Wednesday, 29 April 2020

शशि कपूर : सिनेमा की पाठशाला का वो मास्टर जो सेट पर छड़ी के साथ आता था

अजूबा फिल्म साल 1991 में आई. अद्भुत प्रयोगों से बनी इस फिल्म की शूटिंग के दिनों को याद करते हुए ऋषि कपूर बताते हैं कि- ‘शशि अंकल हाथ में छड़ी लेकर डायरेक्ट करते थे.’ इस किस्से को बढ़ाते हुए अमिताभ बच्चन कहते- ‘वो छड़ी सेट पर कहानी में सुधार लाती थी. अनुशासन बनाने के काम आती थी. लेकिन शूटिंग के आखिरी दिनों में वही छड़ी रशिया (रूस) में खो गई. जिसका मैंने भगवान का शुक्रियादा भी किया!’ शशि के जीवन से जुड़े ऐसे ही इंटरस्टिंग किस्सो पर अंग्रेजी में किताब आई है. बायोग्राफी का नाम है- शशि कपूर : द हाउसहोल्डर, द स्टार. आसिम छाबरा इस किताब के लेखक है. 200 पेजों वाली इस किताब में 7 चैप्टर है.
लेखक आसिम किताब की शुरुआत में अपनी पत्नी का शशि कपूर पर क्रश के जिक्र से करते हैं. बायोग्राफी में लिखते हैं कि 18 मार्च 1938 को कोलकाता में पृथ्वीराज कपूर के घर में एक लड़के का जन्म हुआ. फैमिली में नाम के बाद राज शब्द लगाने का रिवाज था. उस लड़के का पूरा नाम बलबीर राज रख दिया. पर मां को ये नाम कम ही रास आया. बलबीर जब छोटे थे तो रात में ज्यादा वक्त चांद को देखने में बीताते थे. तो मां ने उनका नाम शशि रख दिया. बचपन में ही शशि परिवार के साथ बोम्बे आ गए. जब वो 6 साल के थे तो पिता ने पृथ्वीराज कपूर के नाम से थियेटर स्थापित की. 15 साल के होने पर शशि ने पिता का थियेटर फुल टाइम के लिए ज्वॉइन कर लिया. साल 1953-60 तक थियेटर की बारीकियां सीखी. पृथ्वीराज की बिगड़ती तबीयत के चलते थियेटर कंपनी को बंद करना पड़ा. शशि भाई राज कपूर की आरके फिल्म प्रोडक्शन हाउस से जुड़े. कुछ समय के बाद शशि ने वहां से भी छोड़ दिया.
जेनिफर से प्यार और फिर शादी तक शशि की ये कहानी किसी फिल्मी प्लॉट से कम नहीं लगती. थियेटर के दौरान जेनिफर को शशि ने स्टेज के पीछे से देखा. और पहली नजर में प्यार हो गया. लेकिन जेनिफर के पिता जॉफ्री केंडल को शशि से अपनी बेटी का मिलना पसंद नहीं था. जॉफ्री शेक्सपियर थियेटर कपंनी चलाते थे. जॉफ्री की ऑटोग्राफी का हवाला देते हुए लेखक आसिम लिखते हैं कि जॉफ्री अपने बच्चों को लेकर काफी पॉजेसिव थे. खासकर जेनिफर के लिए. क्योंकि वो उनके थियेटर की स्टार परफोर्मर थी. जॉफ्री ने जेनिफर से यहां तक कहा कि वो लड़का भारतीय है. तुम उससे 4 साल बड़ी हो. जॉफरी इस शादी के पक्ष में नहीं थे. जर्नलिस्ट मधु जैन को दिए इंटरव्यू में शशि ने स्वीकारा कि- ‘जेनिफर को पाने के लिए वे अपनी लड़ाई लड़ते और किसी भी हद तक जा सकते थे.’ शशि और जेनिफर के प्रेम प्रसंग से बड़े भाई शम्मी कपूर और गीता बाली वाकिफ थे. दोनों को अपने यहां रखा भी. शम्मी ने शशि-जेनिफर की शादी के लिए माता-पिता को मनाया. जिसे ना चाहकर भी उन्हें इस रिश्ते के लिए मानना पड़ा.
