रेलगाड़ी में जैसे-जैसे बंबई की ओर बढ़ रहा था तब जानती हो, कलेजा पीछे मैसूर की ओर खिंच रहा था! मैसूर का मतलब तुम. वरना, बंबई में ही रह जाता. नवीन ने बड़ा आग्रह किया. कहा कि यहीं रह जाओ, तुम जितना कर सको उससे बढ़कर यहां काम है. खाने के टेबल पर सोमशेखर और अमृता के बीच बातचीत का ये अंश नॉवेल ‘छोर’ का है. दोनों एडल्टरी रिलेशनशिप में हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक फैसले में अवैध मानने से इंकार कर दिया. सोमशेखर और अमृता के बीच विश्वास, चाहत, केयरिंग और उदारता है. जो उस रिश्तें में खाद-पानी का काम करते हैं. फिर भी ये रिश्ता समाज-परिवार के डर के साये में गिनती की सांसे लेता मालूम होता है.
डॉ. एस.एल भैरप्पा का ये नॉवेल साल 1992 में आया. तब भारत में एडल्टरी रिलेशनशिप शब्द का इस्तेमाल मुखर नहीं था. लेकिन सामाजिक व्यवस्था में थे और अवैध ही थे. इसी दौर में देश कैपिटलिज्म के ट्रेक पर बढ़ा. आर्थिक निर्भरता ने समाज की बहुत सी वर्जनाएं तोड़ी. उनमें से एक एडल्टरी रिलेशनशिप भी रहा. नॉवेल मैसूर शहर के बाहरी ललित महल रोड पर बने पुरानी इमारत से शुरू होती है. बारिश का सीजन शुरू होने को है. घर की मालकिन डॉ. अमृता छत के बीचों-बीच बनी दो दरारों को लेकर चिंतित है. उससे भी ज्यादा चिंता की बात ये कि मरम्मत पर 30 हजार रुपए खर्च होंगे. बाद में आने की बात बोल कर एक महीने बाद अमृता आर्केटेक सोमशेखर के पास आती है. और छत की दरारों में सुर्खी डलवाने को मजबूर हो जाती है. सोमशेखर क्लाइंट अमृता की आर्थिक हालत को उसकी पुरानी इमारत से पहचान जाता है. और फिर एक महीने बाद पुन: आई अमृता उसकी सलाह पर मुहर लगा जाती है. इसलिए वो उसे अस्थाई रूप से डामर भरवाने की सलाह देता है. खर्चे के नाम पर 500-600 रुपए की लागत है. साधारण काम बता सोमशेखर फीस लेने से इंकार कर देता है. पहली बारिश में पानी छत से नहीं टपका. ये बात अमृता सोमशेखर को फोन पर बताती है और चाय पर इनवाइट करती है. पहली दफा सोमशेखर टालमटोल कर मना करने का विचार करता है लेकिन अमृता को सीधे जवाब देने की अपेक्षा में आने के लिए हां बोल देता है. पर उस रोज सोमशेखर चाय पर नहीं आता है. और उसके नाम बैंगलोर जाने की बात लिखकर चिट्ठी छोड़ देता है।
लेखक भैरप्पा ने सोमशेखर और अमृता की पहली मुलाकात को फ्रेश तरीके से लिखा है. जबकि दूसरी मुलाकात सहज और परिचित लगती है. और फिर आगे सोमशेखर की ऑफिस का लंच टाइम से लेकर शाम के 4 बजे तक का वक्त अमृता के घर के रजिस्टर में दर्ज होने लगता है. ये वक्त दोनों के लिए उपर्युक्त होता है. ऑफिस में सोमशेखर का असिस्टेंट नीलकंठप्पा लंच करके आ जाता था. कन्नड साहित्य की प्रो. डॉ. अमृता कॉलेज में पढ़ा कर आ जाती थी. उधर, उसके बच्चे विजय (7) और विकास (4) स्कूल में होते थे. ये कहना गलत न होगा कि किसी पुरुष के द्वारा सहज भाव से दिए गए जरा से सहयोग के चलते ही बहुत बार स्त्रियां प्रेम के तीव्र आवेग की स्थिति में पहुंच जाती है. तीसरी मुलाकात में दोनों पास की चामुंडी पहाड़ी पर कार से घूमने निकल