Thursday, 31 January 2019

जर्नलिज्म की दुनियां में कॉल्विन एक आंख वाली जर्नलिस्ट के नाम से जानी गई - फिल्म ‘अ प्राइवेट वॉर’

“मैं नहीं जानती की आगे क्या होग? कौन मरेगा और कौन जिएगा? मैं नहीं चाहती कि मेरे शब्द कागज पर महज स्याही बन कर रह जाए.  मैं चाहती हूं कि दुनियां मेरी कहानी जानें कि यह बच्चा मर रहा है. पूरी की पूरी एक पीढ़ी खत्म हो रही है. ये भूखमरी, बीमारी और ठंड से मर रहे हैं.”- साल 2012 में होम्स शहर पर हमले के दौरान एक इमारत में डेढ़ साल के बच्चे के साथ छिपी सीरियाई महिला का जर्नलिस्ट कॉल्विन को दिए गए इंटरव्यू में.
#tenyearchallenge में फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर आने वाली ज्यादातर तस्वीरें खूबसूरत थी, प्रोग्रेसिव थी. दो तस्वीरों में दस साल के अंतर में तब और अब दिलचस्प लगी. इसके उलट इराक, लीबिया, यमन और सीरिया की फ्रेम वाली तस्वीर पर सबसे ज्यादा वक्त बिता. वजह अघोषित युद्व से उजड़े देशों की इन तस्वीरों ने भीतर तक झकझोरा. यहां भयावह हालात में जिंदगियों को अगर कोई बेहतर ढंग से संबोधित करती है तो वो है ‘अ प्राइवेट वॉर’ फिल्म. जर्नलिस्ट मेरी कॉल्विन (रोजमंड पाईक) की वॉर रिपोर्टिंग पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन मैथ्यू हायनेमेन ने किया है. फिल्म दो लाइनों में इंट्रोड्यूस करवाती है- ‘इराक, अफगानिस्तान से लेकर सीरिया में वॉर पर रिपोर्टिगं करने वाली मेरी कॉल्विन अमेरिकन है और साल 1986 में करिअर की शुरुआत वॉर रिपोर्टिंग से की.’ स्क्रीन पर अगला सीन सीरिया के होम्स शहर का उभरता है, जहां की आलिशान इमारतें हवाई हमलों से अब खंडर में तब्दील हो चुकी है. कहानी होम्स की रिपोर्टिंग से 11 साल पहले यानी 2001 में लंदन से शुरू होती है. कॉल्विन ब्रिटिश मेगजीन द संडे टाइम्स के लिए काम करती है. बॉस कॉल्विन को फिलिस्तीन जाकर रिपोर्टिंग करने का सुझाव देता है। पर वो इंकार करते हुए श्रीलंका के वान्नी शहर पर रिपोर्टिंग की बात कहती है. जो लिट्टे के कब्जे में हैं. उसके खिलाफ वहां की सरकार का संघर्ष जारी है. ये वही शहर है जहां की रिपोर्टिंग पर सरकार ने छह से ज्यादा सालों तक बैन रखा था. इसलिए की हजारों निर्दोष लोगों की हत्या वैश्विक स्तर पर मुद्दा न बन जाए. सुपर पावर में श्रेणीबद्ध देश अपने-अपने हित न साधने लग जाए.

