होने पर मिच डॉक्टर से सवाल करता है- मैं आज यहां क्यों हूं? मेरा ये जानने का हक हैमेरा ये हाल क्यों है?’ स्क्रीन पर तेजी से हॉन्गकॉन्ग, लंदन, टोक्यो, जॉर्जिया, कैलिफोर्निया एक के बाद एक करके इन बड़े शहरों की तस्वीर के साथ आबादी के आंकड़े चलते हैं.

अलग-अलग शहरों से होने वाली इन भयानक मौतों से जिनेवा डब्ल्यूएचओ की नींद उड़ जाती है. तमाम मौतों की वीडियो आने पर वह सार्स महामारी के प्रोटोकॉल को अपनाने की पहल करती है. किसी भी व्यक्ति से 10 फीट की दूरी बनाए. खांसी, जुकाम, सिर दर्द और तेज बुखार के लक्षण वाले मरीजों को क्वॉरेंटाइन में रखना. उनके सैंपल सीडीसी को भेजती है. डब्ल्यूएचओ, सीडीसी और  गर्वनमेंट की अन्य एजेंसियों के डॉक्टरों व साइंटिस्टों की टीमें शुरू में इंसेफेलाइटिस बताते हैं. लैब में जांचों के बढ़ते क्रम में कोई नतीजा नहीं निकलता. सिवाय उसे अनूठा वायरस नाम देने के. सीडीसी की एपिडेमिक इंटेलिजेंट सर्विस ऑफिसर डॉ. मिअर्स दफ्तर से निकल कर फील्ड में जाती है. सबसे पहले वो बैथ की ट्रेवल हिस्ट्री, संपर्क में आए लोगों और उससे जुड़े फूटेज को तलाशती है. इधर डब्ल्यूएचओ की एपिडिमियोलॉजिस्ट डॉ. लिओनोरा हॉन्गकॉन्ग जाती है. ये पता लगाने कि वायरस आबादी में आया कैसे? इन सबके बीच डायरेक्टर स्टीवन का कैमरा सैन फ्रांसिस्को की तरफ जाता है. सीडीसी की मनाही के बावजूद डॉ. सर्समैन अपने लैब में उस सैंपल पर काम कर रहे होते. इसके पीछे की प्रेरणा रेस्टोरेंट के टेबलों पर बैठों लोगों की खांसने वाली धुंधली तस्वीरें होती है. ब्लॉगर एलेन एक सीन में कहता है कि- ‘2 मिलियन यूनिक विजिटर महामारी की सच तलाश रहे हैं.’ फिल्म में एलेन का रोल अच्छा है. उसके उठाए गए सवालों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. चाहे वो फार्मेसी कंपनियों के आसमान छूते शेयर के भाव हो या सीडीसी और डब्ल्यूएचओ के बीच मिलीभगत से एक-दूसरे को लाभ पहुंचाने का सवाल हो. वो एक जगह पर कहता है कि-वर्ष 1918 के स्पैनिश फ्लू जैसे महामारी के बाद कई लोग अमीर हो गए थे.
महामारी के वक्त किसी भी समाज में असंतोष के फैलने के कई कारण होते. कोविड-19 के चलते भारत में लॉकडाउन लागू होने के बाद लोगों में जरूरी चीजों को लेकर भय फैल गया. इससे सबसे ज्यादा दिहाड़ी मजदूर प्रभावित हुए. जो गांवों से शहरों में कमाने के लिए आए थे. पहले नौकरी गवाई और फिर घरों में भूख-प्यास के डर से वे अपने घरों की ओर पलायन को मजबूर हुए. लेकिन डायरेक्टर स्टीवन ने यहां असंतोष के मंजर को एक कदम आगे दिखाया है. डॉ. लिओनोरा को हॉन्गकॉन्ग में उसी के सहयोगी उसका अपहरण कर लेते है. ताकि अमेरिका और डब्ल्यूएचओ द्वारा इजाद वैक्सीन की प्राप्ति हो सके. संक्रमण पर काबू पाने के लिए डल्लास, मियामीं और फोनेक्स जैसे शहरों में कर्फ्यू लगा दिया जाता है. शिकागो में मेडिसिन सेंटर विंडो पर खड़ी लोगों की लाइन दवा कमी की बात सुनकर गुस्सा जाती है. तोड़फोड़ कर देती है. बंदूकों के साथ खाने-पीने की चीजों की लूटपाट का जो दृश्य है वह भयभीत करने वाला होता है. डे टाइमर के 135वें दिन पूरे शहर में सैन्य बल तैनात रहता. घर खाली दिखते और सड़कों पर सामान्य दिनों की अपेक्षा लोगों की चहलकदमी भी नहीं. ज्यादातर लोग सुरक्षित जगहों को पलायन कर गए होते या महामारी से मरने के बाद वहीं दफना दिए गए होते है.साल 2019-20 की महामारी पूरी दुनियां घरों तक सिमट कर रह गई है.इससे जुड़ी सभी जानकारियों के लिए टीवी, अखबार और इंटरनेट तक सीमित रह गए  है.ऐसे में ये फिल्म हमें महामारी की पूरी प्रोसेस को समझाती है.
  

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