Sunday, 30 September 2018

एडल्टरी पर लिखे नॉवेल ‘छोर’ में महिला साथी की वो चिट्‌ठी क्यों पढ़ी जानी चाहिए?

रेलगाड़ी में जैसे-जैसे बंबई की ओर बढ़ रहा था तब जानती हो, कलेजा पीछे मैसूर की ओर खिंच रहा था! मैसूर का मतलब तुम.  वरना, बंबई में ही रह जाता. नवीन ने बड़ा आग्रह किया. कहा कि यहीं रह जाओ, तुम जितना कर सको उससे बढ़कर यहां काम है. खाने के टेबल पर सोमशेखर और अमृता के बीच बातचीत का ये अंश नॉवेल ‘छोर’ का है. दोनों एडल्टरी रिलेशनशिप में हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक फैसले में अवैध मानने से इंकार कर दिया. सोमशेखर और अमृता के बीच विश्वास, चाहत, केयरिंग और उदारता है. जो उस रिश्तें में खाद-पानी का काम करते हैं. फिर भी ये रिश्ता समाज-परिवार के डर के साये में गिनती की सांसे लेता मालूम होता है.

डॉ. एस.एल भैरप्पा का ये नॉवेल साल 1992 में आया. तब भारत में एडल्टरी रिलेशनशिप शब्द का इस्तेमाल मुखर नहीं था. लेकिन सामाजिक व्यवस्था में थे और अवैध ही थे. इसी दौर में देश कैपिटलिज्म के ट्रेक पर बढ़ा. आर्थिक निर्भरता ने समाज की बहुत सी वर्जनाएं तोड़ी. उनमें से एक एडल्टरी रिलेशनशिप भी रहा. नॉवेल मैसूर शहर के बाहरी ललित महल रोड पर बने पुरानी इमारत से शुरू होती है. बारिश का सीजन शुरू होने को है. घर की मालकिन डॉ. अमृता छत के बीचों-बीच बनी दो दरारों को लेकर चिंतित है. उससे भी ज्यादा चिंता की बात ये कि मरम्मत पर 30 हजार रुपए खर्च होंगे. बाद में आने की बात बोल कर एक महीने बाद अमृता आर्केटेक सोमशेखर के पास आती है. और छत की दरारों में सुर्खी डलवाने को मजबूर हो जाती है. सोमशेखर क्लाइंट अमृता की आर्थिक हालत को उसकी पुरानी इमारत से पहचान जाता है. और फिर एक महीने बाद पुन: आई अमृता उसकी सलाह पर मुहर लगा जाती है. इसलिए वो उसे अस्थाई रूप से डामर भरवाने की सलाह देता है. खर्चे के नाम पर 500-600 रुपए की लागत है. साधारण काम बता सोमशेखर फीस लेने से इंकार कर देता है. पहली बारिश में पानी छत से नहीं टपका. ये बात अमृता सोमशेखर को फोन पर बताती है और चाय पर इनवाइट करती है. पहली दफा सोमशेखर टालमटोल कर मना करने का विचार करता है लेकिन अमृता को सीधे जवाब देने की अपेक्षा में आने के लिए हां बोल देता है.  पर उस रोज सोमशेखर चाय पर नहीं आता है. और उसके नाम बैंगलोर जाने की बात लिखकर चिट्‌ठी छोड़ देता है।