फिल्म जर्नलिस्ट कॉल्विन की बायोपिक है. यहां उनकी पर्सनल और पब्लिक दोनों लाइफ को दिखाया है. उम्र ज्यादा होने के चलते उन्हें बच्चे की ख्वाहिश रह जाती है. लिट्टे नेता थामीसेल्वन का इंटरव्यू कर लौटते वक्त वान्नी के जंगलों में कॉल्विन हवाई हमले में एक आंख की रोशनी खो बैठती है. ये वही साल था जब कॉल्विन को फॉरेन कोरेसपोंडेंट ऑफ द ईयर का ब्रिटिश प्रेस अवार्ड मिला. पति से अलग होने और एक आंख की रोशनी जाने के बाद भी उनका जर्नलिज्म के प्रति उत्साह कभी कम नहीं हुआ. आगे स्क्रीन पर टाइमलाइन फ्लैश होती है. साल 2003, इराक बॉर्डर. यानी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का इलाका. इस्लामिक लड़ाकों द्वारा निशाने बनाए गए वहां के पुरुषों की मौत पर उनकी महिलाओं के मातम को जर्नलिस्ट कॉल्विन, दोस्त मुराद और फ्रीलांस फोटोग्राफर पॉल बेहद करीबी से देखते हैं.
डायरेक्टर मैथ्यू की ये फिल्म एली चॉरकी की निर्देशित हेरिसंस फ्लावर फिल्म की याद दिलाती है. जिसमें पुलित्जर विजेता फोटोग्राफर मिस्टर हेरिसन नब्बे के दशक में युगोस्लाविया वार की कवरेज के लिए जाता है. वहां से उसके मरने की खबर आती है. उस खबर पर उसकी पत्नी मिसिज हेरिसन यकीन करने से इंकार कर देती है. वो अपने पति को ढूंढने अमेरिका से यूगोस्लाविया रवाना होती है. इस जर्नी में उसे बम धमाकों- गोलियों और नागरिकों की चीखती-चिल्लाती आवाजें परेशान करती है. लड़ाकों द्वारा किए गए रेप की घटनाएं उसे स्तब्ध कर देती है. ठीक उसी तरह कॉल्विन को रिपोर्टिंग के दौरान ये सभी दृश्य बैचेन करते हैं. चाहे उसकी जर्नी के पड़ाव के साल 2009 में अफगानिस्तान का मरजाह शहर हो या फिर साल 2011 में लीबिया का मिसराता शहर हो. बाब-अल-अजिजिया पैलेस में लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी कॉलविन से ये कहने से नहीं कतराते कि उनके देश में महिलाओं और बच्चों की हत्याओं के पीछे अलकायदा के लड़ाके हैं. अनगिनत मौतों पर हुक्मरानों की जिम्मेदारी तय नहीं होने पर कॉल्विन वॉर रिपोर्टिंग को प्राइवेट वॉर बना लेती है. साल 2012 में सीरिया के होम्स शहर में लगातार हमलों की वजह बच्चों-गर्भवती महिलाओं की भूखमरी और उपचार के अभाव में हुई मौतों पर सीएनएन-बीबीसी जैसे चैनलों को एक साथ लाइव रिपोर्ट करती है. तब उन नागरिकों की जुबां पर एक ही लाइन थी- ‘हमें हमारे हुक्मरानों-सरकारों ने अनाथों की तरह क्यों त्यागा हुआ है’.

मौटे तौर पर डायरेक्टर मैथ्यू जर्नलिस्ट मेरी कॉल्विन के जरिए युद्ध ग्रस्त देशों की स्थिति को स्पष्ट किया है. फिल्म बताती है कि खुद की सरजमीं पर हम कितने सुरक्षित है? फिर चाहे उस सिस्टम को हमने ही मान्यता दी हो या उस सिस्टम में जबर्दस्ती सत्तासीन होने वाले हो. हमारे हितों की रक्षा नहीं करने वाले हमारी नजरों में सभी विलेन हो जाते हैं? अगर यहां की सरकारें-हुक्मरान विरोधियों के खिलाफ लड़ने में असमर्थ थी तो वे देश खुलकर मदद के रूप सामने क्यों नहीं आए जो खुद को सुपर पावर कहते हैं. बेकसूर लोगों की अमानवीय हत्याओं पर सुपर पावर जैसे देशों की नैतिकता कहां चली गई थी? संघर्ष को नासूर बनने से रोका जा सकता था. लेकिन वहां पर हर देश नीतिगत था. जर्नलिस्ट कॉल्विन ने साल 2012 में जहां आखिरी सांसे ली उस सीरिया देश में उनकी मौत तक 5 लाख लोग जान गवां चुके हैं.

Saturday, 26 January 2019

लूज टॉक पर स्टॉप लगा पाएगी फिल्म ‘सोनी’!



पुलिस की वर्दी, कंधे पर लगे डबल स्टार और आंखों में गंभीर विचार लिए महिला ऑफीसर का ये पोस्टर बेहद अट्रेक्ट करता है. और ध्यान खींचता वो सीन जहां सर्द की रात में सुनसान रास्ते से साइकिल से जाती युवती को एक युवक तंग करता है. पोस्टर और सीन दोनों सोनी फिल्म के हैं. इवान आयर के निर्देशन में बनी ये फिल्म नेटफ्लिक्स की है. लंबे वक्त के बाद ऐसी फिल्म आई है जिसका शुरुआती सीन साल 2012 के दिल्ली निर्भया केस की संभवतः याद दिलाता है. कहानी के केंद्र में दिल्ल पुलिस की दो महिला ऑफीसर है. पहली सोनी और दूसरी उसकी सुप्रीटेंडेंट कल्पना. सोनी अक्सर बदतमिजी से पेश आने वालों पर बिफर पड़ती है. इसलिए नहीं कि वो पुलिस वाली है बल्कि उसने सोसायटी से डील करने के लिए खुद को ऐसा तैयार किया। ये हम उसके सार्वजिनक जीवन के साथ-साथ निजी जीवन में भी देखते हैं.