पिता पृथ्वीराज कपूर के अलावा भाई शम्मी और राज दोनों ही अभिनय की दुनियां में बड़ा नाम कमा चुके थे. उनकी प्रसिद्धि के सामने शशि के लिए बड़ा स्टार बनने की बड़ी चुनौती थी. शशि ज्यादा वक्त डायरेक्टरों से मिलने, स्टूडियो विजिट करने और फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूशन के कामों में बीताते. आखिर शशि को पहला ब्रेक चार दीवारी फिल्म में मिला. सोशल ड्रामा जॉनर की इस फिल्म में नंदा ने नायिका का किरदार निभाया. जो धूल के फूल व कानून समेत 25 फिल्मों में काम कर चुकी थी. चार दीवारी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर उतना अच्छा नहीं कर पाई. इसके अलावा शशि ने नंदा के साथ 'मेहंदी लगेगी मेरे हाथ' और 'मोहब्बत इसको कहते हैं' फिल्म की. दोनों ही फ्लॉप रही. साल 1965 में शशि और नंदा ने 'जब-जब फूल खिले' में काम किया. जो कश्मीर में बनी लव स्टोरी पर आधारित थी. परदेसियों से ना अंखिया मिलाना और ना ना करते प्यार जैसे गाने खूब पॉपुलर हुए. ये फिल्म काफी सफल रही. दर्शकों की डिमांड पर शशि और नंदा ने 4 फिल्में और की. दोनों ने कुल 8 फिल्मों में एक साथ काम किया. जबकि साल 1961 में शशि की अभिनीत वाली धर्मपुत्र फिल्म ने नेशनल अवार्ड जीता.
कपूर फैमिली में शशि पहले व्यक्तित्व थे जो लंबे समय तक फिट और स्लीम रहे. जेनिफर जिंदा रहते हुए उनकी डाइट को लेकर सख्त रहती थी. शशि लंच में एक संतरा और दही लिया करते थे. भारतीय सिनेमा की प्रोफेसर और लेखक रचेल ड्वेयर को दिए इंटरव्यू में शशि बताते हैं कि- 'एक्टर के तौर पर फिल्मों में पैसे कमाने के लिए आए. थियेटर उन्हें बेहद पसंद था लेकिन वहां पैसे नहीं थे.’ हिंदी के अलावा अंग्रेजी में डायलॉग डिलीवरी से शशि ने हिंदुस्तान में विदेशी डायरेक्टरों-प्रोड्यूसरों के लिए भी दरवाजे खोल दिए. उसी का नतीजा रही द हाउसहोल्डर फिल्म. अमेरिकन डायरेक्टर जेम्स आइवरी और प्रोड्यूसर इस्माइल मर्चेंट के साथ शशि ने कई फिल्में की. जैसे- शेक्सपियर वल्लाह, बोम्बे टॉकिज, हीट एंड डस्ट व साइड स्ट्रीट्स.
दीवार फिल्म की सफलता से शशि के करिअर को 70 के दशक में नई पहचान मिली. भारतीय सिनेमा में ये पहला मौका था जब हीरो का कॉम्बिनेशन दर्शकों को पसंद आया. अमिताभ ने भी स्वीकार किया कि- ‘शशि और उन्हें भाइयों की तरह देखा जाता था.’ उस दौर की ये जोड़ी शशिताभ कहलाई. दोनों ने 14 फिल्मों में साथ-साथ काम किया. शशि ज्यादातर फिल्मों में रवि की भूमिका में होते तो अमिताभ विजय की. अभिनय में सारा समय और ऊर्जा खपाने वाले शशि फिल्म निर्माण में आ गए. यहां उन्हें इस्माइल मर्चेंट का साथ मिला. जुनून, 36 चौरंगी लेन, विजेता व उत्सव जैसी फिल्में बनाई. उम्र भर की सारी कमाई गवा दी. इससे आहत जेनिफर ने शशि से यहां तक कहा कि वे अपनी दुकान बंद कर दें. पर शशि यहीं नहीं थमे. ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में भूमिकाओं का उलटफेर शशि ने शुरू किया. इससे पहले राज कपूर को भी निर्देशन और अभिनय करते देखा गया. बीते कुछ सालों में शाहरूख खान, आमिर खान, सलमान खान, सैफ अली खान और अक्षय कुमार समेत ऐसे कई अभिनेता है जो फिल्म निर्माण में उतरे. शशि के बेटे कुनाल ने यहां तक कहा कि- ‘मेरे पिता एक खराब बिजनेसमैन थे.’
शशि के सिनेमा के सफर को महज इस लेख में समेटा नहीं जा सकता. लेकिन लेखक आसिम छाबरा ने बायोग्राफी के जरिये शशि के व्यक्तित्व को सझाने की सफल कोशिश की है. शशि को करीब से जानने वाले यश चौपड़ा, इस्माइल मर्चेंट, श्याम बेनेगल, देव बेनेगल, शबाना आजमी, शर्मिला टैगोर के अलावा कई जर्नलिस्टों के बातचीत के अंश इस किताब को रूचिकर बनाते हैं. किताब में शशि के शूटिंग और डायरेक्शन से जुड़ी ब्लैक एंड व्हाइट और कलर में दुर्लभ तस्वीरें हैं जो आकर्षित करती है.