 लेखक भैरप्पा ने सोमशेखर और अमृता की पहली मुलाकात को फ्रेश तरीके से लिखा है. जबकि दूसरी मुलाकात सहज और परिचित लगती है. और फिर आगे सोमशेखर की ऑफिस का लंच टाइम से लेकर शाम के 4 बजे तक का वक्त अमृता के घर के रजिस्टर में दर्ज होने लगता है. ये वक्त दोनों के लिए उपर्युक्त होता है. ऑफिस में सोमशेखर का असिस्टेंट नीलकंठप्पा लंच करके आ जाता था. कन्नड साहित्य की प्रो. डॉ. अमृता कॉलेज में पढ़ा कर आ जाती थी. उधर, उसके बच्चे विजय (7) और विकास (4) स्कूल में होते थे. ये कहना गलत न होगा कि किसी पुरुष के द्वारा सहज भाव से दिए गए जरा से सहयोग के चलते ही बहुत बार स्त्रियां प्रेम के तीव्र आवेग की स्थिति में पहुंच जाती है. तीसरी मुलाकात में दोनों पास की चामुंडी पहाड़ी पर कार से घूमने निकल जाते हैं. यहां अमृता-सोमशेखर और भी करीब आ जाते हैं. पाठक दोनों के अतीत के बारे में जानते हैं. कहते हैं न वर्तमान और भविष्य के संबंधों की डिपेंडेंसी अतीत पर टिकी होती है. सोमशेखर का बंबई में 12 साल गुजारना. वहां पत्नी के जिंदा रहते हुए भी एक अन्य महिला के साथ संबंध में रहने वाली सारी बातें बता देता है. दरअसल होता क्या है कि ‘हम जिस व्यक्ति के प्यार में होते हैं और पता चलता है कि उस व्यक्ति का किसी और के साथ संबंध था तो कोई उसे बर्दास्त नहीं कर पाता’. पर ये सच्चाई उस भावी रिश्ते के लिए ठोस आधार का काम करता है. पति रंगनाथ के जिंदा रहते हुए भी अमृता का सोमशेखर के साथ एडल्टरी में रहने की वजह उसका अकेलापन नहीं है. वजह उसकी पति की शख्सियत को लेकर है. दो बच्चों की मां होने बाद भी अमृता उस संदेह को दूर नहीं कर पाई थी कि चाची द्वारा उसके एस्टेट को कब्जाने में उसके पति रंगनाथ का भी हाथ है. अमृता के नाम पर जो एस्टेट मैसूर और उसके बाहरी इलाके में हैं उसे वो अपने नाना के विरासत में मिली होती है. बचपन में नाना फिर मां की मौत के बाद पिता ने विरासत को अच्छे से संभाला. चाची के घर में आने के बाद उनका प्यार और दुलार अमृता को हमेशा झूठी ही लगी. एक रोज पिता की भी मौत हो जाती है. एस्टेट को हथियाने के उद्देश्य से ही चाची ने अमृता की शादी अपने भाई रंगनाथ से करवा देती है. रंगनाथ जिसने पढ़ाई भी एस्टेट के डोनेशन से की होती. यही असहजता अमृता को रंगनाथ से दूर कर देती है और सोमशेखर से मिलने के बाद उसके करीब.

सोमशेखर का अमृता के लिए सोमू बनना और अमृता का सोमशेखर के लिए अमू बनना

‘पति-पत्नी और वो’ में पत्नी और वो के बीच के रिश्ते को हमेशा जरूरत की नजर से देखा गया है. फिर पूछना ये भी चाहिए ऐसा कौन सा रिश्ता है जहां जरूरत निहित न हो. पढ़ते वक्त लगता ही नहीं कि आप किसी जरूरत के संबंध पर लिखी नॉवेल पढ़ रहे हो. लेखक भैरप्पा की लेखन कलात्मकता है की ये दो अनुभवी प्रेमियों की मैच्योर कहानी की बजाय अधपक्की लगती है. हर बात में नयापन है. खूब सारा ड्रामा है. पर फीलिंग सच्ची है.  नॉवेल में कई बार सोमशेखर-अमृता के बीच खूब सारा और बार-बार तनाव और तकरार होता है. फिर कुछ देर बाद सब सामान्य हो जाता है. अमृता के भाव शून्य होने पर लाइसेंसशुदा रिवॉल्वर से, पंखे से लटकर, नशीली गोलियां खाकर या कन्ननबाड़ी बांध में कूदकर आत्महत्या की पहल करते ही सोमशेखर के फोन की घंट बज जाती है या फिर वो खुद ही स्कूटर पर चला आता है. तो कभी बच्चों के अनाज हो जाने और रिवॉल्वर की आवाज से उनके उठ जाने के भाव से खुद रोक लेती है. अमृता के तुनकमिजाज और समर्पण के बीच आकार में कोई फर्क नहीं है. नॉवेल का वो अनापेक्षित हिस्सा, जहां अमृता सोमशेखर पर हाथ उठा देती है. पर अमृता के मान-मनौव्वल के बाद अपमानित सोमशेखर सहज हो जाता है. इसलिए की वो अमृता के मिजाज से वाकीफ और शायद प्यार में भी. इस सामाजिक नाम-पहचान से अलग प्यार की दुनिया में प्यार का दिया नाम भी होता है. अमृता सोमशेखर को सोमू पुकारती है तो सोमशेखर अमृता को अमू.