स्क्रीन पर दर्शक इस इंतजार में रहते हैं कि दोनों ऑफीसरों की इंवेस्टिगेशन से किसी ऐसे केस से भूचाल आएगा जो न जाने कहानी को किस चरम पर ले जाएगा? वो इंतजार एक ऐसी सच्चाई में तब्दील हो जाती है जिसे हम आजतक नजरअंदाज करते ही आए हैं. जी हां, राह चलती महिलाओं पर फब्तियां कसने, सड़क किनारे खड़े युवकों के ग्रुप से महिलाओं के रंग, रूप और सेक्सुअलिटी पर आती आवाजें (लूज टॉक) और महिला आधारित तमाम तरह के गाली-गालौज.  वैसे इस विषय को यहां पर पुरुष तक ही सीमित रखा है. फिल्म में पुलिस द्वारा चलाए गए आसामजिक तत्वों के खिलाफ ऑपरेशन की हिस्सा रही सोनी को युवती के तौर पर ये सब चीजें सताती है. ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेटर हार्दिक पांड्या और केएल राहुल  के कॉफी विद करन शो पर चीयरलीडर्स को लेकर कही गई बातों ने सबको हैरान-परेशान कर दिया था. हमारे यहां महिलाओं पर कमेंट करने वाले पॉलिटिशियन और सेलेब्रिटिज की फेहरिस्त लंबी है. जैसे दिग्विज्य सिंह का महिलाओं पर दिया गया बयानटंच माल या पीएम नरेंद्र मोदी का शशि थरूर की पत्नी  को 100 करोड़ की गर्लफ्रेंड कहना.

डायरेक्टर आयर ने फिल्म को ऑफबीट बनाए रखने में सावधानी बरती है. दो-सवा दो घंटे की कहानी में अलग-अलग बिंदुओं को स्क्रीन पर पेश किया है. चाहे वो उनका पारिवारिक जीवन हो या ड्यूटी और पितृत्तात्मक का प्रेशर हो. अपराधियों और आरोपियों के खिलाफ सोनी के अपनाए गए रवैये की शिकायतें  डिपार्टमेंट के आला अफ्सरों तक पहुंचती है. यहां कल्पना अक्सर सोनी को बचाने के कोशिशें करती है। इसलिए कि डिपार्टमेंट को सोनी जैसे ईमानदार ऑफीसरों की जरूरत है. पर वहीं कल्पना अपने सीनियर ऑफीसर और पति संदीप सिंह के सामने कई जगहों पर शब्दहीन दिखती है. संदीप कल्पना से बार-बार कहता कि तुम जूनियर से इतनी अटैच क्यों हो जाती हो, न जाने हमने तुम्हें आईपीएस चुन ही क्यों.

फिल्म की खासियत यह कि बैचेन कर देने वाले सीन में कोई बैकग्राउंड म्यूजिक या बैकस्टोरी नहीं है. स्क्रीन पर जितना ध्यान खींचती है वो सब अभिनय और डायरेक्शन कैमरे का कमाल है. इस टेक्निक को सिंगल टेक कहते हैं. जो थोड़े लंबे होते हैं पर बोर नहीं करते. क्योंकि कंटेंट रियल लगता है. पुलिसकर्मी की सामान्य जिंदगी कैसी होती है. खासकर महिला की, जब वो किसी केस को डील करती है तो उन्हें ना जाने किन-किन कमेंट्स और प्रेशर का सामना करना पड़ता है. वो सब सोनी के जरिए देखते हैं. वो नेवी ऑफीसर द्वारा शराब पीकर गाड़ी चलाने पर पकड़े जाने पर उसकी दबंगई हो या लेडीज टॉयलेट में ड्रग्स-गांजा लेने वाले युवकों के पीछे पॉलिटिकल पावर. महिलाओं पर फब्तियां कसने और मसखरे मारने का जो कल्चर सड़क और सुनसान जगहों से पनपा अब उससे पुलिस कंट्रोल रूम भी अछूता नहीं लगता.  वहां भी अनजान कॉलिंग से महिलाओं की आवाज सुनने के लिए कॉल आने लगे  हैं.