Saturday, 18 April 2020

प्रधान-पति कल्चर को मान्यता देने वाले समाज के लिए आईना है 'पंचायत'

दो बच्चे हैं मीठी खीर, उससे ज्यादा बवासीर. नारा पढ़कर 3 बच्चों का पिता खफा हो जाता है. बोल पड़ता है- ‘दो से ज्यादा बच्चा बवासीर होता है, हमारा पिंटू बवासीर है?’ ये बात पूरे गांव में आग की तरफ फैल जाती है. ऐसे लोगों की बढ़ती तादाद यानी संभावित वोट कटने से चिंतित प्रधान-पति बृज भूषण दुबे (रघुवीर यादव) बचाव के एक्शन में आ जाता है. ये सीन ‘पंचायत’ वेब सीरीज के चौथे एपिसोड का है. एमेजॉन प्राइम की इस नई वेब सीरीज को दीपक कुमार मिश्रा ने डायरेक्ट किया है. 8 एपिसोड वाली ये कहानी फुलेरा पंचायत की है. जो यूपी-बिहार के बॉर्डर से सटे बलिया जिले का हिस्सा है. कायदे से यहां प्रधान, उप प्रधान और सहायक है. कहानी की शुरूआत खाली सचिव पद पर अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) की एंट्री से होती.
सरकारी तंत्र और ग्रामीणों के बीच फासले को कम करने के लिए देश में पंचायतें बनी है. यहां अभिषेक उसी सिस्टम का हिस्सा है. जो शहर से निकल गांव में सचिव बनकर आया है. साथ में बोरिया-बिस्तर बाइक पर बांध लाया है. ये सीन उस हर नौकरी करने वाले सामान्य युवा से जोड़ता है. कॉरपोरेट दफ्तर में काम करने वाले दोस्त की सलाह पर अभिषेक पंचायत में सचिव की नौकरी करने आ जाता है. लेकिन सब कुछ बेमन से. इसलिए भी जब उसके मुताबिक काम नहीं होते या पॉजिटिव रिजल्ट नहीं आने पर वह गुस्सा सा जाता है. फिर चाहे वो गांव में आई बारात के दुल्हे द्वारा उसकी आरामदायक और चक्के वाली कुर्सी की मांग कर डालना हो, दूसरे गांव के लड़कों के उकसाने पर पीटने के लिए बैट उठा लेना हो या पहली दफा में कैट क्वालिफाई न कर पाना हो. इन सबके बीच उसे सहयोगी विकास (चंदन रॉय) की सहानुभूति मिलती है. पर ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि वह प्रधान गुट का है या सचिव गुट का. कहानी में प्रधान पति की भूमिका में रघुवीर यादव है. जो विधायकी लड़ चुका है. प्रधान की सीट महिला आरक्षित होने के चलते पत्नी मंजू देवी (नीना गुप्ता) को चुनाव जीतवा चुका है. पर सत्ता पर खुद काबिज है. लोगों की नजर में असली प्रधान भी है. उसका अधिकारियों को लौकी भेंट करना हमारी नजरों का इम्तिहान लेती है.
मनरेगा, भ्रष्टाचार, फैलाए गए झूठ और दहेज प्रथा जैसे बिंदुओं को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष छूते हुए ये कहानी हमें हंसाती है, गुदगुदाती है और कभी-कभी गंभीरता के चादर से जकड़ देती है. सामानंतर राजनीति में प्रधान पति का ये कल्चर सिर्फ पंचायत तक सीमित नहीं रहा है. बल्कि विधायक, सांसद और मंत्री के पति सड़कों से लेकर सार्वजनिक समारोह तक में एक सामान्य नागरिक की जगह वे विशेषाधिकार की हैसियत से पेश आते हैं. लोकतंत्र जैसे देश में ‘पंचायत’ के सियासत की तस्वीर को खूबसूरती से दिखाया है. कहानी के फुलेरा दफ्तर में रखी फाइलों पर जमी धूल हो या सांसद योजना के तहत मिलने वाली 13 सोलर लाइटों की बंदरबाट. ये सभी पंचायत मोहर की ताकत को धूमिल करती है. महात्मा गांधी ने कहा था- ‘यदि गांव नष्ट होते हैं तो भारत नष्ट हो जाएगा.' कोविड-19 जैसी महामारी में भी ग्राम प्रधानों की लापरवाही किसी से छिपी नहीं. एक गांव में 32 लोगों को क्वॉरेंटाइन किया गया. जांच में पता चला तो बेड पर महज 3 लोग ही मिले. पूछने पर प्रधान का बेपरवाह जवाब था- ‘अरे सब घर गए होंगे, खा-पीकर सोने के लिए आ जाएंगे.’ ये वेब सीरीज पंचायत की सियासत में बने रहने के लिए अपनाए जाने वाले सभी हथकंडे और मनमानी जैसे रवैये दर्शाती है.
जिस धारणा के घोड़े पर सवार होकर ‘पंचायत’ को देख रहे होते वह एक वक्त के बाद धड़ाम से गिर जाता है. कहानी नई और सहज है. धीमी आवाज में सही लेकिन गंभीर प्रहार करने वाली पंचायत के अगले सीजन का बेसब्री से इंतजार रहेगा. अभिषेक और रिंकी की लव स्टोरी, अभिषेक की पृष्ठभूमि और प्रधान मंजू देवी की आत्मविश्वास से भरी प्रधानी भूमिका और डीएम की फटकार से क्षुब्ध प्रधान-पति बृज भूषण का पलटवार. सब अगली कड़ी में मिलेंगे.

Wednesday, 15 April 2020

'द अपू ट्रायोलॉजी पाथेर पंचाली' फिल्म जो जीवन के सामाजिक एवं मानवीय पक्ष का एहसास करवाती है

पूछो तो बताए. एक बाल मन की चाहत. कटी पतंग को लूट लेना. पराई गेंद को उस दिशा में ठोकर मारकर उसके मालिक को भयभीत कर देना. किसी के बाग से फल तोड़ कर दौड़ पड़ना. इसमें मिलने वाली खुशी की कोई थाह ही नही. दुर्गा जब गांव के एक बाग से अमरूद तोड़ कर बिना कुछ पीछे देखे घर की तरफ भाग रही होती है तो उसका चेहरा खुशी से चमचमा रहा होता है. लेकिन बाग मालकिन के उलाहने से उसका चेहरा पीला पड़ जाता है. दुर्गा पुरोहित हरिहर की इकलौती बेटी है. जो घर पर पिता की गैर मौजूदगी में अंदर से लेकर बाहर तक के कामों की जिम्मेदारी संभाली हुई है. कामों में मां का हाथ बंटाती है. छोटे भाई अपू को संभालती है. कच्चे मकान से निकल कर बाहर खेतों में गाय चराती है. यहां जो दृश्य है वो 'द अपू ट्रायोलॉजीः पाथेर पंचाली' फिल्म का है. तीन भागों में बनी इस फिल्म के निर्माता सत्यजित राय है. उनकी ये फिल्म बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यास पाथेर पंचाली पर आधारित है.
ब्लैक एंड व्हाइट से सजी इस कहानी के किरदारों की दुनियां उस वक्त लड़खड़ाना शुरू होती है जब बनारस में रहते हुए पुरोहित हरिहर को गांव लौटने में देरी हो जाती है. इधर घर में खाने को अनाज नहीं होता. तब इंसानियत का वो रिश्ता भी बोझ लगने लग जाता है जब घर से मुंह बोली बूढ़ी काकी को जाना पड़ता है. तेज हवाओं के साथ हुई बारिश में भीगने से दुर्गा की तबीयत खराब हो जाती है. बारिश की बौछार और हवाएं कच्चे मकान के दरवाजे-खिड़की को झकझोर रही होती. मां धैर्यपूर्वक दुर्गा के तपते सिर को गिले कपड़े से सामान्य करने की कोशिश में जुटी रहती है. समय पर सही इलाज नहीं मिलने से दुर्गा की मौत हो जाती है. सदमे में डूबा पुरोहित परिवार बनारस जाने को मजबूर हो जाता है.