नॉवेल में अमृता का कैरेक्टर प्रभावित करता है. वो खुद को सुपीरियर समझती है। उसका सेंस ऑफ ह्यूमर उस वक्त भी झलकता है जब वह सोमशेखर के बंबई वाली महिला के संबंधों को बारीकी से पूछती है। वो यहां तक कहती है कि ‘ सोमू मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जान लेना चाहती हूं. ‘मैं जानती हूं मैं तुम्हें वो खुशी कभी नहीं दे पाई’. हो सकता है लेखक ने अमृता को फेमिनिज्म की शक्ल देनी चाही हो. पर अमृता की वो चिट्‌ठी अच्छी लगती है जब अबॉर्शन करवाने के बाद उस अजन्में शिशु के गुमनाम पते पर खत लिखती है। उस खत में उसकी मानवता, और मातृत्व की झलक दिखती है। खुद को हत्यारिन कहती है सिर्फ समाज-परिवार के डर से. लिखती है- ‘ तुमने जो जीव रूप लिया वह धोखे से नहीं था. सावधानी की सीमा के पार उत्साह के क्षणों में तुम्हारा अवतरण हुआ था’. उम्मीद की जानी चाहिए कि कानून का ऐसे संबंधों को अवैध मानने से इंकार कर दिए जाने पर इस तरह की हत्याएं अब नहीं होनी चाहिए. इसका फैसला महिला पर ही छोड़ी देनी चाहिए. बदले की भावना में उन हत्याओं पर भी रोक लगेगी जिसे हम दर्शक फिल्म रूस्तम और नॉट अ लव स्टोरी में देखते आ रहे हैं.