जाते हैं. यहां अमृता-सोमशेखर और भी करीब आ जाते हैं. पाठक दोनों के अतीत के बारे में जानते हैं. कहते हैं न वर्तमान और भविष्य के संबंधों की डिपेंडेंसी अतीत पर टिकी होती है. सोमशेखर का बंबई में 12 साल गुजारना. वहां पत्नी के जिंदा रहते हुए भी एक अन्य महिला के साथ संबंध में रहने वाली सारी बातें बता देता है. दरअसल होता क्या है कि ‘हम जिस व्यक्ति के प्यार में होते हैं और पता चलता है कि उस व्यक्ति का किसी और के साथ संबंध था तो कोई उसे बर्दास्त नहीं कर पाता’. पर ये सच्चाई उस भावी रिश्ते के लिए ठोस आधार का काम करता है. पति रंगनाथ के जिंदा रहते हुए भी अमृता का सोमशेखर के साथ एडल्टरी में रहने की वजह उसका अकेलापन नहीं है. वजह उसकी पति की शख्सियत को लेकर है. दो बच्चों की मां होने बाद भी अमृता उस संदेह को दूर नहीं कर पाई थी कि चाची द्वारा उसके एस्टेट को कब्जाने में उसके पति रंगनाथ का भी हाथ है. अमृता के नाम पर जो एस्टेट मैसूर और उसके बाहरी इलाके में हैं उसे वो अपने नाना के विरासत में मिली होती है. बचपन में नाना फिर मां की मौत के बाद पिता ने विरासत को अच्छे से संभाला. चाची के घर में आने के बाद उनका प्यार और दुलार अमृता को हमेशा झूठी ही लगी. एक रोज पिता की भी मौत हो जाती है. एस्टेट को हथियाने के उद्देश्य से ही चाची ने अमृता की शादी अपने भाई रंगनाथ से करवा देती है. रंगनाथ जिसने पढ़ाई भी एस्टेट के डोनेशन से की होती. यही असहजता अमृता को रंगनाथ से दूर कर देती है और सोमशेखर से मिलने के बाद उसके करीब.
सोमशेखर का अमृता के लिए सोमू बनना और अमृता का सोमशेखर के लिए अमू बनना
‘पति-पत्नी और वो’ में पत्नी और वो के बीच के रिश्ते को हमेशा जरूरत की नजर से देखा गया है. फिर पूछना ये भी चाहिए ऐसा कौन सा रिश्ता है जहां जरूरत निहित न हो. पढ़ते वक्त लगता ही नहीं कि आप किसी जरूरत के संबंध पर लिखी नॉवेल पढ़ रहे हो. लेखक भैरप्पा की लेखन कलात्मकता है की ये दो अनुभवी प्रेमियों की मैच्योर कहानी की बजाय अधपक्की लगती है. हर बात में नयापन है. खूब सारा ड्रामा है. पर फीलिंग सच्ची है. नॉवेल में कई बार सोमशेखर-अमृता के बीच खूब सारा और बार-बार तनाव और तकरार होता है. फिर कुछ देर बाद सब सामान्य हो जाता है. अमृता के भाव शून्य होने पर लाइसेंसशुदा रिवॉल्वर से, पंखे से लटकर, नशीली गोलियां खाकर या कन्ननबाड़ी बांध में कूदकर आत्महत्या की पहल करते ही सोमशेखर के फोन की घंट बज जाती है या फिर वो खुद ही स्कूटर पर चला आता है. तो कभी बच्चों के अनाज हो जाने और रिवॉल्वर की आवाज से उनके उठ जाने के भाव से खुद रोक लेती है. अमृता के तुनकमिजाज और समर्पण के बीच आकार में कोई फर्क नहीं है. नॉवेल का वो अनापेक्षित हिस्सा, जहां अमृता सोमशेखर पर हाथ उठा देती है. पर अमृता के मान-मनौव्वल के बाद अपमानित सोमशेखर सहज हो जाता है. इसलिए की वो अमृता के मिजाज से वाकीफ और शायद प्यार में भी. इस सामाजिक नाम-पहचान से अलग प्यार की दुनिया में प्यार का दिया नाम भी होता है. अमृता सोमशेखर को सोमू पुकारती है तो सोमशेखर अमृता को अमू.