कहानी के केंद्र में अपू आ जाता है. उसे मां-पिता दोनों का प्यार मिलता है. यहां आने के बाद भी गरीबी का साया पुरोहित परिवार पर बना रहता है.तभी अस्वस्थता के चलते पिता हरिहर की मौत हो जाती है. बनारस के उस किराये के मकान से अपू और उसकी मां अपने पैतृक घर चले जाते हैं. अपू पढ़ाई के दम पर स्कॉलरशिप हासिल करता है. मां चाहती है कि अपू पिता से मिले विरासत में पुरोहिताई के काम को संभाले. लेकिन अपू की आकांक्षाएं आगे की पढ़ाई की होती है. वह कोलकाता चला जाता है. यहां एक नई उम्मीद दिखती है. असुविधाओं और अभावों से भरे मां-बेटे के जीवन के दिन बहुरेंगे. तभी बीमार मां की मौत हो जाती है. अपू के जीवन का आखिरी सहारा भी भाग्य छिन लेता है. डायरेक्टर ने फिल्म में अपू के बचपन से लेकर युवा अवस्था के जीवन को दिखाया है. जो पहले बहन, पिता, मां और शादी के बाद पत्नी की मौत के गम से गुजरता है.कथानक में ग्रामीण भारत के सामाजिक और मानवीय पक्ष को सहजता दिखाया है.

Monday, 13 April 2020

फिल्म 'बैंडिट क्वीन' जिसके लिए डायरेक्टर शेखर कपूर को याद किया जाएगा

शेखर कपूर की निर्देशित 'बैंडिट क्वीन’ फिल्म डाकू फूलन देवी की बायोग्राफी पर आधारित है. चंबल के बीहड़ में ठाकुरों से लेकर पुलिस तक में फूलन का खौफ होता है. लेकिन यहां तक पहुंचने की कहानी को डायरेक्टर शेखर ने फूलन के बचपन से शुरू की है. 11 साल की फूलन की शादी 20 साल के युवक से कर दी जाती है. किरदारों के भाषाई लहजे से लेकर उसकी पृष्ठभूमि में गरीबी और नाव से ससुराल तक पहुंचने के सीन सब कुछ दर्शक को जोड़ते हुए चलते हैं. मायके से सुसराल आने के बाद फूलन को बुरे व्यवहार का सामना करना पड़ता है. मां के कहने पर पति फूलन को पीटता है. एक रोज घर से भेड़ चराने बाहर गई फूलन मौका पाकर अपने मायके चली जाती है. बेटी के हालात जानने के बाद भी पिता इसी विचार पर अड़िग रहता है कि वह अपने ससुराल को लौट जाए.
फूलन का कसूर सिर्फ गरीब होना ही उसकी जिंदगी को मुश्किल भरा नहीं बनाते. बल्कि उसका महिला होना और खासकर निम्न जाति में जन्म लेना भी उसके जीवन को प्रभावित करता. जब वह कुएं पर पानी भरने जाती है तो वहां उस पर उच्च वर्ग की महिलाएं ताना मारती है. जैसे-जैसे कहानी बढ़ती है. मुंहफट स्वभाव वाली फूलन की समस्याएं भी बढ़ती जाती है. खेत से लकड़ी बटौरने के दौरान ग्राम प्रधान का बेटा उस पर बुरी नजर डालता है. वह खिलाफ में आवाज उठाती है. पंचायत बिठाने पर मजबूर कर देती है. पर जिस मानसिकता से प्रेरित भरी सभा में फूलन से सवाल किए जाते हैं तो वह स्वाभिमान की मूर्ति बन खड़ी रहती है. क्योंकि न्याय के रखवालों की आंखों में उसे मानवता की रक्षा और उसके सम्मान की कोई जगह नहीं दिख रही होती है. वह चुपचाप वहां से चली जाती है.
कहानी में गांव के ठाकुरों खिलाफ आवाज उठाने की सजा फूलन को सामूहिक दुष्कर्म से दी जाती है. इंसाफ के लिए पुलिस के पास जाती है. लेकिन रसूखदारों के इशारे पर उसे वहां भी मारा-पीटा जाता है. इस बीच गांव डाकू में आते हैं और फूलन को उठाकर ले जाते हैं. हम जिन आंखों से उन दृश्यों को देखकर समझ पा रहे होते हैं कि फूलन की ओर बढ़े ये हाथ मदद के हैं. पर कुछ पल बाद ही डाकुओं का सरदार अपनी आंखों से फूलन को तरेर रहा होता है. संबंध बनाने की जबरन कोशिश कर रहा होता है. यहां पर डाकू विक्रम मल्लाह फूलन की मदद करता है.सरदार के चंगुल से बचकर दोनों भाग जाते हैं. फिल्म का ये पहला सीन होता है जहां नायिका के चेहरे पर जीने की चाहत और खुशी दोनों दिखती है. फूलन मल्लाह को पाकर अपने साथ अतीत में हुई ज्यादातियों को कुछ वक्त के लिए भूल जाती है. तभी विक्रम मल्लाह मारा जाता है. बगावत का जो चेहरा फूलन का यहां से उभरता है वह समाज, उन ठाकुरों और अपने दुश्मनों के सामने डटकर खड़ा होता है. बदले की भावना को मुख्य मुद्दा बनाकर बॉलीवुड में बहुत सी फिल्में बनी है. लेकिन फूलन देवी के जीवन पर फिल्म बनाने वाले शेखर कपूर तारीफ के योग्य है. वरना जिस बीहड़ में पानी के स्रोत और घर के रास्तों का नहीं पता होता वहां पर हम देख पाते हैं कि कैसे एक समाज रवैया एक साधारण सी लड़की को डाकू बनने के लिए मजबूर करता है. उसके हाथ में बंदूक थमा देता है.