मर्दवादी सोच पर फिल्में खूब बनीं है. उनके पीड़ित किरदारों के आंतरिक और बाह्य जीवन में लाचारपन और बेबस ही दिखाया. पर डायरेक्टर आयर ने ऐसे किरदारों को पुलिस की वर्दी से उसे ताकतवर दिखाया है. वो भी बिना किसी मुहीम और बदले की भावना के. कभी साथ में रहने वाले नवीन के भरोसा तोड़ने पर सोनी का रवैया दर्शकों को कठोर लग सकता है. लेकिन वो खुद सहज लगती है. कहानी को गहरा करने के लिए किस्सों का इस्तेमाल किया गया है. सोनी की मकान मालकिन उसे छेड़खानी से बचने के लिए सिंदुर लगा कर जाने का सुझाव देती है. आखिर में फिल्म का फेमिनिज्म का टेस्ट तब और तेज हो जाता है जब कल्पना अपने जूनियर ऑफीसर सोनी को फेमिनिस्ट पॉइट अमृता प्रीतम की नॉवले रसीदी टिकट थमाती है.  


Monday, 14 January 2019

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर पर बनी फिल्म क्या डॉ. सिंह की मिनी बायोपिक है?

के सरा-सरा यानी जो होगासो होगा. कांग्रेस की आपत्ति के बाद भी द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म रिलीज हो गई. कुछ दर्शकों (बीजेपी वालों) ने देख लिया और सीना भी चौड़ा कर लिया. और क्रिटिक्स ने द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर किताब आधारित नेमसेक फिल्म की फैक्ट से तुलना भी कर दी. विजय रत्नाकर गुट्टे की निर्देशित फिल्म को मिली-जुली प्रतिक्रियाएं मिली. 2019 के लोकसभा चुनाव नजदीक है. ऐसे में पॉलिटिकल ड्रामा जॉनर की फिल्म का आना और वो भी उस सरकार पर जिसे सत्ता से हटाने के लिए देशभर में मुहिम चली थी. लोकपाल बिल लाए अन्यथा जाए. मुहिम जनता के मूड में बदलाव लाती है और फिल्में दर्शकों में. ऐसी फिल्मों को देखना जरूरी तब और भी हो जाता जब आप उस मुहिम के भागीदार रहे हो. ताकि रील और रियल में फर्क को समझा जा सके. 6-7 साल पहले जब-जब स्क्रीन  और न्यूज पेपर्स में घोटालों-क्रप्शन पर खबरें देखीं-पढ़ीं गई तब-तब जुबां से एक ही लाइन निकली  ये सरकार गिर जाएलोकसभा के मध्यावधि चुनाव हो जाए और इस पीएम का इस्तीफा हो जाए.

भारतीय राजनीति के इतिहास में एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के नाम से दर्ज हो चुके पूर्व पीएम डॉ.मनमोहन सिंह को इस फिल्म में वर्ष 2004 से दिखाया गया है. यहां उनके किरदार में अनुपम खैर है. फिल्म खास पीरियड पर बनी हैइसलिए उस दौर के कैरेक्टर के नाम हूबहू लिए गए है. इसके नैरेटर में संजय बारू (अक्षय खन्ना) है. जो पीएम के मीडिया एडवाइजर की भूमिका में हैं. हम दर्शक कहानी को उन्हीं के नजरीये से देख रहे होते हैं कि दस जनपथ और पीएमओ पर क्या-क्या चर्चाएं हैकैसे समीकरण है और कौन किसकी आवाज है? हॉल में उस वक्त और जोर से ठहाके लगते हैंसीटियां बजती है जब यूपीए-1 को भारी बहुमत के बावजूद सोनिया गांधी (टी सुजैन बर्नर्ट) पीएम का पद स्वीकार करने से इंकार कर देती है और मीडिया को ब्रीफ करने के लिए  राहुल गांधी (अर्जुन माथुर) स्क्रीन पर आते हैं. डायरेक्टर रत्नाकर ने फिल्म को रियल व्यू देने के लिए उस वक्त के फुटेज का इस्तेमाल किया है जिसमें सुषमा स्वराजउमा भारती और बाला साहेब ठाकरे अपने-अपने बयान में पीएम पद पर सोनिया गांधी की दावेदारी को अस्वीकार्य बताया. गठबंधन वाली सरकार के लिए पीएम पद पर सोनिया गांधी डॉ. मनमोहन सिंह के नाम की घोषणा करती है. इस पर शपथ समारोह में अटल जी को लालकृष्ण आडवाणी से मास्टर स्ट्रॉक कहते सुने जाते हैं.

