Wednesday, 21 March 2018

फिल्म 'अमरीका' : वो जगह जहां सब जाना चाहते हैं, जहां सब संभव है

अमरीका के बारे में हम शहरी-ग्रामीण काफी कुछ कॉमन सा सोचते हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें, चौड़ी-चमचमाती सड़कें और खूब सारी फैक्ट्रियां मानों की वहां वर्कर्स काम के एवज में मासिक वेतन पाने की जगह पेड़ पर लगे डॉलर्स तोड़ते हो। यानी हमसे हर मामले में चार कदम आगे। भले ही हमने लिखने-बोलने की शैली में ‘अमरीका’ की जगह अमेरिका का पेटेंट करवा लिया हो पर उसे देखने के नजरियें में ‘अमरीका’ परफेक्ट है।
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 प्रशांत नायर की निर्देशन में बनी अमरीका फिल्म इन्हीं सब बातों को टटोलती है। ग्रामीण परिवेश से शुरू होती इस फिल्म की पृष्ठभूमि 70 के दशक की है। रेडियों पर आपातकाल की न्यूज बुलेटिंस पढ़े जा रहे हैं। इधर पूरा गांव उदय भइया को अमरीका के लिए विदा करते हुए भावुकता में बहता जा रहा है। खासकर उसका आठ-दस साल का छोटा भाई रमाकांत और उसकी मां। इनके बीच नियमित चिट्‌ठी से शुभसमाचार पाने के वादे हैं। कहते हैं आपातकाल ने देशवासियों के मौलिक आधार छीन लिए थे। आज भी आपातकाल काला दिवस के रूप में मनाया जाता, जिस तारीख को ये लागू हुआ था। क्योंकि इसने देश के हर नागरिक के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। फिर तो जरूर किरदारों का ये जितवापुर गांव फिक्शनल टाइप का गांव होगा।पर फिर भी देखिए कि इस गांव के लोगों के जीवन को सात समंदर पार बना अमरीका कैसे प्रभावित कर रहा है? 

वादे पूरे न होने पर बीतते वक्त की सुइयां चिंताएं बढ़ा देती है। दीवाली गई, होली गई ऊपर से घर की भइसियां दो बार बिया गई फिर भी तुम्हारी कोई चिट्‌ठी नहीं आई। एेसा जब रमाकांत सोच रहा होता है तो उसके एक सीन में उसकी मां गुमसुम दिखती है। फिल्म किरदारों में फाइनेंस एक बड़ा फैक्टर है। कभी खुशी कभी गम फिल्म में एक ऐसी ही मां अपने बेटे के इंतजार में होती है। बेटे के हैलीकॉप्टर से उतरने की आहट के बाद मां के चेहरे पर खुशी झलकती है। वो क्षण अच्छा भी लगता है। पर यहां डायरेक्टर प्रशांत की अपनी फिलोसोफी है जो वास्तविकता के बेहद करीब लाती है।

 आगे फिल्म में उदय की चिट्‌ठी से अमरीका का खूब बखान है। इतने कम वक्त में कंपनी में जल्दी प्रोमोशन, ओलंपिक में अमरीका के 94 मेडल और भारत के शून्य, वहां की गाय ज्यादा दूध देने के साथ बेहद सेहतमंद बाकी वो सब जो अमरीका में ही संभव हो सकता है। स्क्रीन पर एेसे सींस-वकतव्यों को देख  हमारे नेता लोग कुछ देर के लिए नाक जरूर चढ़ा लेंगे। और चढ़ाएं भी क्यों न? महज छह साल पहले ही तो कोलंबस ने अमरीका की खोज की थी। दोनों देशों के बीच तरक्की की खाई। उदय की मां अमरीका को लेकर यूं ही कोई उत्साहित नहीं है। क्योंकि उसके चाचा अमरीका से खूब सारा पैसा कमा के लाए थे। तभी तो उसकी शादी हुई थी। इसलिए वो भी उदय के अमरीका में काम करने पर खुद को गौरवांवित होती है। इस कदर की कुछ पल के लिए अपने छोटे बेटे रमाकांत से भेदभाव तक करने लग जाती है। काफी हद तक एक सच्चाई भी है कि कमाऊ पूत के प्रति मां का नजरिया अलग हो जाता है।