Sunday, 12 April 2020

कंटेजियन वो फिल्म जो आज कोविड-19 से जूझ रहे विश्व के सामने वर्तमान और भविष्य के दर्पण सी लगती है!

नेशनल वैक्सीन लॉटरी. ये शब्द वैक्सीन जैसे मामले में थोड़ा अटपटा सा लगता है. लेकिन जब अमेरिकी एजेंसी सीडीसी यानी सेंटर डिजिज फॉर कंट्रोल एंड प्रीवेंशन इसके डिस्ट्रीब्यूशन की शर्तों को समझा रही होती है तो हर कोई घर की टीवी पर नजरें गड़ाए होता है. महामारी का 133वां दिन अपने चरम पर है. संक्रमण के उस अनजान वायरस से हॉन्गकॉन्ग से लेकर अमेरिका तक हर कोई खौफ में हैं. बढ़ती मौतों और पॉजिटिव केसों से डब्ल्यूएचओ में हड़कंप मचा है. अगर एमईवी-1 वैक्सीन समय पर मिला जाए तो कुछ दिन और जिंदा रह लेंगे. फिर क्या पता आने वाले दिनों में ये जानलेवा वायरस अपने आप ही अप्रभावी हो जाए? टीनेज जॉरी महामारी के शुरूआती चरण में मां बैथ और छोटे भाई क्लार्क खो चुकी है. वो टीवी पर उन बातों को सुन कर पिता मिच हॉमएफ से कहती है- अब हम समर गवाएंगे. हम और 144 दिन गवाएंगे. जो कभी वापस नहीं आएंगे. वो लोग ऐसा इंजेक्शन क्यों नहीं बनाते जो समय को बीतने से रोक सके. स्टीवन सोडरबर्ग की निर्देशित कंटेजियन फिल्म का ये सीन आज के कोविड-19 महामारी के बीच बने हालात सा लगता है. जैसे कि हम इस कहानी के किरदार हो. मात्र संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आकर मर जाने के डर से लोग घरों में कैद हैं. इस कहानी की शुरूआत फिल्म के डे टाइमर-2 से होती है. 34 साल की बैथ एक कंपनी की एज्गीक्यूटिव है. काम के सिलसिले से ज्यादा वक्त ट्रिप में बीताती है. वाया शिकागो होते हुए हॉन्गकॉन्ग से मेनोपोलिस अपने शहर पहुंचती. बेटे क्लार्क को दुलारती है. चौथे रोज बैथ अपने पति के सामने दम तोड़ देती है. हॉस्पिटल से लौटने पर बेटे क्लार्क की मौत हो जाती है. पत्नी और बेटे की मौत की वजह नहीं मालूम होने पर मिच डॉक्टर से सवाल करता है- मैं आज यहां क्यों हूं? मेरा ये जानने का हक हैमेरा ये हाल क्यों है?’ स्क्रीन पर तेजी से हॉन्गकॉन्ग, लंदन, टोक्यो, जॉर्जिया, कैलिफोर्निया एक के बाद एक करके इन बड़े शहरों की तस्वीर के साथ आबादी के आंकड़े चलते हैं.