स्क्रीन पर संजय बारू की एंट्री दिलचस्प लगती है. ऐसा लगता है कि मानों अब हम करीब दो घंटे की फिल्म में विपक्षियों के कथित देश के कीमती समय में से दस साल की बर्बादी को देख पाएंगे. मीडिया एडवाइजर के तौर पर संजय पीएम डॉ. सिंह की तरफ से मीडिया को ही टैकल करने में नाकाम लगते हैं. फिल्म में बार-बार उन्हें पीएम की तरफ से स्पीच लिखने का श्रेय मिलता है. पर उसका एक भी नमूना ऐसे किसी सीन में नहीं दिखता जो उनकी इमेज की छाप छोड़ती हो. यहां तक की संसद में पक्ष-विपक्ष के गतिरोध पर पीएम डॉ. सिंह को बोलने की बजाय हंगामे में सिर्फ इधर-उधर ताकते हुए नजर आते हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी वे बेअसर से लगते हैं. हो सकता है संजय रियल में अलग हो पर रील में तो वे पीएम डॉ. सिंह को एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर बनाने में जुटे हुए से लगते हैं. कहानीकार की भूमिका में संजय एक परिवार का पीएम पर हावी बताते हैं. या यूं कहे पार्टी वर्सेज पीएम. कुल मिलाकर ये उसी  धारणा को साथ लेकर चलती है जो साल 2004-14 तक रही. न्यूक्लीयर डील पर कम्युनिस्ट पार्टी की आपत्ति के बाद सोनिया गांधी और पीएम डॉ. सिंह के बीच तनाव दिखाया है. ये सच है कि राहुल गांधी ने मीडिया के सामने सरकार के एक अध्यादेश पर नाखुशी जाहिर की थी. जो बताता है कि सिस्टम में पीएम के अलावा पावर का एक बड़ा सेंटर और भी था.

फिल्म के एक सीन में न्यूक्लीयर डील को लेकर हो रही मीटिंग में शामिल अटल जी स्माइल पास करते है. उस पर वॉइस ओवर होती है-चुप रहकर बोलने में उस्ताद थे वाजपेयी जी. बेहद खास मुद्दे पर उनकी तरफ से किसी राय का न आना कला है. उधर क्रप्शन और घोटालों जैसे तमाम आरोपों पर पीएम डॉ. सिंह को लेकर उन्हें डमी पीएमसाइलेंट पीएममौनी बाबा और पपेट पीएम न जाने क्या-क्या कहा गया. इस आवेश में आकर कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के पूर्व पीएम नवाज शरीफ ने उनको देहाती औरत तक कह डाला था. इनका उन्होंने कभी सीधे तौर पर आलोचना नहीं की. जवाब में इतना ही कहा कि अनगिनत सवालों के  ढेरों उत्तर देने की जगह मेरी चुप्पी ही बेहतर है. यहां तक की यूपीए-2 की सरकार बनने पर उन्होंने खुद का दावा कभी नहीं किया. जबकि  ये जनादेश उन्हीं को मिला था. सीरीज ऑफ स्कॉलरशिप के दम पर पहले कैमब्रिज और बाद में ऑक्सफोर्ड में पढ़ने वाले डॉ. सिंह पहली बार आर्थिक संकट के दौरान स्पॉटलाइट हुए. उसके एक दशक बाद 2004 में  उन्होंने खुद को महत्वपूर्ण जगह पर पाया. लेकिन सरकार में हुए घोटालों के चलते और पार्टी के प्रेशर में खुद के लिए एक शब्द का जिक्र किया एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर. आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इतना ही कहा कि उम्मीद है इतिहास मुझे मीडिया की नजर से नहीं देखेगा.