नॉवेल में अमृता का कैरेक्टर प्रभावित करता है. वो खुद को सुपीरियर समझती है। उसका सेंस ऑफ ह्यूमर उस वक्त भी झलकता है जब वह सोमशेखर के बंबई वाली महिला के संबंधों को बारीकी से पूछती है। वो यहां तक कहती है कि ‘ सोमू मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जान लेना चाहती हूं. ‘मैं जानती हूं मैं तुम्हें वो खुशी कभी नहीं दे पाई’. हो सकता है लेखक ने अमृता को फेमिनिज्म की शक्ल देनी चाही हो. पर अमृता की वो चिट्ठी अच्छी लगती है जब अबॉर्शन करवाने के बाद उस अजन्में शिशु के गुमनाम पते पर खत लिखती है। उस खत में उसकी मानवता, और मातृत्व की झलक दिखती है। खुद को हत्यारिन कहती है सिर्फ समाज-परिवार के डर से. लिखती है- ‘ तुमने जो जीव रूप लिया वह धोखे से नहीं था. सावधानी की सीमा के पार उत्साह के क्षणों में तुम्हारा अवतरण हुआ था’. उम्मीद की जानी चाहिए कि कानून का ऐसे संबंधों को अवैध मानने से इंकार कर दिए जाने पर इस तरह की हत्याएं अब नहीं होनी चाहिए. इसका फैसला महिला पर ही छोड़ी देनी चाहिए. बदले की भावना में उन हत्याओं पर भी रोक लगेगी जिसे हम दर्शक फिल्म रूस्तम और नॉट अ लव स्टोरी में देखते आ रहे हैं.
डॉ. एस.एल भैरप्पा का ये नॉवेल साल 1992 में आया. तब भारत में एडल्टरी रिलेशनशिप शब्द का इस्तेमाल मुखर नहीं था. लेकिन सामाजिक व्यवस्था में थे और अवैध ही थे. इसी दौर में देश कैपिटलिज्म के ट्रेक पर बढ़ा. आर्थिक निर्भरता ने समाज की बहुत सी वर्जनाएं तोड़ी. उनमें से एक एडल्टरी रिलेशनशिप भी रहा. नॉवेल मैसूर शहर के बाहरी ललित महल रोड पर बने पुरानी इमारत से शुरू होती है. बारिश का सीजन शुरू होने को है. घर की मालकिन डॉ. अमृता छत के बीचों-बीच बनी दो दरारों को लेकर चिंतित है. उससे भी ज्यादा चिंता की बात ये कि मरम्मत पर 30 हजार रुपए खर्च होंगे. बाद में आने की बात बोल कर एक महीने बाद अमृता आर्केटेक सोमशेखर के पास आती है. और छत की दरारों में सुर्खी डलवाने को मजबूर हो जाती है. सोमशेखर क्लाइंट अमृता की आर्थिक हालत को उसकी पुरानी इमारत से पहचान जाता है. और फिर एक महीने बाद पुन: आई अमृता उसकी सलाह पर मुहर लगा जाती है. इसलिए वो उसे अस्थाई रूप से डामर भरवाने की सलाह देता है. खर्चे के नाम पर 500-600 रुपए की लागत है. साधारण काम बता सोमशेखर फीस लेने से इंकार कर देता है. पहली बारिश में पानी छत से नहीं टपका. ये बात अमृता सोमशेखर को फोन पर बताती है और चाय पर इनवाइट करती है. पहली दफा सोमशेखर टालमटोल कर मना करने का विचार करता है लेकिन अमृता को सीधे जवाब देने की अपेक्षा में आने के लिए हां बोल देता है. पर उस रोज सोमशेखर चाय पर नहीं आता है. और उसके नाम बैंगलोर जाने की बात लिखकर चिट्ठी छोड़ देता है।