अलग-अलग शहरों से होने वाली इन भयानक मौतों से जिनेवा डब्ल्यूएचओ की नींद उड़ जाती है. तमाम मौतों की वीडियो आने पर वह सार्स महामारी के प्रोटोकॉल को अपनाने की पहल करती है. किसी भी व्यक्ति से 10 फीट की दूरी बनाए. खांसी, जुकाम, सिर दर्द और तेज बुखार के लक्षण वाले मरीजों को क्वॉरेंटाइन में रखना. उनके सैंपल सीडीसी को भेजती है. डब्ल्यूएचओ, सीडीसी और  गर्वनमेंट की अन्य एजेंसियों के डॉक्टरों व साइंटिस्टों की टीमें शुरू में इंसेफेलाइटिस बताते हैं. लैब में जांचों के बढ़ते क्रम में कोई नतीजा नहीं निकलता. सिवाय उसे अनूठा वायरस नाम देने के. सीडीसी की एपिडेमिक इंटेलिजेंट सर्विस ऑफिसर डॉ. मिअर्स दफ्तर से निकल कर फील्ड में जाती है. सबसे पहले वो बैथ की ट्रेवल हिस्ट्री, संपर्क में आए लोगों और उससे जुड़े फूटेज को तलाशती है. इधर डब्ल्यूएचओ की एपिडिमियोलॉजिस्ट डॉ. लिओनोरा हॉन्गकॉन्ग जाती है. ये पता लगाने कि वायरस आबादी में आया कैसे? इन सबके बीच डायरेक्टर स्टीवन का कैमरा सैन फ्रांसिस्को की तरफ जाता है. सीडीसी की मनाही के बावजूद डॉ. सर्समैन अपने लैब में उस सैंपल पर काम कर रहे होते. इसके पीछे की प्रेरणा रेस्टोरेंट के टेबलों पर बैठों लोगों की खांसने वाली धुंधली तस्वीरें होती है. ब्लॉगर एलेन एक सीन में कहता है कि- ‘2 मिलियन यूनिक विजिटर महामारी की सच तलाश रहे हैं.’ फिल्म में एलेन का रोल अच्छा है. उसके उठाए गए सवालों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. चाहे वो फार्मेसी कंपनियों के आसमान छूते शेयर के भाव हो या सीडीसी और डब्ल्यूएचओ के बीच मिलीभगत से एक-दूसरे को लाभ पहुंचाने का सवाल हो. वो एक जगह पर कहता है कि-वर्ष 1918 के स्पैनिश फ्लू जैसे महामारी के बाद कई लोग अमीर हो गए थे.
महामारी के वक्त किसी भी समाज में असंतोष के फैलने के कई कारण होते. कोविड-19 के चलते भारत में लॉकडाउन लागू होने के बाद लोगों में जरूरी चीजों को लेकर भय फैल गया. इससे सबसे ज्यादा दिहाड़ी मजदूर प्रभावित हुए. जो गांवों से शहरों में कमाने के लिए आए थे. पहले नौकरी गवाई और फिर घरों में भूख-प्यास के डर से वे अपने घरों की ओर पलायन को मजबूर हुए. लेकिन डायरेक्टर स्टीवन ने यहां असंतोष के मंजर को एक कदम आगे दिखाया है. डॉ. लिओनोरा को हॉन्गकॉन्ग में उसी के सहयोगी उसका अपहरण कर लेते है. ताकि अमेरिका और डब्ल्यूएचओ द्वारा इजाद वैक्सीन की प्राप्ति हो सके. संक्रमण पर काबू पाने के लिए डल्लास, मियामीं और फोनेक्स जैसे शहरों में कर्फ्यू लगा दिया जाता है. शिकागो में मेडिसिन सेंटर विंडो पर खड़ी लोगों की लाइन दवा कमी की बात सुनकर गुस्सा जाती है. तोड़फोड़ कर देती है. बंदूकों के साथ खाने-पीने की चीजों की लूटपाट का जो दृश्य है वह भयभीत करने वाला होता है. डे टाइमर के 135वें दिन पूरे शहर में सैन्य बल तैनात रहता. घर खाली दिखते और सड़कों पर सामान्य दिनों की अपेक्षा लोगों की चहलकदमी भी नहीं. ज्यादातर लोग सुरक्षित जगहों को पलायन कर गए होते या महामारी से मरने के बाद वहीं दफना दिए गए होते है.साल 2019-20 की महामारी पूरी दुनियां घरों तक सिमट कर रह गई है.इससे जुड़ी सभी जानकारियों के लिए टीवी, अखबार और इंटरनेट तक सीमित रह गए  है.ऐसे में ये फिल्म हमें महामारी की पूरी प्रोसेस को समझाती है.
  

Wednesday, 8 April 2020

फिल्मी 'शिकारा' जो सिर्फ एक नाव, किताब और एक घर का नाम ना होकर अल्पसंख्यकों का दर्द है


