Monday, 13 April 2020

फिल्म 'बैंडिट क्वीन' जिसके लिए डायरेक्टर शेखर कपूर को याद किया जाएगा

शेखर कपूर की निर्देशित 'बैंडिट क्वीन’ फिल्म डाकू फूलन देवी की बायोग्राफी पर आधारित है. चंबल के बीहड़ में ठाकुरों से लेकर पुलिस तक में फूलन का खौफ होता है. लेकिन यहां तक पहुंचने की कहानी को डायरेक्टर शेखर ने फूलन के बचपन से शुरू की है. 11 साल की फूलन की शादी 20 साल के युवक से कर दी जाती है. किरदारों के भाषाई लहजे से लेकर उसकी पृष्ठभूमि में गरीबी और नाव से ससुराल तक पहुंचने के सीन सब कुछ दर्शक को जोड़ते हुए चलते हैं. मायके से सुसराल आने के बाद फूलन को बुरे व्यवहार का सामना करना पड़ता है. मां के कहने पर पति फूलन को पीटता है. एक रोज घर से भेड़ चराने बाहर गई फूलन मौका पाकर अपने मायके चली जाती है. बेटी के हालात जानने के बाद भी पिता इसी विचार पर अड़िग रहता है कि वह अपने ससुराल को लौट जाए.
फूलन का कसूर सिर्फ गरीब होना ही उसकी जिंदगी को मुश्किल भरा नहीं बनाते. बल्कि उसका महिला होना और खासकर निम्न जाति में जन्म लेना भी उसके जीवन को प्रभावित करता. जब वह कुएं पर पानी भरने जाती है तो वहां उस पर उच्च वर्ग की महिलाएं ताना मारती है. जैसे-जैसे कहानी बढ़ती है. मुंहफट स्वभाव वाली फूलन की समस्याएं भी बढ़ती जाती है. खेत से लकड़ी बटौरने के दौरान ग्राम प्रधान का बेटा उस पर बुरी नजर डालता है. वह खिलाफ में आवाज उठाती है. पंचायत बिठाने पर मजबूर कर देती है. पर जिस मानसिकता से प्रेरित भरी सभा में फूलन से सवाल किए जाते हैं तो वह स्वाभिमान की मूर्ति बन खड़ी रहती है. क्योंकि न्याय के रखवालों की आंखों में उसे मानवता की रक्षा और उसके सम्मान की कोई जगह नहीं दिख रही होती है. वह चुपचाप वहां से चली जाती है.
कहानी में गांव के ठाकुरों खिलाफ आवाज उठाने की सजा फूलन को सामूहिक दुष्कर्म से दी जाती है. इंसाफ के लिए पुलिस के पास जाती है. लेकिन रसूखदारों के इशारे पर उसे वहां भी मारा-पीटा जाता है. इस बीच गांव डाकू में आते हैं और फूलन को उठाकर ले जाते हैं. हम जिन आंखों से उन दृश्यों को देखकर समझ पा रहे होते हैं कि फूलन की ओर बढ़े ये हाथ मदद के हैं. पर कुछ पल बाद ही डाकुओं का सरदार अपनी आंखों से फूलन को तरेर रहा होता है. संबंध बनाने की जबरन कोशिश कर रहा होता है. यहां पर डाकू विक्रम मल्लाह फूलन की मदद करता है.सरदार के चंगुल से बचकर दोनों भाग जाते हैं. फिल्म का ये पहला सीन होता है जहां नायिका के चेहरे पर जीने की चाहत और खुशी दोनों दिखती है. फूलन मल्लाह को पाकर अपने साथ अतीत में हुई ज्यादातियों को कुछ वक्त के लिए भूल जाती है. तभी विक्रम मल्लाह मारा जाता है. बगावत का जो चेहरा फूलन का यहां से उभरता है वह समाज, उन ठाकुरों और अपने दुश्मनों के सामने डटकर खड़ा होता है. बदले की भावना को मुख्य मुद्दा बनाकर बॉलीवुड में बहुत सी फिल्में बनी है. लेकिन फूलन देवी के जीवन पर फिल्म बनाने वाले शेखर कपूर तारीफ के योग्य है. वरना जिस बीहड़ में पानी के स्रोत और घर के रास्तों का नहीं पता होता वहां पर हम देख पाते हैं कि कैसे एक समाज रवैया एक साधारण सी लड़की को डाकू बनने के लिए मजबूर करता है. उसके हाथ में बंदूक थमा देता है.

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