अाधे से ज्यादा फिल्म चिट्‌ठी के चर्चे और उदय के किस्से में खर्च हो जाती है। उम्मीद बंधती है कि अब कुछ क्रांतिकारी सा होगा। दुख के बादल छटेंगे, सुख के दिन आएंगे। पर खेत में काम करते वक्त बिजली की नंगी तार की चपेट में आ जाने से उदय की पिता की मौत हो जाती है। यह एक अपरिहार्य संकट होता है जब उदय की भी कोई खबर नहीं आती। एक बार फिर रेडियों में खबर चलती है कि श्रीमती गांधी को श्रद्धांजलि देने के लिए वीआईपी लोग तीन मूर्ती जुटे हुए है।

करीब डेढ़ घंटे की फिल्म में डायरेक्टर प्रशांत का कैमरा रमाकांत पर केंद्रित है। बीमार मां को छोड़कर रमाकांत उस डाकिये की मदद से बॉम्बे में राजन भइया के पते पर पहुंचता है जो उदय के साथ गांव से निकला था। यूं समझे की गांव के बाहर के लोगों के लिए राजन तारण हार है। यहां रहकर उसे पटेल एजेंट की खोज करनी है  जिसने उदय को अमरीका भेजा था। लेकिन उससे भी पहले की मां को उदय की तरफ से लगातार चिट्‌ठी लिख कर  आश्वस्त करना है कि  उसका बड़ा बेटा सही सलामत है। चिट्‌ठी के लिए अखबारों में अमरीकी खबरों की तस्वीरों की कटिंग कर चिपका कर भेजता है। डायरेक्टर ने रमाकांत की छोटी सी लव स्टोरी भी दिखाई है। पर उससे भी अच्छा उसका दृढ़ संकल्प है।चाहे भाई की खोज हो या अमरीका जाने की।  उसकी लालू के साथ की दोस्ती भी पसंद आती है। और बड़े भाई के साथ बचपन की यादें साझा करते हुए रमाकांत का यह कह डालना की- राम जी की बड़ी-बड़ी मूछे तेल लगा के कंघी से ऊंचे। जिस अमरीका को स्क्रीन पर देखने की चाहत रखे रहते वो रखी ही रह जाती है सिवाए उन चिट्‌ठियों में फोटो की कटिंग्स को छोड़कर।

 फिल्म में दो जगह पर अस्पष्टता है। पहला गांव में जो चिट्‌ठियां आ रही होती है क्या वह उदय ही लिख रहा होता है या मां की खुशी के लिए डाकिये-पिता की मिलीभगत है? दूसरा पार्सल डिलीवरी वाले पते रमाकांत का उस अपराध को देखना जहां लोगों की हत्या की जाती है।

Saturday, 17 March 2018

एक साइलेंट फिल्म जो आप में कोलाहल भर दे - मातृभूमि : ए नेशन विदाउट वुमन



जीत की डगर में पसंदीदा टीम की मुश्किलें खेल प्रेमियों को बैचेन कर देती है। नतीजे हार में बदलने पर टीवी तक तोड़ दिए जाते हैं। ऐसी ही मनोदशा मातृभूमि: ए नेशन विदाउट वुमन में देखने को मिलती है। फर्क की स्क्रीन पर मैच की जगह पोर्न फिल्म की कैसेट के प्ले होने न होने की ऊहापोह है। जिसे देखने के लिए गांव के अभिजात और निम्न वर्ग के युवा एक जगह पर जुटे हैं। पंकज झा की निर्देशित ये फिल्म उस सोच की देन है जब बालिका नवजात शिशु मृत्यु दर अपने वक्त के सबसे ऊंचे पायदान पर है (पिछले 100 साल में 340 लाख बालिकाएं मृत या लापता का आंकड़ा है)। पहले सीन में सामाजिक कुरीति है, जहां बेटे की चाहत में पिता बेटी के जन्म की पहली सुबह उसे दूध में डूबोकर मार देता ये समझकर कि उसकी बलि से घर में बेटे का जन्म होगा। पित्तृात्मक सोच में यह लोभ है। पहला आर्थिक तो दूसरा वंश चलाने का।