  • शिकाराः झीलों के तल से वादियों का नजारा ले लेने का माध्यम.
  • शिकाराः वो किताब जिसे लड़की ने उंगलियों से जकड़ा है.
  • शिकाराः वो नाम, जो कि यहां एक जोड़े ने अपने घर को दिया है. 
विधु विनोद चौपड़ा ने फिल्म शिकारा में इन सभी को खूबसूरती से जोड़ा है. जो रह रहकर याद दिला रही होती है कि आप कुछ खास देख रहे हैं. शिकारा यानी कश्मीर की एक खास पहचान.जैसे कि दिल्ली में डीटीसी की बसें, मुंबई में बेस्ट की बसेंकोलकाता की येलो टैक्सी और जयपुर में पिंक कलर के ऑटो रिक्शा. फिल्म जम्मू के रिफ्यूजी कैंप से शुरू होती है, जहां इस कहानी का हीरो शिव कुमार धर टाइपराइटर पर अमेरिकी राष्ट्रपति को खत लिख रहा है. लिखने का ये सिलसिला पिछले 28 सालों से जारी है. सभी में एक ही सवाल- ‘मैं कैंप में रह रहा हूं और आपसे मिनट के लिए मिलना चाहता हूं. जहन में एक ही सवाल उठता है कि आखिर ये खत अमेरिका को क्यों? अमेरिकी राष्ट्रपति इस कश्मीरी पंडित से क्यों मिले? कुछ सोच पाते हैं कि शांति की एंट्री होती है. वो अमेरिका से जवाब में आए उस खत को भी लाती है. जिसमें आगरा आने का बुलावा है. स्पेशल जोड़े की पावरफुल शख्सियत से मुलाकात के ख्वाब बुनते है कि कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है. साल 1987 में शिव और शांति की मुलाकात और फिर दोनों की शादी. और एक हिंदू लड़के का मुस्लिम लड़के से पैदाइशी दोस्ती. यहां हिंदू-मुस्लिम तो मानों सुख-दुख में एक-दूसरे के साथी हो.
सच्ची घटना से प्रेरित ये फिल्म सिर्फ प्रेम, शादी और दोस्ताने तक सीमित नहीं है. यहां नैरेटिव बदलता है. पलायन की तरफ बढ़ता है. मामला हिंदू-मुस्लिम हो जाता है. इसका बीज चुनावी रैली के दौरान लागू धारा-144 में उपजे तनाव के बीच हिंदू का मुस्लिम दोस्त लतीफ अपने पिता को खो देने से पड़ता है. वह इस मौत का जिम्मेदार सरकार को ठहराता है. उसने जो सपने क्रिकेट खेलने के लिए संजोए थे उसमें अब हिंदू विरोधी विचार जन्म ले लेते है. जिन हाथ से ट्रॉफी उठाने के अरमान थे उन्होंने बंदूक थाम लिया होता. घाटी में माहौल बिगड़ते चले जाते हैं. तमाम घटनाओं से क्षुब्ध शिव और शांति के घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो का बयान चल रहा होता है- कश्मीरी मुस्लमानों के रगों में मुजाहिदों और गाजियों का खून है.’ पूरे शहर में कश्मीरी पंडितों के खिलाफ नारेबाजी शुरू हो जाती है. उन्हें दोस्तों और पड़ोसियों से इंडिया चले जाने की सलाह मिलती है. जैसे कि वो किसी दूसरे देश के हो.और नहीं जाने पर बुरे परिणाम भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी दी जाती है. लेकिन जब उनके घरों को टार्गेट किया जाता है तो वे पलायन को मजबूर हो जाते हैं. जलते घरों व अपनों को खो देने का सदमा और गम में डूबे लोगों की तस्वीर पार्टिशन के वक्त की याद दिलाती है. पर जो आग अब लगी है वह बुझेगी कैसे?
फिल्म के एक सीन में एक मुस्लिम नेता आरोप लगाता हैं कि अगले चुनाव में ये गवर्नमेंट गढ़बड़ करेगी. यहां चुनाव नहीं सिर्फ जंग जीती जा सकती है. इतिहास के पन्नों को पलटे तो साल 1987 में हुए चुनाव में फारूक अब्दुल्ला ने जीत दर्ज की थी. तब मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट पार्टी ने भी चुनाव में धांधली का आरोप लगाया था. मसला धांधली और आरोप-प्रत्यारोप का नहीं. समझने की जरूरत है तो हर किसी ने अपने हितों को साधने के लिए कश्मीर का इस्तेमाल किया. डायरेक्टर चौपड़ा ने फिल्म में अपने ही देश में नागरिकों का सालों तक रिफ्यूजी कैंप में रहने को जिस खूबसूरती से दिखाया वह किसी भी देश के लिए एक वीभत्स तस्वीर हो सकती है. कहानी में बताया गया है कि कश्मीर का संपूर्ण बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो गया था. लेकिन  सीधे तौर पर ये कहना सही नहीं है. उस दौर में आतंकवाद और उग्रवाद अपने चरम पर था. शासन की पूरी मशीनरी ध्वस्त हो चुकी थी. बेहतर होता कि जिस तरह डायरेक्टर ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर का जिक्र किया उसी तरह उस वक्त के गवर्नर जगमोहन के पक्ष को भी रखते चलते. तब हम पलायन की इस कहानी को और भी संतुलित तरीके से समझ पाते.पर जिस टोह में हम फिल्म को देख रहे होते हैं कि अब राष्ट्रपति ओबामा से शिव कुमार धर और शांति की मुलाकात होगी, ये जानने के लिए फिल्म देखनी होगी.

Wednesday, 1 April 2020

‘कर्ज और कॉन्ट्रेक्ट की शर्तों से दबी जिंदगी में मानवता को ढूंढती फिल्म-‘सॉरी वी मिस्ड यू’