फिल्म देखने के बाद या देखते वक्त यह कहना गलत नहीं होगा कि ये एक प्रोपेगेंडा नहीं है या एंटी यूपीए ओरियंटेड नहीं है. एक सीन में सोनिया गांधी और पीएम डॉ. सिंह आमने-सामने होते हैं. सोनिया गांधी इतना  ही कहती है कि शायद आप मेरी बात ठीक से समझे नहीं. उसके बाद दोनों के क्लॉज शॉट्स ऐसे दिखाए जाते हैं जैसे कि न जाने दोनों में कितनी नाराजगी हो और पीछे से आती बैकग्राउंड म्यूजिक उसे सही ठहरा रही होती. एक दूसरे सीन में घोटाले की सीएजी रिपोर्ट पर पीएमओ की प्रेस कॉन्फ्रेंस हास्यपद लगती है. जैसे की उन्हें बिठाया ही इसीलिए गया हो. इसके अलावा फिल्म में नीरा राडिया टेप कांड,डॉ. नरसिम्हा राव के निधन पर दफनानेडॉ. सिंह के इस्तीफे की पेशकश और मनरेगा जैसे घटनाक्रमों की झलक देखने को मिलती है. कहा जा सकता है कि जो मकसद वर्ष 2014 में किताब का था अब वहीं मकसद फिल्म का वर्ष 2019 में.

डायरेक्टर रत्नाकर का काम अच्छा है पर उतना उमदा नहीं जितनी कि पॉलिटिकल ड्रामा फिल्मों से उम्मीद होती है. लेकिन डॉ. सिंह के पीएम रहते दस सालों और उनका पार्टी सुप्रीमों सोनिया गांधी के साथ संबंधों को लेकर बनी इस फिल्म के पॉलिटिकल पार्ट में उन्होंने किरदारों से बाखूबी काम लिया है. स्क्रीन पर अटल जीआडवाणी जीअहमद पटेलप्रियंका गांधी,  कपिल सिब्बल जैसी शख्सियतों को देखना अच्छा लगता है. किताब या इस फिल्म को लेकर डॉ.सिंह की तरफ से कोई बयान नहीं आया है या उन कृतियों के विचारों पर सहमति नहीं जताई है जिससे कि इस कहानी को बायोपिक के कैटेगरी में रख सके।



Saturday, 5 January 2019

CM की सुपारी लेने वाला वो गैंगस्टर जो लवर, बिजनेसमैन और पॉलिटिशियन बनना चाहता था : रंगबाज


ट्रेलर में मिलियनों व्यूज बटोरने वाली रंगबाज वेब सीरीज ऑन डिमांड वीडियो प्लेटफॉर्म ZEE5 पर आ चुकी है. रंगबाज क्राइम और पॉलिटिक्स के टेस्ट में नेटफ्लिक्स की सेक्रेड गेम्स और प्राइम अमेजॉन के मिर्जापुर जैसी वेब सीरीज सी लगती है. कोई नॉवेल न सही पर सच्ची घटना से प्रेरित इस वेब सीरीज का निर्देशन भाव धूलिया ने किया है. नौ एपिसोड वाली ये सीरीज भारत की पहली वेब सीरीज है जो स्पेशल बैकड्रॉप (90 के दशक) पर बनी है. कहानी शिव प्रकाश शुक्ला (साकिब सलीम) नाम के ऐसे गैंगस्टर की है जो पुलिस से बचने के लिए शहर-दर-शहर बदल रहा है. फैक्ट्स के तौर पर डायरेक्टर ने जो दिखाया है उसकी शुरुआत गाजि़याबाद में एसटीएफ के उस ट्रेकिंग रूम से होती है, जहां गैंगस्टर शुक्ला को पकड़ने के लिए उसके कॉल्स की मॉनीटरिंग होती है. एक मंत्री और दो एमएलए समेत 20 की हत्या करने वाले गैंगस्टर शुक्ला के कॉलेज के शुरुआती दिन सामान्य युवा सा रहता है. वह क्लासेज से बंक मारकर सिनेमा देखता है. बहन की सहेली को मन ही मन पसंद करता है. उसे इशारे से हाय भी करता है. सीरीज के शुरुआत में हम देखते हैं कि पुलिस को चकमा देकर भाग जाने वाला गैंगस्टर ताकतवर, बड़ी एप्रोच रखने वाला और भिड़ने के लिए हमेशा तैयार रहता है. जैसा की साल 2005 में कबीर कौशिक की निर्देशित फिल्म शहरमें रियल कैरेक्टर श्रीप्रकाश शुक्ला का किरदार निभाने वाले गैंगस्टर गजराज (सुशांत सिंह) को देखते हैं. लेकिन वेब सीरीज में श्री प्रकाश शुक्ला के गैंगस्टर बनने की कहानी दिखाई गई है. जिसमें शिव प्रकाश शुक्ला बहन को छेड़ने वाले की हत्या कर देता है. गिरफ्तारी से बचने के लिए स्थानीय विधायक रामशंकर तिवारी की सह पर लखनऊ टू मुंबई, फिर मुंबई टू बैंकॉक चला जाता है.