लेखक भैरप्पा ने सोमशेखर और अमृता की पहली मुलाकात को फ्रेश तरीके से लिखा है. जबकि दूसरी मुलाकात सहज और परिचित लगती है. और फिर आगे सोमशेखर की ऑफिस का लंच टाइम से लेकर शाम के 4 बजे तक का वक्त अमृता के घर के रजिस्टर में दर्ज होने लगता है. ये वक्त दोनों के लिए उपर्युक्त होता है. ऑफिस में सोमशेखर का असिस्टेंट नीलकंठप्पा लंच करके आ जाता था. कन्नड साहित्य की प्रो. डॉ. अमृता कॉलेज में पढ़ा कर आ जाती थी. उधर, उसके बच्चे विजय (7) और विकास (4) स्कूल में होते थे. ये कहना गलत न होगा कि किसी पुरुष के द्वारा सहज भाव से दिए गए जरा से सहयोग के चलते ही बहुत बार स्त्रियां प्रेम के तीव्र आवेग की स्थिति में पहुंच जाती है. तीसरी मुलाकात में दोनों पास की चामुंडी पहाड़ी पर कार से घूमने निकल जाते हैं. यहां अमृता-सोमशेखर और भी करीब आ जाते हैं. पाठक दोनों के अतीत के बारे में जानते हैं. कहते हैं न वर्तमान और भविष्य के संबंधों की डिपेंडेंसी अतीत पर टिकी होती है. सोमशेखर का बंबई में 12 साल गुजारना. वहां पत्नी के जिंदा रहते हुए भी एक अन्य महिला के साथ संबंध में रहने वाली सारी बातें बता देता है. दरअसल होता क्या है कि ‘हम जिस व्यक्ति के प्यार में होते हैं और पता चलता है कि उस व्यक्ति का किसी और के साथ संबंध था तो कोई उसे बर्दास्त नहीं कर पाता’. पर ये सच्चाई उस भावी रिश्ते के लिए ठोस आधार का काम करता है. पति रंगनाथ के जिंदा रहते हुए भी अमृता का सोमशेखर के साथ एडल्टरी में रहने की वजह उसका अकेलापन नहीं है. वजह उसकी पति की शख्सियत को लेकर है. दो बच्चों की मां होने बाद भी अमृता उस संदेह को दूर नहीं कर पाई थी कि चाची द्वारा उसके एस्टेट को कब्जाने में उसके पति रंगनाथ का भी हाथ है. अमृता के नाम पर जो एस्टेट मैसूर और उसके बाहरी इलाके में हैं उसे वो अपने नाना के विरासत में मिली होती है. बचपन में नाना फिर मां की मौत के बाद पिता ने विरासत को अच्छे से संभाला. चाची के घर में आने के बाद उनका प्यार और दुलार अमृता को हमेशा झूठी ही लगी. एक रोज पिता की भी मौत हो जाती है. एस्टेट को हथियाने के उद्देश्य से ही चाची ने अमृता की शादी अपने भाई रंगनाथ से करवा देती है. रंगनाथ जिसने पढ़ाई भी एस्टेट के डोनेशन से की होती. यही असहजता अमृता को रंगनाथ से दूर कर देती है और सोमशेखर से मिलने के बाद उसके करीब.