Tuesday, 25 September 2018

आपके शहरों की नुमाइंदगी करती फिल्म- बत्ती गुल मीटर चालू

सोशल ड्रामा पर फिल्म आई है. नाम है बत्ती गुल मीटर चालू. डायरेक्ट किया है श्री नारायाण सिंह ने. कहानी उत्तराखंड के टिहरी के तीन पक्के दोस्तों की. एसके यानी सुशील कुमार पंत (शाहिद कपूर), ललिता नोटियाल (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (दिव्येंदु शर्मा). कहानी में दो लड़के और एक लड़की है तो लगता है कि डायरेक्टर लव-इमाोशंस की बात करेगा. फैमिली ड्रामा क्रिएट करेगा. और सफलता-असफलता की बात करेगा. त्याग और समर्पण दिखाएगा. ये तो ठहरी प्रिडिक्शंस. लेकिन यहां दोस्तानें के इस रिश्तें में एक लड़का प्यार में हैं, दूसरा लड़का इससे अनजान और लड़की दोनों में हसबैंड मटीरियल ढूंढ रही है. पर सब कुछ अव्यक्त है. फिल्म एसके के घर के अंधेरे वाले सीन से शुरू होती है, जहां बत्ती गुल है. यहां ये सीन भी फिल्म के टाइटल की ब्रांडिंग करता है. शहर का हर मोहल्ला एक प्रतियोगिता में जुटा है. इसलिए कामकाज के हिसाब से बत्ती जरूरी भी नहीं. ब्लैक आउट के बीच जुटे लोगों की आवाज और कमेंट्री डायरेक्टर शरत कटारिया की फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ की याद दिलाती है. ज्यादातर कहानियों की तरह यहां भी हीरो एसके पूरब टोले से आता है और जीत जाता है.
भारत की कोई भी हिंदी फिल्म, फिल्म नहीं होती, वह केवल सफलता की तलाश होती है. डायरेक्टर श्री नारायाण ने पिछली फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ का फॉर्मूल ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ में भी अपनाया है. जी हां जन-जन की बात. दरअसल शहर अघोषित पावर कट और लगातार बिलों में बढ़े दामों से परेशान है. यानी हरेक घर की कॉमन प्रॉब्लम. जिसका कोई ठीक-ठाक सॉल्यूशन नहीं है. हर कोई अनिश्चितता से भरा है. उधर उन तीनों दोस्तों में करियर सेट करके शादीशुदा जिंदगी बीताने की बातें हैं. स्क्रीन पर जितनी खूबसूरती पहाड़ों की है उतनी इन किरदारों के बीच डायलॉग बाजी की. ज्यादातर बातों के पीछे ‘बल’ शब्द का इस्तेमाल है. जो अखरता नहीं पर इसे जान लेने काे मन बेताब रहता है. दो-तीन जगहों पर ‘लाटा’ शब्द भी सुनाने को मिलता है. दबंग सीरिज के सलमान खान और जॉली एलएलबी-2 के अक्षय कुमार का मिक्सअप कहूं तो यहां वो शाहिद कपूर में देखने को मिलता है. जो दोस्तों के बीच वकालत नहीं चूने की दुकान से पहचाना जाता है. कानूनी ज्ञान के दम पर छोटे-मोटे व्यापारियों को ब्लैकमेल करता है. फिल्म के हर सीन में एक्शन में रहता है. इसलिए उनकी यहां एक्टिंग लीक से हटकर लगती है. पिता के रिटायर्ड फंड और लोन के बूते सुंदर प्रिंटिंग प्रेस की स्टार्टअप कंपनी शुरू करता है. वो क्रांति नहीं शांति में विश्वास करता है. जिंदगी में अभी तक जो भी काम किए हैं नियम के मुताबिक ही किए हैं. इसी ईमानदारी की ललिता नोटियाल भी कायल है. ललिता अपने दोस्तों के बीच नॉटी नाम से पुकारी जाती है. हसबैंड मटीरियल का ऑप्शन होने के चलते नॉटी दोनों के साथ वन-वन वीक का डेट करती है. डेटिंग के वक्त नॉटी को सुंदर और भी पसंद आ जाता है. पर जिस दोस्ती की छतरी को ये तीनों ताने हुए होते हैं उसमें छेद हो ही जाती है. नॉटी का सुंदर के साथ जाना एसके को नागवार गुजरता है. और वह दूर रहने लगता है.
फिल्म का टाइटल ही  फिल्म की कहानी के लिए स्पॉइलर है. कुछ भी नहीं छिपता. लाखों का बिजली बिल बनकर जब कंपनी के नाम आता है तो सुंदर परेशान हो जाता है. उपभोक्ता मंच शिकायत केंद्र और विद्युत विभाग के चक्कर लगाता है. पर नतीजा शून्य रहता है. लगातार लाखों के आने वाले बिजली बिलों के मलबे में भीतर ही भीतर दबकर क्षत-विक्षत होता रहता है. एसके की मदद से इंकार पर एक रोज रोड के रास्ते गंगा में कूदकर जान देता है. अगर इसकी तुलना कर्ज में डूबे किसानों के सुसाइड से करें तो कोई अन्याय नहीं होगा. सुंदर की मौत का कसूरवार एसके खुद को मानता है. यहां सिस्टम के खिलाफ बदला लेने की भावना जागती है. जो अभी तक जुबां पर आ चुकी होती, बिलों का अंबार आकंठ तक चढ़ चुका होता है. लेकिन घर से निकल कर सड़क से लेकर कोर्ट तक की लड़ाई अस्तित्व में नहीं आई होती है. एसके पावर सप्लाई करने वाली कंपनी एसपीटीएल के खिलाफ कोर्ट में पिटीशन डालता है. फिर कोर्टरूम के भीतर जो होता है वो बेहद दिलचस्प है. बहस काफी हद तक जॉली एलएलएबी-2 की याद दिलाती है, जहां प्रोजीक्यूटर अक्षय कुमर का मजाकिया अंदाज डिफेंस लॉयर के हर दांव-पेंच व तर्क को खारिज करते अपने पक्ष को मजबूती से रखता है. ठीक यहां भी एसके सामने वाले वकील पर 20 साबित होता। कुछ दर्शक हैरान होंगे कि कोर्टरूम की गंभीरता ही खत्म कर दी गई है, जैसा कि सुनवाई से पहले जज का क्रिकेट मैच अपडेट लेना व एसके का डिफेंस लॉयर की नॉवेल साधु, सरिता और सेक्स को लेकर अचानक कुर्सी पर चढ़कर सबूत की तरह चारों तरफ दिखाना. हो सकता है ये डायरेक्टर का समझौता हो और फिल्म के मिजाज के अनुरूप हो. पर एसके का बहस के वक्त ‘लोड बढ़ा है आधार नहीं’ डायलॉग फिल्म की जान बन जाती है. तमाम विकास के दांवों के बीच ये फिल्म आजादी के 70 साल पहले के हालात का जिक्र कर जाती है। या यूं कहे अापके शहरों की नुमाइंदगी कर जाती है। दरअसल इसकी मार हर बड़ा-छोटा भुगत रहा है. एक-डेढ़ दशक में अाबादी, कंपनियां और कंज्युमिंग पावर बढ़ी है पर सर्विस देने के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है. चाहे वह दिल्ली, नोएडा, गुड़गांव, मुंबई, चेन्नई व कोलकाता हो. हर शहर में बिजली-पानी और ट्रैफिक के आगे इंसान की लाचारी है.  