काम ऐसा करो कि सब देखें और हमेशा याद करें- गैंगस्टर शिव प्रकाश शुक्ला



डायरेक्टर धूलिया की तारीफ करनी होगी. उन्होंने वेब सीरीज में क्राइम और पॉलिटिकल रेशो बराबर का रखा है. दर्शकों को इसका पॉलिटिकल फ्लेवर भी पसंद आएगा. गैंगस्टर शिव प्रकाश शुक्ला के बिहार कनेक्शन को नब्बे के दशक में वहां के राजनीतिक संघर्ष के जरिए परोसा है. चौथे एपिसोड में साल 1995 की राजनीतिक सरगर्मियों के दौर को शॉट्स के अलग-अलग हिस्सों में बिहार के सुशासन बाबू नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान को अपनी- अपनी रैलियों-सभाओं को संबोधित करते हुए दिखाया है. तब चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे अवध बिहारी ने बाहुबली नेता चंद्रभान सिंह को दुश्मन बना लिया था. यहां चंद्रभान सिंह की भूमिका में एक्टर रवि किशन है. जो जेल में रहते हुए अपना नेटवर्क और बिजनेस दोनों चलाता है। उधर गोरखपुर में रामशंकर तिवारी के धुर विरोधी ठाकुर नेता नरेंद्र शाही की भीड़ के बीच हत्या कर शिव प्रकाश शुक्ला प्रदेश के पटल पर छा जाता है। चंद्रभान सिंह अवध बिहारी की हत्या के लिए शिव प्रकाश शुक्ला से डील करता है. फिर इस तरह से गैंगस्टर शुक्ला और उसके गैंग को न सिर्फ फंडिंग होती बल्कि पुलिस की गिरफ्त से बचने के लिए इनपुट भी मिलते हैं. आगे गैंगस्टर शुक्ला का अपराधिक ग्राफ बढ़ता चला जाता है.

बहुत नाम कमा लिए तुम, तुम्हारा स्टोरी पटना तक पहुंच गया है. – बाहुबली नेता चंद्रभान सिंह

वेब सीरीज के एक पॉर्शन को जहां रवि किशन ने संभाला है तो दूसरे पॉर्शन को तिगमांशु धूलिया ने संतुलित रखा है. यहां वो रमाशंकर तिवार के किरदार में है. जो खुद को ब्राह्मणों के नेता के तौर पर स्थापित किए हुए हैं. इसलिए वे शुरुआत में शिव प्रकाश शुक्ला की मदद भी करते है. इसके पीछे की साफ वजह भी है कि शुक्ला को अपना आदमी बनाकर खुद के राजनीति की धार को और तेज कर सके. गोरखपुर पर खुद का वर्चस्व बना सके. कहानी में कहीं जातिगत राजनीति और आरक्षण की बात हावी लगती भी है तो उसके फैक्टर तिगमांशु धूलिया ही है. अनुभवी एक्टर और डायरेक्टर के तौर पर तिगमांशु धूलिया का यहां वेब सीरीज में वो कॉन्सेप्ट भी नजर आता जिसे वे फिल्म हासिलमें लेकर आए थे. जो छात्र राजनीति से शुरू होकर विधानसभा पहुंचती है. जिसका मकसद एक ही है सिस्टम में पहुंच कर पीछे के सभी अपराधों पर परदा डालना. आज भी हम अपनी संसद और विधानसभाओं में कानून बनाने वालों की संख्या पर नजर डाले तो ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा है जिन पर गंभीर अपराधिक मुकदमे दर्ज है.