सोमशेखर का अमृता के लिए सोमू बनना और अमृता का सोमशेखर के लिए अमू बनना
‘पति-पत्नी और वो’ में पत्नी और वो के बीच के रिश्ते को हमेशा जरूरत की नजर से देखा गया है. फिर पूछना ये भी चाहिए ऐसा कौन सा रिश्ता है जहां जरूरत निहित न हो. पढ़ते वक्त लगता ही नहीं कि आप किसी जरूरत के संबंध पर लिखी नॉवेल पढ़ रहे हो. लेखक भैरप्पा की लेखन कलात्मकता है की ये दो अनुभवी प्रेमियों की मैच्योर कहानी की बजाय अधपक्की लगती है. हर बात में नयापन है. खूब सारा ड्रामा है. पर फीलिंग सच्ची है. नॉवेल में कई बार सोमशेखर-अमृता के बीच खूब सारा और बार-बार तनाव और तकरार होता है. फिर कुछ देर बाद सब सामान्य हो जाता है. अमृता के भाव शून्य होने पर लाइसेंसशुदा रिवॉल्वर से, पंखे से लटकर, नशीली गोलियां खाकर या कन्ननबाड़ी बांध में कूदकर आत्महत्या की पहल करते ही सोमशेखर के फोन की घंट बज जाती है या फिर वो खुद ही स्कूटर पर चला आता है. तो कभी बच्चों के अनाज हो जाने और रिवॉल्वर की आवाज से उनके उठ जाने के भाव से खुद रोक लेती है. अमृता के तुनकमिजाज और समर्पण के बीच आकार में कोई फर्क नहीं है. नॉवेल का वो अनापेक्षित हिस्सा, जहां अमृता सोमशेखर पर हाथ उठा देती है. पर अमृता के मान-मनौव्वल के बाद अपमानित सोमशेखर सहज हो जाता है. इसलिए की वो अमृता के मिजाज से वाकीफ और शायद प्यार में भी. इस सामाजिक नाम-पहचान से अलग प्यार की दुनिया में प्यार का दिया नाम भी होता है. अमृता सोमशेखर को सोमू पुकारती है तो सोमशेखर अमृता को अमू.
नॉवेल में अमृता का कैरेक्टर प्रभावित करता है. वो खुद को सुपीरियर समझती है। उसका सेंस ऑफ ह्यूमर उस वक्त भी झलकता है जब वह सोमशेखर के बंबई वाली महिला के संबंधों को बारीकी से पूछती है। वो यहां तक कहती है कि ‘ सोमू मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जान लेना चाहती हूं. ‘मैं जानती हूं मैं तुम्हें वो खुशी कभी नहीं दे पाई’. हो सकता है लेखक ने अमृता को फेमिनिज्म की शक्ल देनी चाही हो. पर अमृता की वो चिट्ठी अच्छी लगती है जब अबॉर्शन करवाने के बाद उस अजन्में शिशु के गुमनाम पते पर खत लिखती है। उस खत में उसकी मानवता, और मातृत्व की झलक दिखती है। खुद को हत्यारिन कहती है सिर्फ समाज-परिवार के डर से. लिखती है- ‘ तुमने जो जीव रूप लिया वह धोखे से नहीं था. सावधानी की सीमा के पार उत्साह के क्षणों में तुम्हारा अवतरण हुआ था’. उम्मीद की जानी चाहिए कि कानून का ऐसे संबंधों को अवैध मानने से इंकार कर दिए जाने पर इस तरह की हत्याएं अब नहीं होनी चाहिए. इसका फैसला महिला पर ही छोड़ी देनी चाहिए. बदले की भावना में उन हत्याओं पर भी रोक लगेगी जिसे हम दर्शक फिल्म रूस्तम और नॉट अ लव स्टोरी में देखते आ रहे हैं.