अमरीका के बारे में हम शहरी-ग्रामीण काफी कुछ कॉमन सा सोचते हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें, चौड़ी-चमचमाती सड़कें और खूब सारी फैक्ट्रियां मानों की वहां वर्कर्स काम के एवज में मासिक वेतन पाने की जगह पेड़ पर लगे डॉलर्स तोड़ते हो। यानी हमसे हर मामले में चार कदम आगे। भले ही हमने लिखने-बोलने की शैली में ‘अमरीका’ की जगह अमेरिका का पेटेंट करवा लिया हो पर उसे देखने के नजरियें में ‘अमरीका’ परफेक्ट है।
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प्रशांत नायर की निर्देशन में बनी अमरीका फिल्म इन्हीं सब बातों को टटोलती है। ग्रामीण परिवेश से शुरू होती इस फिल्म की पृष्ठभूमि 70 के दशक की है। रेडियों पर आपातकाल की न्यूज बुलेटिंस पढ़े जा रहे हैं। इधर पूरा गांव उदय भइया को अमरीका के लिए विदा करते हुए भावुकता में बहता जा रहा है। खासकर उसका आठ-दस साल का छोटा भाई रमाकांत और उसकी मां। इनके बीच नियमित चिट्ठी से शुभसमाचार पाने के वादे हैं। कहते हैं आपातकाल ने देशवासियों के मौलिक आधार छीन लिए थे। आज भी आपातकाल काला दिवस के रूप में मनाया जाता, जिस तारीख को ये लागू हुआ था। क्योंकि इसने देश के हर नागरिक के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। फिर तो जरूर किरदारों का ये जितवापुर गांव फिक्शनल टाइप का गांव होगा।पर फिर भी देखिए कि इस गांव के लोगों के जीवन को सात समंदर पार बना अमरीका कैसे प्रभावित कर रहा है?
वादे पूरे न होने पर बीतते वक्त की सुइयां चिंताएं बढ़ा देती है। दीवाली गई, होली गई ऊपर से घर की भइसियां दो बार बिया गई फिर भी तुम्हारी कोई चिट्ठी नहीं आई। एेसा जब रमाकांत सोच रहा होता है तो उसके एक सीन में उसकी मां गुमसुम दिखती है। फिल्म किरदारों में फाइनेंस एक बड़ा फैक्टर है। कभी खुशी कभी गम फिल्म में एक ऐसी ही मां अपने बेटे के इंतजार में होती है। बेटे के हैलीकॉप्टर से उतरने की आहट के बाद मां के चेहरे पर खुशी झलकती है। वो क्षण अच्छा भी लगता है। पर यहां डायरेक्टर प्रशांत की अपनी फिलोसोफी है जो वास्तविकता के बेहद करीब लाती है।
आगे फिल्म में उदय की चिट्ठी से अमरीका का खूब बखान है। इतने कम वक्त में कंपनी में जल्दी प्रोमोशन, ओलंपिक में अमरीका के 94 मेडल और भारत के शून्य, वहां की गाय ज्यादा दूध देने के साथ बेहद सेहतमंद बाकी वो सब जो अमरीका में ही संभव हो सकता है। स्क्रीन पर एेसे सींस-वकतव्यों को देख हमारे नेता लोग कुछ देर के लिए नाक जरूर चढ़ा लेंगे। और चढ़ाएं भी क्यों न? महज छह साल पहले ही तो कोलंबस ने अमरीका की खोज की थी। दोनों देशों के बीच तरक्की की खाई। उदय की मां अमरीका को लेकर यूं ही कोई उत्साहित नहीं है। क्योंकि उसके चाचा अमरीका से खूब सारा पैसा कमा के लाए थे। तभी तो उसकी शादी हुई थी। इसलिए वो भी उदय के अमरीका में काम करने पर खुद को गौरवांवित होती है। इस कदर की कुछ पल के लिए अपने छोटे बेटे रमाकांत से भेदभाव तक करने लग जाती है। काफी हद तक एक सच्चाई भी है कि कमाऊ पूत के प्रति मां का नजरिया अलग हो जाता है।