Monday, 17 September 2018

लव इमोशंस का हाई वोल्टेज है फिल्म मनमर्ज़ियां

बेपरवाही से एक-एक छत टाप जाने की चाहत तो उस लहराती कटी पतंग की डोर को थाम लेने में होती थी. ऐसा ही जुनून मनमर्ज़ियां में विक्की (विक्की कौशल) को देखकर महसूस होता है. वो इश्क में है. रूमी (तापसी पन्नू) से मिलने के लिए विक्की अमृतसर की छत्ते दनादन टापता चला जाता है. शहर में दोनों का रिश्ता और इश्क जगजाहिर है. पर अक्ल में डालने वाली बात तो ये हैं कि समाज-परिवार में लड़के-लड़कियों के ऐसे रिश्तें को कम ही अहमियत दी जाती है या उसे खुले तौर पर स्वीकारा जाता है. जब विक्की के लिए रूमी के घर का रास्ता सीधे दरवाजे से न होकर छत का बनता है तो वो सीन और भी जबर्दस्त हो जाता है. और प्यार की इस बुनावट में दर्शक भी सहज हो जाते हैं.

मनमर्ज़ियां फिल्म को डायरेक्ट अनुराग कश्यप ने किया है. फिल्म लव स्टोरी बेस्ड है. विक्की एक डीजे स्ट्रगलर है. प्रोफेशन के अनुरूप अपने लुक को सेट किया हुआ है. मोहॉक हेयरस्टाइल, हाथ में टैटू, आंखों में काला चश्मा और चलने के लिए ब्लैक ओपन जिप्सी. जितनी तेजी उसकी ऑडियों प्ले की साउंड में हैं उतना ही तेज उसका इश्क रोमांस हैं. पर सब कुछ रूमी के आगे थोड़ा कमजोर पड़ जाता है. रूमी विक्की से एक कदम आगे हैं. बेबाक, बिंदास और आक्रामक है। अपने प्यार को लाइफ पार्टनर बनाने के लिए कमिटिड है. इसके लिए तो वह परिवार के सामने मजबूती से बात रखती है. फिल्म शुरुआत से ही काफी तेज चलती है. थोड़े से वक्त में सारे हालात बता देती है. और ये अच्छा भी है. वरना ज्यादातर फिल्मों में ऐसे सीन इंटरवल के बाद दिखाया जाता है या फिर फिल्म के खत्म होते-होते. तब हम दर्शक भी आगे की स्टोरी जान नहीं पाते. सिवाय इसके कि उनका एक-दूजे का होना. लेकिन डायरेक्टर कश्यप यहां मनमुताबिक कहानी लेकर आए हैं.  रूमी की शादी की बात छिड़ती है तो वो थमती ही नहीं. फिर उसके साइड में स्टोरी चलती है. शादी की बात के लिए रूमी के घर पर आने की. रूमी विक्की से बोलती है कि- “अगर  तू बात करने के लिए घर नहीं आया तो वह किसी भी उल्लू के पट्‌ठे से ब्याह कर लेगी”.  लेकिन विक्की इस जिम्मेदारी से हट जाता है. बहाने बनाता है. कहता है- ‘‘हम प्यार तो करते हैं ही फिर शादी करने की जरूरत क्या है’’. इधर रॉबी (अभिषेक बच्चन) की एंट्री होती है। लंदन से आता है। जो बैंकर है और मां-बाप की जिद पर अरेंज मैरिज के लिए तैयार हो गया है. रॉबी के लिए भी हां बोल देने का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं कि मां की सुझाई किसी नौकरानी, एस्कॉर्ट या फिर नर्स से शादी कर ले. वो अपनी पसंद का लाइफ पार्टनर चाहता है. यहां से फिल्म मनमर्ज़ियां तीनों किरदारों के लिए मन की मर्जी लगती है.

