Thursday, 23 November 2017

बेजान रंग-बिरंगी कठपुतलियाें में जान डालने वाली आठ उंगलियों की कला पर संकट !

 मेहरानगढ़ जहां सन सिटी में सूरज की पहली किरण उतरती है...


वश में करने से ख्याल आया कि इशारे पर किसी को कैसे नचा दिया जाता है? वो भी एक उंगली से। तो फिर आठ उंगलियों से नचाने वाली बात कितनी हैरान करती है? ये सुन और देखकर चेहरे पर हल्की मुस्कान के साथ होंठो में छिपे दांत बाहर आ जाते। ये वाक्या जोधपुर के मेहरानगढ़ किला परिसर में बनी कठपुतलियों की एकमात्र दुकान में बैठी 58 वर्षीय लीला से सुनकर महसूस किया। शहर से 410 फीट की ऊंचे पहाड़ पर बने मेहरानगढ़ किले के भीतर लीला खुले आकाश के नीचे फूटपाथ किनारे हाथ से बनाए काठ के हाथी, घोड़े और ऊंट के खिलौनों के अलावा बेचने के लिए छोटी-बड़ी कठपुतलियां सजाए हुए थी। पहाड़ से याद आया कि कांगड़े के हर पहाड़ के दामन में एक गांव बसा हुआ है। हर गांव में मंदिर है और उसका अलग-अलग देवता है। जोधपुर के इस किले में भी मां चामुंडा देवी का मंदिर है। जिसकी स्थापना 1459 में किले के निर्माण के समय से मानी जाती है। बताया जाता है कि एक वक्त पर किले की चोटी से पाकिस्तान की सीमा दिखाई देती थी। 1965 के युद्ध में पाकिस्तान ने इस किले को निशाना बनाना चाहा था। लेकिन चामुंडा देवी के प्रकोप से किले का बाल भी बाका नहीं हुआ। तब से स्थानीय लोगों का मंदिर के प्रति विश्वास बढ़ता चला गया।

काउंटर से एंट्री टिकट लेने के बाद अवार्ड ऑफ डिस्टिंक्शन यूनेस्को एशिया पेसिफिक हेरिटेज अवार्ड’ के बोर्ड पर नजर गई। संस्कृति विरासत संरक्षण के लिए मेहरानगढ़ किले को ये अवार्ड साल 2005 में मिला था। आगे बढ़ने पर ‘किले की सफील पर तोप-गोलों के निशान’ के नाम का बोर्ड दिखा। जो जयपुर के महाराजा जगतसिंह द्वारा जोधपुर के महाराज मानसिंह के खिलाफ 1808 में किले पर चढ़ाई के इतिहास को बताता है। यूं तो किले में सात द्वार है लेकिन महाराजा मानसिंह को मिली जीत पर इस द्वार का नाम जयपोल रखा गया। अगला पड़ाव मेहरानगढ़ इतिहास के करीब लाने वाला म्यूजियम बना। जहां विशाल से विरासत से रूबरू का दौर शाही पालकियों, शाही हथियारों, गहनों, वेशभूषाओं के अलावा मोती महल, फूल महल, शीशा महल, और झांकी महल ये सब म्यूजियम में सिमटे हुए है।


म्हारे हिवड़ा मे नाचे तक तैइया... (हम साथ-साथ है) फिल्म के इस गाने की शूटिंग इसी किले में हुई है।



  किले में बना छोटा सा वो बाजार जो पर्यटकों को राजस्थानी जूतियां, लहरिया दुपट्‌टे, पगड़ियां और आभूषण की खरीददारी का अवसर देता है। बाजार से निकलते सीढ़ियों से आगे बढ़ते दाहिने हाथ में कठपुतलियों के लिए हाथों से कपड़े सील रही लीला से मुलाकात हुई। बात करने में लीला बेहद सहज दिखी। रोजाना प्रताप नगर से 11 किलोमीटर का सफर तय करके मेहरानगढ़ आने वाली लीला बताती है कि कठपुतलियों की उनकी ये दुकान पिछले 25 साल से हैं। बाप-दादा के धंधे को आगे बढ़ा रही है। इस काम में उनके पति और बेटे मदद कर रहे हैं। कठपुतलियों के शो का सीजन दिवाली से शुरू होता है। साल में सिर्फ पांच माह ही कमाई नियमित रहती है। एक माह में तीन से चार शो कर लेते हैं। हर शो पर 2000 से 2500 रूपये कमा लेते हैं। सीजन का समय खत्म होने पर बाकि वक्त में घर पर बीतता है। और उस वक्त में काठ की पुतलियां तैयार करते हैं। काठ यानी लकड़ी के चेहरे तैयार में खुदाई व घसाई प्रक्रिया से होते हुए पेंटिंग के बाद फटे-पुराने चमकीले कपड़े से कठपुतलियों को सुंदर सा लुक देना होता। कठपुतली-शो के संचालन पर लीला बताती है कि कम से कम चार लोगों की जरूरत होती है। शो के वक्त ढोल व हारमोनियम बजाने वालें जबकि अन्य दो कठपुतली को नचाने के साथ लोक गीत गाते हैं।  इनके गीतों में राजा है, प्रजा है और शौर्य की गाथा है। सुर में उतार-चढ़ाव के साथ प्रेम है तो वियोग भी और साहस है तो त्याग भी। धीरे-धीरे कठपुतलियों के खेल के होते लुप्त पर बोलते हुए लीला उचट सी जाती है। ठहर कर बोलती है कि इस पारंपरिक खेल को जो संरक्षण राजाओं के वक्त मिला था वो अब सरकारों के शासन में नहीं है।  इन कलाकारों की आठ-आठ उंगलियां एक-एक कठपुतली को धागे से कंट्रोल करती है। रंग-बिरंगे कपड़ों से सजी बेजान कठपुतलियां कलाकारों के उंगलियों से छूते ही दम भर लेती है।



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