Tuesday, 30 October 2018

वो बाज़ार ही क्या जहां ठगपन न हो, फिर भी देखिए बेहतरीन डायलॉग्स से अटी ‘बाज़ार’ फिल्म

बाज़ार. बाज़ार. एक इंडस्ट्री-एक टाइटल मगर फिल्में दो. पहली 1982 में आई और दूसरी 2018 में. थोड़ा कन्फ्यूजन से बचा जाए. इसलिए बाज़ार-2018 को सैफ अली खान की अभिनय वाली फिल्म समझी जाए. इस फिल्म का निर्देशन गौरव के चावला ने किया है. फिल्म का टाइटल धंधे का संकेत करती है. ट्रेलर शेयर बाजार का कनेक्शन बताता है. और ऐसी सोच का पूरा सस्पेंस थियेटर में खत्म हो जाता है. घर लौटकर दोस्तों को बताते हैं कि यह फिल्म मुंबई की आलिशान इमारत के टॉप फ्लोर के खाली दफ्तर से शुरू होती है, जहां देर रात सूट-बूट में रिजवान ठहरी निगाहों के साथ बेखौफ चलता हुआ प्रतीत सुसाइड प्वाइंट पर आ खड़ा होता है. और साथ चलता है डायलॉग- ‘ये शहर सपनों को घर देता है, इरादों को मंजिल देता है, अरमानों क हासिल करता है, दीवनों को काबिल करता, लेकिन मैं वो दीवाना था जिसने काबिल बनकर मंजिल तो हासिल किया, लेकिन सपनों के पीछे अपनों को पीछे छोड़ दिया’. सीन और डायलॉग को समझाने के लिए फिल्म फ्लेशबैक में खुलती है. शहर इलाहाबाद, जहां रिजवान अहमद (रोहन मेहरा) पेशे से स्टॉक ब्रोकर है. पैसा कमाने की चाहत में अपने पिता की सोच से ज्यादा स्मार्ट है. उसकी थ्योरी में वफादारी की कोई कीमत नहीं है. ठीक उसी तरह जैसा कि शेयर बाजार में शेयर्स के भाव किसी के वफादार नहीं होते. पिता के एतराज के बावजूद फैमिली के ड्रेमेटिक सिचुएशन में मुंबई आ जाता है।

शकुन कोठारी (सैफ अली खान) फिल्म का बहुप्रतीक्षित किरदार है. और शेयर बाजार में सिर्फ प्रॉफिट का बादशाह. यानी की बिजनेसमैन.  रिजवान का कथित खुदा. पर इस गुरु-शिष्य के बीच की दूरी कब खत्म होगी ये स्क्रीन से जोड़े रखती है. एक तरफ जहां रिजवान स्टॉक ब्रोकर की नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है, उधर शकुन बाजार में अपने दबदबे को कायम रखने के लिए डील कर रहा होता है। देश की अर्थव्यवस्था में शेयर बाजार का जो दखल है उसी अंदाज में डायरेक्टर गौरव ने इस बाजार की दुनियां में शकुन के किरदार को फैक्टर के तौर पर गढ़ा है. शकुन सेठ से शकुन कोठारी बनने के सफर को जानना दिलचस्प है. जो स्कूल भी जाता तो खिलौनों वाली क्लास तक सीमित रह जाता. किताब के पन्ने पलटने वाली उम्र में मुंबई-गुजरात के बीच अंगरिया बनकर हीरा हवाला का काम करता है. सेठ की बेटी मंदिरा (चित्रांगदा सिंह) से शादी पर मिली 50 करोड़ की कंपनी को 5 हजार करोड़ की बना देता है. कहानी में एक के बाद एक शकुन की जो सफलताएं दिखाई है. उन्हें अगर शेयर बाजार की वास्तविक दुनियां से जोड़कर देखा जाए तो वहां हर्षद मेहता और जॉर्डन बेलफोर्ट का नाम पहले लिया जाएगा. हर्षद मेहता पर गफला और जॉर्डन बेलफोर्ट पर द वुल्फ ऑफ वॉल स्ट्रीट (TWOWS) फिल्म आ चुकी है. वैसे देखा जाए TWOWS और बाज़ार में काफी कुछ कॉमन है. फिल्म का फ्लेशबैक, रिजवान-जॉर्डन (लिओनार्डो डी कॅप्रिओ) का जुनूनी स्टॉक ब्रोकर होना, उसकी ग्लेमरस को जीना और अपने-अपने सीन में कॉफी-पेन को स्मार्टली बेच डालना.

बेहतरीन स्क्रीनप्ले, क्लाइमैक्स के साथ फिल्म में खूब सारे डायलॉग है. खासकर सैफ अली खान के बोले गए डायलॉग्स- जैसे गुजराती में ‘पैसा सिर्फ उसका, जो धंधा जानता हो और हम धंधो न गांदो छौकरों छै’. इसके अलावा ‘मैराथन में दौड़ने वालों को कोई याद नहीं करता’ और इनवेस्टमेंट के लिए रिजवान को दिए गए करोड़ों के चैक पर बोला गया डायलॉग ‘रूल नंबर एक मेरा पैसा कभी खोना नहीं, रूल नंबर-दो रूल नंबर-1 को भूलना नहीं’. ये डॉयलॉग्स न किरदार को परफेक्ट बनाते हैं बल्कि स्क्रिप्ट का आधा काम भी कर देते हैं. ये समझा जाते है कि फिल्म का मुख्य किरदार क्या चाहता है और किस मिजाज का है. कहानी के आखिर तक पता तक नहीं चलने दिया जाता कि यह किरदार फिल्म का नायक हैं या खलनायक. वहीं करियर के लिए मुंबई का रूख करने वाले युवा रिजवान के उस वक्तव्य को एडोप्ट कर सकते हैं, जहां वह मकान के मालिक को बोलता है कि-‘यहां स्ट्रगल करने नहीं सेटल होने आया है’ और ‘सपने कभी मरने नहीं देते’.

फिल्म में शकुन बनाम रिजवान को देखना अच्छा लगता. पर डायरेक्टर का दर्शकों के लिए ये सरप्राइज थोड़ी ही देर के लिए. जब मालूम चलता है कि रिजवान की तमाम उपलब्धियां शकुन का एक जाल है, तब दर्शक कुछ ठगा सा महसूस कर सकते हैं. बाजार में फर्जी काम करने वालों पर नजर रखने वाली एजेंसी सेबी का ऑफीसर भी है. वो भी अपने दमदार रोल में. लेकिन सीमित है. ये तो एंटरटेनमेंट है. सब कुछ जायज है. बशर्ते: कि इसमें द वुल्फ ऑफ वाल स्ट्रीट जैसी मूवी की कहानी न ढूंढे. बाज़ार फिल्म को देखने के बाद हो सकता है कई युवा इस सेक्टर में करियर के लिए बढ़ें. इनवेस्टर भी राजनीतिक गतिविधियों, आंदोलनों और प्राकृतिक आपदाओं को जान लेने बाद ही बाजार में पैसा लगाए. फिल्म में सुझाव है तो चेतावनी भी है. नहीं भूलना चाहिए ऊपर जिक्र की गई तीनों फिल्मों में शेयर बाजार के डीएनए में फ्रॉडपन भी (असुरक्षा) नजर आता है.

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