स्क्रीन पर ज्यादा देर तक देखने का मन होता है तो वह रूमी को. वो मुखर है. विक्की की नापसंद हरकत पर उसे थप्पड़े लगाती है, हॉकी से मारती है. गुस्सा होने पर तीखे पानी में गोलगप्पे खाती है. रनिंग करती है. अपने प्यार को एक और मौका देने के लिए विक्की संग घर से भाग जाती है. पर वहीं परिवार की लाज बचाने के रॉबी से शादी कर लेती है. एक ऐसा जीवन जिसका प्रेम खत्म नहीं हुआ और शादी का शुरू हो गया.  स्क्रिप्ट का एक हिस्सा, जहां रूमी विक्की को पिटती है, दुतकारती है, दुकान और घर से बाहर निकलवाती है. और फिर टूटकर उससे प्यार करती है. इसे लेखक डॉ. एस.एल भैरप्पा के नॉवेल ‘छोर’ में भी देखा जा सकता है, जहां अमृता व्यभिचार (एडल्टरी) में रहते हुए सोमशेखर के साथ ऐसा करती है। ऐसा करने के पीछे अमृता की तरफ से नॉवेल में ये अभिव्यक्त किया गया है कि उसके द्वारा सोमशेखर के प्रति समर्पण करने के बाद भी ये अहसास होता है कि सामने वाला उतना समर्पित नहीं है, उस पर अधिकार नहीं जताता है. इससे उपेक्षित होकर वो खीझ बार-बार बाहर आती है.

आखिर रूमी विक्की के उस प्यार में हैं, जहां उसका प्यार बढ़ता ही जा रहा है. छोटी बहन के पूछने पर रूमी कहती है कि ‘‘ ये वो वाला प्यार है जिसमें जितना करो न कम पड़ता है’’.  इसलिए रॉबी से शादी के बाद भी उसे भूला नहीं पा रही। उधर विक्की के साथ भी ऐसा ही होता है. बगैर रूमी को याद किए, उसकी बात किए और उसकी इश्क की गलियों में आए बिना नहीं रह पाता। मर जाने की बात तक कह डालता है. शादी के बाद भी विक्की का रूमी को उसी शिद्दत से चाहने की वजह है कि रूमी अभी भी उसे दिल-दिमाग से नहीं निकाल पाई है. वो जानता है कि रूमी चाहे तो वो दोनों फिर से एक साथ रह सकते हैं. यहां डायरेक्टर कश्यप ने रॉबी को, ‘हम दिल दे चुके सनम’ में अजय देवगन की भूमिका में रखा है, जहां अपनी पत्नी के किसी दूसरे मर्द के साथ प्रेम में बने रहने के बावजूद उसके साथ बना हुआ हुआ. इसे सहन करने की ताकत भी इश्क से ही मिलती है. अभी तक फिल्मों में प्यार की पहचान लड़ाई कर उसे पा लेने की होती थी या फिर खुद की कुर्बानी देकर। हमने ‘दिलवाले’ जैसी कई प्रेम कहानी आधारित फिल्मों में देखा है कि हीरो प्यार के लिए लड़ता है. हमने ‘कल हो न हो’ या ‘आशिकी-2’ जैसी फिल्मों में ये भी देखा है कि प्यार को बचाने और उसकी खुशी के लिए हीरो त्याग व खुद की कुर्बानी तक दे डालता है। दोनों ही स्थितियों को आदर्श के तौर पर अपनाया गया। लेकिन मनमर्ज़ियां में रॉबी को देखकर लगता है इसे सीधा रखने की कोशिश की गई है. कोई झुकाव किसी की तरफ नहीं है. अब देखने वाली बात ये हैं कि क्या इस कैरेक्टर को आदर्श की पहचान मिल पाएगी?