अाधे से ज्यादा फिल्म चिट्ठी के चर्चे और उदय के किस्से में खर्च हो जाती है। उम्मीद बंधती है कि अब कुछ क्रांतिकारी सा होगा। दुख के बादल छटेंगे, सुख के दिन आएंगे। पर खेत में काम करते वक्त बिजली की नंगी तार की चपेट में आ जाने से उदय की पिता की मौत हो जाती है। यह एक अपरिहार्य संकट होता है जब उदय की भी कोई खबर नहीं आती। एक बार फिर रेडियों में खबर चलती है कि श्रीमती गांधी को श्रद्धांजलि देने के लिए वीआईपी लोग तीन मूर्ती जुटे हुए है।
करीब डेढ़ घंटे की फिल्म में डायरेक्टर प्रशांत का कैमरा रमाकांत पर केंद्रित है। बीमार मां को छोड़कर रमाकांत उस डाकिये की मदद से बॉम्बे में राजन भइया के पते पर पहुंचता है जो उदय के साथ गांव से निकला था। यूं समझे की गांव के बाहर के लोगों के लिए राजन तारण हार है। यहां रहकर उसे पटेल एजेंट की खोज करनी है जिसने उदय को अमरीका भेजा था। लेकिन उससे भी पहले की मां को उदय की तरफ से लगातार चिट्ठी लिख कर आश्वस्त करना है कि उसका बड़ा बेटा सही सलामत है। चिट्ठी के लिए अखबारों में अमरीकी खबरों की तस्वीरों की कटिंग कर चिपका कर भेजता है। डायरेक्टर ने रमाकांत की छोटी सी लव स्टोरी भी दिखाई है। पर उससे भी अच्छा उसका दृढ़ संकल्प है।चाहे भाई की खोज हो या अमरीका जाने की। उसकी लालू के साथ की दोस्ती भी पसंद आती है। और बड़े भाई के साथ बचपन की यादें साझा करते हुए रमाकांत का यह कह डालना की- राम जी की बड़ी-बड़ी मूछे तेल लगा के कंघी से ऊंचे। जिस अमरीका को स्क्रीन पर देखने की चाहत रखे रहते वो रखी ही रह जाती है सिवाए उन चिट्ठियों में फोटो की कटिंग्स को छोड़कर।
फिल्म में दो जगह पर अस्पष्टता है। पहला गांव में जो चिट्ठियां आ रही होती है क्या वह उदय ही लिख रहा होता है या मां की खुशी के लिए डाकिये-पिता की मिलीभगत है? दूसरा पार्सल डिलीवरी वाले पते रमाकांत का उस अपराध को देखना जहां लोगों की हत्या की जाती है।
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वादे पूरे न होने पर बीतते वक्त की सुइयां चिंताएं बढ़ा देती है। दीवाली गई, होली गई ऊपर से घर की भइसियां दो बार बिया गई फिर भी तुम्हारी कोई चिट्ठी नहीं आई। एेसा जब रमाकांत सोच रहा होता है तो उसके एक सीन में उसकी मां गुमसुम दिखती है। फिल्म किरदारों में फाइनेंस एक बड़ा फैक्टर है। कभी खुशी कभी गम फिल्म में एक ऐसी ही मां अपने बेटे के इंतजार में होती है। बेटे के हैलीकॉप्टर से उतरने की आहट के बाद मां के चेहरे पर खुशी झलकती है। वो क्षण अच्छा भी लगता है। पर यहां डायरेक्टर प्रशांत की अपनी फिलोसोफी है जो वास्तविकता के बेहद करीब लाती है।

अाधे से ज्यादा फिल्म चिट्ठी के चर्चे और उदय के किस्से में खर्च हो जाती है। उम्मीद बंधती है कि अब कुछ क्रांतिकारी सा होगा। दुख के बादल छटेंगे, सुख के दिन आएंगे। पर खेत में काम करते वक्त बिजली की नंगी तार की चपेट में आ जाने से उदय की पिता की मौत हो जाती है। यह एक अपरिहार्य संकट होता है जब उदय की भी कोई खबर नहीं आती। एक बार फिर रेडियों में खबर चलती है कि श्रीमती गांधी को श्रद्धांजलि देने के लिए वीआईपी लोग तीन मूर्ती जुटे हुए है।

फिल्म में दो जगह पर अस्पष्टता है। पहला गांव में जो चिट्ठियां आ रही होती है क्या वह उदय ही लिख रहा होता है या मां की खुशी के लिए डाकिये-पिता की मिलीभगत है? दूसरा पार्सल डिलीवरी वाले पते रमाकांत का उस अपराध को देखना जहां लोगों की हत्या की जाती है।