शादी से पहले बेटियां घर की दीवार की तरह बढ़ रही होती है। ऐसा सुना तो नहीं लेकिन हर घर में महसूस जरूर किया जा सकता है।  मर्दवादी सोच जिसे अभी तक समस्या मानकर उसे मिटाता आ रहा था। उसने यह सोचा भी न होगा कि उसके स्वार्थ का ये हल एक दिन अपने आप में समस्या बन जाएगी। एेसे ही नतीजे से जूझता एक गांव जहां हर घर में सिर्फ मर्द है। महिला के नाम पर दीवार पर टंगी एक तस्वीर दिखती है। जो पांच बेटों के पिता रामचरण की पत्नी की है। पांच में से चार बेटों का अपने पिता के प्रति गुस्सा है। इसलिए कि आर्थिक संपन्नता के बावजूद उनकी शादी नहीं हो पा रही। उनकी जावानी का क्रोध पिता को इस कदर सालता है कि वह उनसे नजरें तक मिलाने में खुद को असमर्थ पाता है। अपने वक्त के जिस दौर में फिल्म बनी है वहां पोथी-पत्रा वाले पंडित की भूमिका बढ़ जाती है। पंडित जगन्नाथ का एक वकतव्य- अपने गांव में क्या आस-पास के गांव में 10-12 साल की लड़की छोड़ों 80 साल तक की बुढ़िया नहीं है?


कलकी के दिखने के बाद रामचरण के बड़े बेटे राकेश की शादी के लिए लड़की की तालाश पंडित जगन्नाथ के लिए खत्म हो जाती है। यहां से कहानी अति नाटकीय की शक्ल लेते हुए महाभारत के द्रोपदी के पांच पतियों वाले किस्से की याद दिलाती है। गांव में 15 साल बाद पहली शादी का अवसर आता है। लेकिन इससे पहले अभी तक जो पिता अपनी बेटी को जन्म से लेकर जावानी तक को छीपा कर रखने वाला रक्षक होता है कुछ देर बाद सौदागर बन जाता है। एक लाख में एक के साथ विवाह, पांच लाख में पांच के साथ और छह के साथ सोने के लिए छह लाख रुपए की कीमत चुकाकर समाज का ताकतवर इंसान पुरुष धर्म व रीति-रिवाजों का सहारा लेकर खुद को इज्जतदार और शरीफ बना लेता है। यहां ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि शादी महज जिस्म बेचने और खरीदने का पेशा बन जाता है जिसे समाज की हिमायत है। शादी की पहली रात पिता समेत पांचों बेटों की बैठक तय करती है कौन किस-किस दिन संबंध बनाएगा? जिसने ज्यादा पैसे चुकाएं वही समारोह का फीता काटेगा। फिल्म में सब कुछ अस्वीकार नहीं है। चूंकि पति का कर्तव्य पत्नी की रक्षा करना है। वहां रामचरण के सबसे छोटे बेटे और कलकी के पति सूरज को एक आदर्श मर्द के तौर पर देखा जा सकता है।

फिल्म में रामचरण के नौकर रघु की हत्या के बाद उसके पिता-चाचा द्वारा बदले की भावना की उस सोच की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। दोनों की समझ में दुश्मन की किस जगह पर चोट की जाए की उसे सबसे ज्यादा तकलीदेह लगे? इसलिए घर से भागने में नाकाम कोशिस में कलकी को अस्तबल में जंजीर से बांध दिए जाने की रात वे दोनों उसके साथ जबरन संबंध बनाते हैं। इसे एक फॉर्मूले से समझे। स्त्री यानी इज्जत, इज्जत यानी परिवार की इज्जत और परिवार की इज्जत का मतलब समुदाय-बिरादरी की इज्जत।  जिसे हमने आजादी के वक्त भारत-पाकिस्तान को पलायन के लिए घर से निकले परिवारों के साथ बेटियों, बहनों व महिलाओं को  उग्र हिंदू-मुस्लिमों द्वारा अपहृत कर उनके साथ जबरन संबंधों से अमिट जख्मों के दर्द दिए।


अनवर का अजब किस्सा : ड्रिमी वर्ल्ड का वो हीरो जो मोहब्बत में जिंदगी की हकीकत से रूबरू हुआ

बड़ी ही डिस्टर्बिंग स्टोरी है...एक चर्चा में यही जवाब मिला. डायरेक्टर बुद्धदेव दासगुप्ता की नई फिल्म आई है. अनवर का अजब किस्सा. कहानी-किस्स...