Saturday, 15 September 2018

सिंगल कमरे में फैमिली के बीच पर्सनल स्पेस ढूंढता न्यू मैरिड कपल : फिल्म- लव एंड शुक्ला

शादी का रिश्ता तय होते ही दोस्तों के बीच बातें चलती हैं, खूब चर्चाएं होती है. आखिर हमारे शुक्ला जी सुहागरात कैसे मनाएंगे? शुक्ला जी यानी मनु शुक्ला (सहर्ष कुमार शुक्ला). इन बातों का अपना एक आनंद है. फिर चाहे वो अनुभवी दोस्त हो या अनुभवहीन. हर कोई चर्चा की इस चासनी को चाव से गटक जाना चहता है. जतला सिद्धार्थ की डायरेक्टेड लव एंड शुक्ला फिल्म के लीड रोल में मनु शुक्ला है. जो पेशे से मुंबई की सड़कों पर ऑटो ड्रावरी करता हैं. लुकिंग वाइज रफ है. पर उसके ऑटो का इंटीरियर डिजाइन बॉलीवुड हिरोइनों की चमचमाती तस्वीरों से अटा हुआ है. खासकर सोनाक्षी सिन्हा की तस्वीर से.  ब्राह्मण परिवार में जन्में होने के चलते वह इस बात में भरोसा करता है कि महिलाओं को घूरना गलत है. वह ब्ल्यू फिल्म भी देखता है पर इंडियन नहीं. ये सब नजर और सोच का खेल है. वो कमिटेड है मैरिड लाइफ को सफल बनाने के लिए. अति उत्साह में आकर दोस्तों से कह बैठता है कि अपनी पत्नी को घर और बिस्तर दोनों का सुख देगा.

फिल्म मध्यवर्गीय परिवार के रहन-सहन, तौर तरीके और बर्ताव पर आधारित है. खासकर एक सास की बेटी और बहू के बीच फर्क की समझ को लेकर. पर ये बात उतनी स्पष्ट नहीं जितनी की उसे आसानी से बता दिया जाता है.  बैंड-बाजे की आवाज के साथ शुक्ला अरेंज मैरिज कर पत्नी लक्ष्मी और अपने माता-पिता के साथ स्लम में बने चॉल के एक कमरे वाले घर में एंट्री करता है. घर की दीवारों से झड़ता चूना-सीमेंट उसकी हैसियत की तरफ इशारा करती है. लेकिन शुक्ला के मन में सुहागरात की दैहिक संपर्क का ख्याली पुलाव पक रहा होता है. अब तक का ये सीन दर्शकों को एक बार फिर स्क्रीन से जोड़े रखने की तरफ धकेलती है कि क्या शुक्ला सुहागरात मना पाएगा या नहीं? अगर मनाएगा तो वह कैसा होगा? स्थितियां क्या होंगी? मां-बाप के खर्राटे के बीच उस सिंगल कमरे में अपनी शर्मिली पत्नी के साथ सहज हो पाएगा या नहीं?

