Monday, 22 October 2018

सिर्फ एंटरटेनमेंट मटीरियल नहीं है फिल्म बधाई हो

ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यूं हुआ, जब हुआ, तब हुआ ...जानने के लिए पढ़ें

बधाई जुल्म भी हो सकती है, ये पहली बार ‘बधाई हो’ फिल्म देखकर अहसास हुआ. आप भी जरूर देखिए. इसलिए कि जीवन की यात्रा में यदा-कदा हम सभी इसके पात्र है. बधाई लेने के भी और देने के भी. पर अमित रविंद्रनाथ शर्मा की डायरेक्शन में बनी बधाई हो फिल्म में कौशिक परिवार के उन दो बच्चों के लिए ‘बधाई हो’ (तीसरे बच्चे की प्लानिंग) उस कहावत की तरह हो जाती है जो न निगला जाए और न ही उगला जाए. यह परिवार दिल्ली के लोदी गार्डन के रिहायशी एरिया में रहता है. एरिया कहें या सरकारी क्वार्टर. परिवार का मुखिया अधेड़ उम्र का जितेंद्र उर्फ जीतू (गजराज राव) रेलवे में टीटी है, वो भी रिटायरमेंट के करीब वाला. अपनी मां के लिए सरकारी नौकर है और सरकार की बात (हम दो हमारे दो) से न समझ रखने वाला भी. पत्नी प्रियंवदा (नीना गुप्ता) की नजरों में वह सभ्य-सुशील और वफादार है. जीतू रोमेंटिक कविताएं भी लिखता है. उन छपी कविताओं में से एक रोज ‘मिलन की ऋतु’ रात के वक्त पत्नी को सुनाता है. और बच्चों के नजरिये से थोड़ा कंजूस है. इसे उस सीन से देखा जा सकता है, जहां जीतू आम की पेटी कार में रखने की एवज में टिप भी आम ही देता है। वो भी चुन कर. लेकिन सेवा के बदले वस्तु का थमाना बीते दौर में कंजूसी नहीं होती थी. मिडिल क्लास फैमिली वाली लाइफ की तरह कौशिक परिवार में सब कुछ सही चल रहा होता है. बड़े बेटे नकुल (आयुष्मान खुराना) की कॉरपोरेट दफ्तर में नौकरी और गर्लफ्रेंड के साथ इश्क-रोमांस. छोटे बेटे गुलर  की 12वीं बोर्ड की पढ़ाई. कौशिक परिवार की रफ्तार पर ब्रेक तब लगता है जब नन्हे मेहमान की एंट्री होती है. यानी की प्रियंवदा मां बनने वाली होती है. पर सास, पति और दोनों बच्चों के लिए इसे समाज, रिश्तेदारों और दोस्तों से डील करना चुनौती भरा होता है. पता चलने पर पड़ोसी कौशिक परिवार को बधाइयां देते हैं और साथ में दबी आवाज में खिकियाईं हंसी भी. जो रोके न रुके. ये हंसी नकुल और गुलर पर ऐसे बीतती है जैसे कि कोई जुल्म हो.
फिल्म के एक पात्र का प्रियंवदा की प्रेग्नेंसी पर एक डायलॉग है-‘ये न टोकने की उम्र है न टोक खाने की’. यह डायलॉग तेरे नाम फिल्म के उस सीन की याद दिलाता है जब राधे (सलमान खान) का दोस्त असलम लाइब्रेरी में घूसकर उसे खाली करवाता है और वहां उसका सामना पढ़ रही महिला से होता है, तब असलम बोलता है-‘ये लो इनको लो मां बनने की उम्र है और यहां पढ़ाई कर रही है'. ऐसे डायलॉग दर्शकों का ध्यान जरूर खींचते हैं. पर सिर्फ ठहाके के अंदाज. पूछा जाना चाहिए कि क्या पढ़ाई करना गलत है या फिर पति-पत्नी के बीच बना संबंध, जिस पर रिश्तेदारों व पड़ोसियों की तंज भरी हंंसी की गुब्बार जो बार-बार शर्मिंदा करवाने के लिए बढ़ती चली जाती