हम आपको हायर नहीं कर रहे, बल्कि आप हमारे साथ जुड रहे हैं. आप हमारे लिए काम ना करके हमारे साथ काम करेंगे. यहां जॉब का कोई कॉन्ट्रेक्ट नहीं है और ना ही आपके के लिए कोई टार्गेट है. आप डिलीवरी के मानकों को पूरा करते हैं. इसलिए मेहनताना की जगह आपको आपकी फीस दी जाएगी. यहां काम के घंटे तय नहीं है. आप सिर्फ हमारे लिए उपलब्ध रहेंगे. आप अपनी नियती के मालिक है. आखिरी बात. आप अपनी वैन लाएंगे, तभी हम आपको अपने लिए हायर कर सकेंगे?’
कैन लॉच की निर्देशित सॉरी वी मिस्ड यू फिल्म के शुरुआत में उपरोक्त बातेें इंटरव्यू का हिस्सा है. ब्लैक स्क्रीन के भीतर से उभरती आवाजें रिकी टर्नर और सुपरवाइजर मेलोनी की है. धीरे-धीरे नॉर्मल होती स्क्रीन के बीच सुपरवाइजर दस्तावेजों को पलटता है. इधर सुपरवाइजर की आखिरी शर्त से रिकी एक पल के लिए सोच में पड़ जाता है. फिर वो ईएमआई पर वैन लेने के लिए तैयार हो जाता है. रिकी ना ज्यादा पढ़ा-लिखा और ना ही उसके पास कोई प्रोफेशनल डिग्री है. दरअसल रिकी जिस सेक्टर से जुड़ रहा है वो गिग इकोनॉमी का हिस्सा है. यानी जौमेटो, अमेजन, फ्लिपकार्ट और स्विगी जैसी कंपनियों में डिलीवरी एग्जीक्यूटिव का जॉब है. यहां ना उम्र देखा जाता है और ना ही किसी तरह की खास क्वालिफिकेशन. अगर कुछ समझा जाता है तो वह एग्जीक्यूटिव के पास खुद की व्हीकल और टाइम पर डिलीवरी का जोश. रिकी यहां होने वाली कमाई को लेकर उत्साहित है. क्योंकि उसने पिछली जॉब मंदी के चलते गवाई थी. उसी मंदी ने हाउसिंग सेक्टर को तहस-नहस कर दिया था. रिकी न्यूकैसल शहर में किराये के मकान पर पत्नी ऐबी, बेटी लाईजा (11) और टीनेजर बेटा सेबस्टियन के साथ रहता है. रिकी जैसे ही बिजनैस की बात परिवार को बताता है तो सभी की आंखें खुशी से चमक उठती है. बेटा पिता के गले से झूम जाता है. रिकी कहता है- इन 2 सालों में हमारे पास खूब पैसा होगा, हम खुद की जमीन ले लेंगे.’ काम के साथ वैन की अनिवार्यता की बात भी जोड़ता है. पत्नी से कहता है कि वो अपनी कार बेच दें. ताकि उन पैसों से वैन की डाउन पैमेंट कर सके. बिना कार के अपने काम पर होने वाले असर को लेकर ऐबी एतराज जताती है. लेकिन रिकी उसे बस से जाने का सुझाव देता है. यहां जो दृश्य खुशी का है वही गम का भी है.
फिल्म गले तक कर्ज में डूबे टर्नर परिवार के संघर्ष की है. जीरो-ऑवर्स-कॉन्ट्रेक्ट में नर्स के तौर पर मरीजों के घर पर केयर-टेकर का काम करने वाली ऐबी क्लाइंट मॉली से ये कहते हुए सुनी जाती है कि- ‘10 साल पहले यानी वर्ष 2008 में नॉदर्न रॉक बैंक डूबा था. उस मंदी के चलते बंधक ऋण पर लिया मकान गवाना पड़ा था. हजारों यूरो के कर्ज को चुकाने के लिए रिकी-ऐबी खूब मेहनत करते हैं. ज्यादा पैसों के लिए रिकी 2 रुटों पर पार्सल डिलीवरी करता है. पार्सल की टाइम पर डिलीवरी का प्रैशर इतना कि वह पैशाब भी वैन में रखी बोतल में करता है. इधर ऐबी भी अलग-अलग क्लाइंट के पास पूरी शिफ्ट में 14 घंटे की ड्यूटी करती है. क्लाइंट की नाराजगी पर भी वह अच्छे से पेश आती है. लेकिन बच्चों को वक्त नहीं दे पाने से कुछ चीजे बिगड़ती चली जाती है. खासकर बेटे सेबस्टियन के लिए. वो स्कूल जाना छोड़ देता है. सड़कों पर प्रचार की पेंटिंग करता है. यहां तक कि एक वक्त के बाद वह पिता के काम को नापसंद करता है. जो पिता और बेटे के बीच मुश्किल रिलेशनशिप को दर्शाता है. बीते सालों में आर्थिक मंदी पर भले ही खूब किताबें लिखी गई होंगी. सरकारों ने नाकामियों को छिपाया होगा या उससे जनता का ध्यान भटकाया होगा. विपक्ष ने सरकार की गलत नीतियों का नतीजा बताया होगा. जागरूक समाज ने मंदी से बंद कंपनियों, खत्म हुई नौकरियों व फलां कंपनी के उत्पादन में गिरावट जैसी तमाम बिंदुओं पर महज औपचारिक चर्चा कर छोड़ दिया होगा. लेकिन डायरेक्टर कैन यहां ऐसी हीं मंदी से प्रभावित परिवार की कहानी को परदे पर उतारते हैं. एकदम नेच्यूरल सब्जेक्ट में. यही वजह कि वर्किंग क्लास खुद को इस कहानी के करीब पाता है.
कर्ज किसी के लिए आपदा हो सकती है तो किसी के लिए बुरा साया. तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच फिल्म में रोज की जिंदगी में कुछ धैर्य बंधाता है तो वो है रिकी और ऐबी के संबंध. जो इमोशन से भरपूर है. एक एक-दूसरे को लेकर किसी तरह से शंकित नहीं है. जैसे कि ऐसे रिश्ते किसी खास वर्ग में बनते हो. इन दोनों की जोड़ी द स्काई इज पिंक फिल्म में मूज और पैंडा की याद दिलाती है. फिल्म के एक सीन में रिकी से मारपीट कर कुछ लुटेरे पार्सल लूट लेते हैं. इलाज के लिए ऐबी के साथ हॉस्पिटल आए रिकी को कंपनी से फोन आता है. लूटे गए उन पार्सल व स्कैनर डिवाइस पर जवाब मांगे जाते हैं. ये देख ऐबी फोन ले लेती है और समझाती जाती है. लेकिन कंपनी के कायदे-कानून से परिवार में बिगड़े हालात की सारी कड़वाहट को सुना डालती है. एक पल के लिए ये सीन आत्म-विमर्श करने पर मजबूर कर देता है.यहां ये फिल्म कर्ज के कल्चर से लेकर कॉरपोरेट सेक्टर के कॉन्ट्रेक्ट से बंधी जिंदगी को देखने का नजरियां दे जाती है.   

अनवर का अजब किस्सा : ड्रिमी वर्ल्ड का वो हीरो जो मोहब्बत में जिंदगी की हकीकत से रूबरू हुआ

बड़ी ही डिस्टर्बिंग स्टोरी है...एक चर्चा में यही जवाब मिला. डायरेक्टर बुद्धदेव दासगुप्ता की नई फिल्म आई है. अनवर का अजब किस्सा. कहानी-किस्स...