शुक्ला की मां मालकिन है तो उसके पास खासा ज्यादा काम भी नहीं होता. सिवाय हुक्म चलाने और वक्त-बेवक्त टीवी पर सीरियल देखने के. उस पर तुरंत प्रतिक्रिया जाहिर करने के. चार सदस्यीय इस परिवार में अगर किसी दो की आवाज सुनाई नहीं देती है तो वह शुक्ला के पिता और पत्नी लक्ष्मी की. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने शुक्ला के पिता को डायलॉग नहीं दिए. इसके पीछे कोई खास कारण भी नजर नहीं आता. उस वक्त भी जब शुक्ला और उसकी मां के बीच विवाद खड़ा हो जाता है. फिल्म में जब-जब हम शुक्ला को उसकी पत्नी से संपर्क बनाने की कोशिश पाते हुए देखते हैं. तो वह बड़ा रोचक मालूम होता है. पर इसकी अपनी वजह है. उस छोटे से सिंगल कमरे में चार से बढ़कर छह आंखों वाला सीसीटीवी कैमरा नवविहाहित जोड़े पर होगा तो वह खुद को कैसे सहज पाएगा? शुक्ला की मुश्किलें तब और बढ़ जाती है जब उसकी बहन रूपा ससुराल छोड़ मायके आ जाती है. यहां से फिल्म एक अलग ही मोड में चलती है. हालांकि डायरेक्टर ने सास के तौर पर शुक्ला की मां का कोई क्रूर चेहरा पेश नहीं किया है. लेकिन उसका व्यवहार बेटी-बहू में फर्क बता जाता है.

आवश्यकता अविष्कार की जननी है. परिवार को जब ये महसूस होता कि बेटे शुक्ला और बहु लक्ष्मी के लिए पर्सनल स्पेस होना चाहिए तो उस कमरे में रात-रात के लिए सूटकेस की दीवार खड़ी कर दी जाती है. फिल्म स्क्रिप्ट की बेसिक चीजें क्लियर है इसलिए क्रिएटिविटी भी सफल लगती है. समाज में पहले से प्रचलित डायलॉग शुक्ला पर फीट बैठते हैं जैसे बीबी के आते ही मां बुरी लगने लगी और शादी के बाद बोरा (पागल) गया है. हो न हो ऐसी बाते दोस्तों और परिवार-संबंधियों की जुबान से निकल ही आती है. डायरेक्टर सिद्धार्थ ने कुछ घटनाओं से शुक्ला की ऑटो ड्राइवरी के जरिए ईमानदार ऑटो वाले की छवि को गढ़ा है. पर सभी ऑटो वाले अच्छा हो ऐसा बिल्कुल नहीं है. हर जगह कुछ अच्छे ऑटो ड्राइवर भी होते है तो कुछ धुर्त और मजबूरी का फायदा उठाने वाले भी. फिल्म के उस सीन पर गौर किया जाना चाहिए जहां किराये के पैसे मांगने पर ऑटो सवार लड़की शुक्ला पर पीछा करने और उसके साथ बदसलूकी का आरोप लगाती है. ये बेहद संकुचित मानसिकता है कि आप किसी के घर या गाड़ी में रखी तस्वीरों से उसके चरित्र का अंदाजा लगा लेते हैं. यह बात ठीक उसी तरह से हैं जब कोई लड़की सिगरेट या शराब का गिलास थामे नजर अथवा छोटे व टाइट कपड़े में दिख जाए तो उसके कैरेक्टर्स को आसानी से जज कर लिया जाता है.

जाते-जाते शुक्ला का वो डायलॉग सुनने लायक है जब लूटपाट की घटना में जख्मी हालत में घर लौटता है और लक्ष्मी से कहता है कि- "सूरत चाहे जितनी भी बुरी हो जाए, हम हमेशा सुंदर थे और आपके लिए रहेंगे"

अनवर का अजब किस्सा : ड्रिमी वर्ल्ड का वो हीरो जो मोहब्बत में जिंदगी की हकीकत से रूबरू हुआ

बड़ी ही डिस्टर्बिंग स्टोरी है...एक चर्चा में यही जवाब मिला. डायरेक्टर बुद्धदेव दासगुप्ता की नई फिल्म आई है. अनवर का अजब किस्सा. कहानी-किस्स...