है। डायरेक्टर अमित ने फिल्म के जरिए समाज की जिस वर्जना को दिखाया है, दरअसल उस पर हमारे बीच ज्यादा बात ही नहीं की जाती. ऐसा कहीं पढ़ने-सुनने को ही नहीं मिलता कि कोई अपने पैरेंट्स की सेक्स लाइफ पर बात करे. खासकर लड़के. यही कारण है कि समाज के उस रिएक्शन से बचने के लिए नकुल और उसका छोटा भाई गुलर दोस्त, दफ्तर और स्कूल से दूरी बनाकर रखते हैं. फिल्म का एक बिंदु और है जहां बात करना बेहद जरूरी हो जाता है. बच्चा पैदा होने और न होने से लेकर परिवार में जब ये बात मसला बन जाती है तो उसका ठीकरा भी महिलाओं के सिर फोड़ा जाता है. नकुल की दादी ये बात कहने में बिलकुल भी देर नहीं लगाती कि इसकी जिम्मेवार बहू है. उम्र के एक पड़ाव को पार करने के बाद बहू के लगाए गए लिपिस्टिक की जिक्र तपाक से कर देती है. और अपने बेटे जीतू को कैरेक्टर सर्टिफिकेट दे देती है. लेकिन पति-पत्नी के बीच बॉन्डिंग अच्छी है. वो देखना मजेदार है. डायरेक्टर अमित की यहां तारीफ करने पड़ेगी कि इसे सास-बहू की कहानी नहीं बनने दिया है. उनका स्क्रिप्ट पर अच्छा कंट्रोल है.
दिल्ली के लोकल लड़के वाले किरदार में आयुष्मान खुराना फिट बैठे. वैसे ये उनकी तीसरी पिक्चर है. जब उन्हें स्क्रीन पर शर्मिंदगी झेलनी पड़ी. बधाई हो से पहले विक्की डोनर और दम लगा के हईशा जैसी फिल्म में दिख चुके हैं. पहली फिल्म में स्पर्म डोनेट की बात मां और गर्लफ्रेंड को मालूम चलने के बाद झेंप जाता है. गर्लफ्रेंड तो छोड़कर चली जाती है. जबकि दूसरी फिल्म दम लगा के हईशा में बीवी के मोटापे को खुद के लिए असहज मानता है. उसे बाजार ले जाने में हिचकता है. उसके साथ घूमने-फिरने से बचता है. पर उन दोनों फिल्मों की तरह बधाई हो में भी यहां आयुष्मान का किरदार और भी ताकतवर बनकर उभरता है. आयुष्मान ने साबित कर दिया है कि दिल्ली का ठेठ लड़का वाले किरदार में उनसे बेहतर रोल कोई नहीं कर सकता है. चाहे वो  एक्सेंट की बात हो या गर्लफ्रेंड की मां को इंप्रैस करना हो. या फिर वो सीन जब नकुल मां-बाप से नाराजगी के बाद छोटे भाई गुलर को थप्पड़ लगाने के बाद उसका डायलॉग है - ‘ बोलता रहता था अलग कमरा चाहिए, अलग कमरा चाहिए...थोड़े दिन और नहीं सो सकता था मम्मी-पापा के बीच में?’ ये मुंहफट अंदाज दिल्ली के और करीब ले आता है। 


कुल मिलाकर बधाई हो फिल्म महज एंटरटेनमेंट मटीरियल नहीं है, जहां कॉमेडी के नाम पर सिर्फ खिलखिलाकर हंसा जाए. अकसर सोचा और कहा जाता है कि दिल्ली की सीमा में घूसते ही कई वर्जनाएं खत्म हो जाती है. पर यहां हम डायरेक्टर अमित की बधाई हो के जरिए देखते हैं कि किस तरह से समाज पति-पत्नी के व्यक्तिगत मामलों पर बेमियादी हंसी हंसता चला जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए फिल्म देखने के बाद अभिभावक या अभिभावक के उम्र के लोगों की ऐसी भावनाओं की सहज स्वीकार्यता मिलेगी.

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