हम तुमको अर्जुन बनाना चाह रहे थे, तुम्हारे अंदर तो दुर्योधन का खून बह रहा है- विधायक राम शंकर तिवारी

पूरी सीरीज में ये बात बार-बार दोहराई गई है कि शिव प्रकाश शुक्ला और उसकी गैंग के काम करने का तरीका अलग है, एकदम नया है. ये बात पुलिस भी कहती है, पॉलिटिशियन और अन्य दूसरे अपराध जगत के लोग भी कहते हैं. उसके मिजाज में आशिकपन भी है और रेलवे टेंडर के जरिए बिजनेसमैन बनने की चाहत भी. पर वर्चस्व की लड़ाई में सीएम की सुपारी लेने वाले इस गैंगस्टर में कुछ अलग तरह का नयापन कहीं नहीं दिखता. ये अपेक्षित है. अगर कहा जाए की नयापन उसका तेवर है. उसका बेखोफ होकर रहना है या किसी दुश्मन को घेरकर मार देना या फिर रिवॉल्वर से भीड़ में किसी की जान ले लेना नया है तो वो समझ से परे. ऐसा कौन सा गैंगस्टर होगा जिसे ये मालूम होते हुए भी कि उसके पीछे एसटीएफ की टीम हाथ धो कर पड़ी है और उसकी कॉल ट्रेकिंग पर न हो. बार-बार उसके अलग-अलग ठिकाने पर एसटीएफ की दबिश होती है और वो उसे दरकिनार कर लगातार फोन पर प्रेम प्रसंग को जारी रखता है. हो सकता है डायरेक्टर धूलिया ने इसे मॉडर्न एज के हिसाब से स्टोरी के फैक्ट और फिक्शन के केंद्र में उनके दर्शक हो. गैंगस्टर की गर्लफ्रेंड के तौर पर सीजन-1 में अहाना कुमरा के पास कुछ खास एक्शन या डायलॉग नहीं है सिवाय फोन पर प्रेम प्रसंग में एक युवती के. फिल्म लिपिस्टिक अंडर माय बुर्कामें अहाना खुले मिजाज की और एक आत्मनिर्भर लड़की दिखी थी. वहां उन्होंने लाइफ पार्टनर को लेकर अपनी पसंदगी की छाप छोड़ी थी. शुरू से लेकर आखिर तक डिटेक्टिव के रोल में रहे ऑफीसर पांडे कुछ खास प्रभावित नहीं कर पाते हैं. उनके पास गैंगस्टर को पकड़ने के लिए टीम से मिले इनपुट के अलावा अन्य कोई दूसरा सोर्स ही नहीं है. स्क्रीन पर दर्शक उनमें उम्मीद कम निराशा के साथ ज्यादा देखते हैं. इसकी वजह भी है कि ऑफीसर पांडे जितनी फोर्स और मशीनरी मांगता है उसके अनुरुप डिपार्टमेंट से वो सब नहीं मिल पाता है. ये सच्चाई भी है कि अपराधियों के पास एक से बढ़कर एक आधुनिक हथियार है. पुलिस आज भी अपराधियों से मुकाबला डंडे और पुरानी भारी रायफल से ही करते हैं. हाल ही में यूपी में मुठभेड़ के वक्त एएसआई ऑफीसर की रिवॉल्वर फेल हो गई, तब उसने मुंह से ठांय-ठांय की आवाज निकाली और वो वीडिया खूब वायरल हुई थी.  


कुल मिलाकर डायरेक्टर धूलिया  इस वेब सीरीज को 90 के दशक की पृष्ठभूमि पर दिखाने में कामयाब रहे हैं. चाहे वो गाड़ियों का  इस्तेमाल हो या कॉल ट्रेकिंग रूम, जहां घंटों वक्त बिताने पर हल्का सा सिग्नल आता है. उस दौर के टेक्नोलॉजी की वास्तविकता दिखाई है. दर्शक खुद को इस सीरीज के साथ काफी हद तक सहज पाएंगे जिन्होंने सेक्रेड गेम्स और मिर्जापुर में डबल मीनिंग, अपशब्दों और अश्लीलता को लेकर आलोचना की थी. 


अनवर का अजब किस्सा : ड्रिमी वर्ल्ड का वो हीरो जो मोहब्बत में जिंदगी की हकीकत से रूबरू हुआ

बड़ी ही डिस्टर्बिंग स्टोरी है...एक चर्चा में यही जवाब मिला. डायरेक्टर बुद्धदेव दासगुप्ता की नई फिल्म आई है. अनवर का अजब किस्सा. कहानी-किस्स...