Saturday, 27 January 2018

सीमा के उस पार की खूबरसूत कहानी - खामोश पानी

तनाव था। चेहरे पर वो तनाव दिखा था। बंटवारे के बाद पहली बार जब सिखों का जत्था भारत से पाकिस्तान की सीमा में प्रवेश कर पंजा साहिब दर्शन को पहुंचा। रूढ़िवादिता के एहसास के उस वो खौफ भुलाया नहीं ज सकता।



भारत-पाक पार्टीशन ने सारी कहानियों के अंत बदल दिए है। फिल्मी परदे पर शहीद-ए-मोहब्बत के बूटा सिंह और गदर एक प्रेम कथा के  तारा सिंह जैसे किरदार अक्सर याद रहेंगे। और याद रहेंगी  खामोश पानी (साइलेंट वाटर) फिल्म की आयशा खान। जिसे डायरेक्ट सबीहा सुमर ने किया है। फिल्म 70 के दशक की पृष्ठभूमि पर बनी है। बीतते वक्त ने पार्टीशन का दंश झेलने वालों के घावों को भर जरूर दिया है। पर याद आते ही वे आज भी दर्द से उतने ही हरे हो जाते हैं। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का चरखी गांव। पूरी आबादी मुस्लिम है। इसी का हिस्सा है आयशा खान और उसका टीनेजर बेटा सलीम। गांव की शांति और लोगों के आपसी प्रेम कुछ रोल मॉडल वाला लगता है। कहानी की इसी दिलचस्प तस्वीर को लगातार स्क्रीन पर देखते रह जाने का मन करता जाता है।

इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान तो बन गया। दशकों बाद जिंदगी को सही ट्रेक पर लाने वाले रोजागार से महरुम सलीम जैसे उस गांव के  युवा बेरोजगार है। ठाठ-बाट की नौकरी की चाह सलीम की गर्लफ्रेंड जुबेदा में भी देखने को मिलती है। कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब लाहौर से रशीद और मजर इस गांव का रुख करते हैं। वहां के युवाओं को जन्नत का रास्ता जेहाद की लड़ाई का विकल्प दिखाकर अपने ग्रुप में शामिल कर लेते हैं। सियासत कितनी मजबूत होती है ये हमें उस पांच रोज की नमाज पढ़ने वाली मां आयशा को अपने बेटे के सामने कमजोर पड़ता देख से मालूम चलता है। हालांकि डायरेक्टर सबीहा ने सियासत और जेहाद  पर सतही काम किया है। फिल्म कई जगहों पर छोटे-छोटे फ्लैशबैक में जाती है। और कहानी को कनेक्ट करती है।

असल जिंदगी में ऐसा क्यों होता है कि धर्म, जाति और आस्था के सामने मानवता बोनी हो जाती। उनके संंबंंधो मेें दम घुटने लगता है। आयशा के समुदाय के बारे में मालूम चलते ही उसकी पड़ोसन शब्बो मन ही मन उससे दूरी बना लेती है। बेटी की शादी में बुलाना नहीं चाहती। जो कुछ रोज पहले दोनों ने मिलकर शादी का जोड़ा तैयार किया था। यूं तो बंटवारे के वक्त ले जा सकने वाली चीजों को साथ ले गए थे। जो नहीं ले जा पाए वो जमीन-जायदाद, मंदिर, मस्जिद व गुरुद्वारा थे। पर वक्त के साथ दोनों देशों की सरकारों ने तीर्थस्थलों की यात्रा की इजाजत लोगों को दे दी। चरखी गांव के पंजा साहिब गुरुद्वारे में भारत से सिख श्रद्धालुओं का जत्था आता है। जत्थे का एक सिख 35 साल बाद उसी गांव में अपनी बहन वीरू को तलाशता है। जो पार्टीशन के दंगे-फसाद के वक्त उस कुंए में कूद कर जान देने से इंकार कर वहां से भाग जाती है। इस सीन को भीष्म साहनी के नॉवेल पर गोविंद निहलानी की डायरेक्टेड नेमसेक फिल्म तमस में भी देखा जा सकता है, जहां सिख महिलाएं काफिरों के हाथ न लगने से अच्छा है कि वे एक-एक कर कुंए में कूद कर जान देती है।

खामोश पानी फिल्म की जो स्थितियां दिखाई गई है वो बिल्कुल शहीद-ए-मोहब्बत और गदर एक प्रेम कथा से मेल खाती है। सीमा के इस पार और उस पार अगर कुछ अलग है तो वो किरदार है। वरना मानवता की रक्षा दोनों तरफ दिखती है। जेनब-सकीना को बूटा सिंह-तारा सिंह अपनी-अपनी कहानी में बचाते है तो उधर आयशा को एक मुस्लिम बचाता है। अगर सबीहा की ये फिल्म न आती तो पार्टीशन का एक-दूसरा पहलू भी देखने-जानने से हम वंचित रह जाते।





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