मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है. मेड इन चाइना की जगह मेड इन इंडिया ले रहा है. तकनीकी डेवलपमेंट के लिहाज से सुई-धागा की ट्रांसफोर्मिंग तस्वीर है सिलाई मशीन है. हर जुबां बोले सिलाई मशीन यानी ऊषा की सिलाई मशीन. जो कभी किसी घर के एक कोने में पड़ी रहती है. साफ-सफाई के वक्त ही नजर आती है. लेकिन फिल्म सुई-धागा में शरत कटारिया ने इस पर विंटर-वॉर छेड़ दिया है, जहां कभी चाय पिलानी पड़ती है, मशीन के मालिक पड़ोसी से झगड़ना पड़ता है और कंपनी स्टाफ के धक्के खाने पड़ते हैं. सब कुछ आप से कनेक्ट करते हुए चलती है. फिल्म का एक्टर मौजी (वरूण धवन) है नाम से भी और मन से भी. और आशावादी उसकी खासियत है. एक्ट्रेस ममता (अनुष्का शर्मा) मिडिल क्लास फैमिली की बहू है. जो हर वक्त घर के कामों में उलझी रहती है. कभी पानी भरना तो कभी रोटी बनाने से लेकर ससुर के लिए चाय तैयार करने और सास के लिए दवा लाने तक में. पारिवारिक मामलों में मुंह से दखल की एक बात तक न निकलती. एक पल के लिए माथे से साड़ी का पल्लू तक न हटता. एकदम भारतीय नारी. और अपने पति मौजी के लिए पत्नी से बढ़कर दोस्त बन जाती है. डायरेक्टर शरत ने इस कैरेक्टर को कसकर डायरेक्ट किया.
फिल्म की कहानी वर्तमान के हालात के बेहद नजदीक है. उससे भी ज्यादा इसका कथानक फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ के करीब लगता है। जिसे डायरेक्ट शरत ने ही किया था. उन्होंने ‘सुई-धागा’ में भी फैमिली ड्रामा दिखाया है. खासकर बाप-बेटे का संबंध. आयुष्मान खुराना की तरह यहां वरूण धवन शॉप पर काम करते हैं. फर्क ये कि शॉप खुद की बजाय किसी दूसरे की है. शरत की उस फिल्म का हीरो पत्नी को साथ लेकर चलने से बचता था, झिझकता था, पर यहां हीरो हमकदम होकर पत्नी के साथ चलता है. मसला रोजगार के संकट का भी है. शॉप ऑनर का बेटा प्रशांत मौजी की ही उम्र का है. जो उसके साथ भद्दे मजाक करने से बाज नहीं आता है. अपने एंटरटेनमेंट के लिए अपनी ही शादी में मौजी को पालतू कुत्ता कहकर मांस दिखाकर उसे इधर-उधर दौड़ाता है. ये देख पत्नी ममता की भौंहे खींच जाती है. अपमान का ये घूंट वो पीकर रह जाती है. वैसे ये सीन उन तमाम महानगरों और छोटे नगरों की तस्वीर है, जहां मालिक अपने कर्मचारियों से उसी पगार पर घर के काम करवाते और गाड़ियां भी धुलवाते हैं. मतलब की मालिक-मालिक होता है और नौकर-नौकर होता है. फिल्म जो केंद्रित है वो हैंडलूम के अन-ऑर्गेनाइज्ड कारीगरों पर आधारित है. मौजी इसका उस्ताद होता है. इसलिए की ये उसका पुश्तैनी काम है. उसकी पीढ़ी आते-आते उसके पिता ने ये काम बंद कर दिया है. वजह अनुभव में असफलता का हाथ लगना. विफलता के जिस दौर से एक बाप गुजरा उससे बेटे का सामना न हो. इसलिए वह अपने बेटे को इस धंधे में आने से रोकता रहता है. डॉग-शो पर पत्नी की आंखों में खुद के लिए नाराजगी देखकर नौकरी छोड़ देता है. इज्जत की रोटी के लिए पत्नी ममता की सुझाई बात पर खुद का काम शुरू करता है.
ममता हर जगह मौजी का साथ देती है. काम का आइडिया देने से लेकर, दुकान की जगह और ग्राहकों को लाने तक में. हॉस्पिटल में एडमिट मां के लिए बनाई पुरानी चादरों की मैक्सी वहां के मरीजों व उनके परिजनों को खूब पसंद आती है. हाथों हाथ ऑर्डर्स मिलते हैं. ये पहला मौका होता जब मौजी के हाथों का टेलेंट दिखता है. और यहां से पूरी फिल्म का प्रिडिक्शंस लगा लिया जाता है. फिल्म को डायरेक्टर ने मौजी-ममता को कुछ यूं दिखाया है जैसे सुई-धागा. इन्हें अलग कर दिया जाए तो किसी काम के नहीं. और एकसाथ आ जाए तो फटी किस्मत भी सील सकते हैं. वैसे फिल्म में एक अच्छे वाला डायलॉग भी है-‘ऑल इज वेल’ or ‘एवरिथिंग इज ऑल राइट’. ‘सब बढ़िया है’. जिंदगी का हर बड़े से बड़ा बोझ इस वाक्या के जरिए ढोया जा सकता है. यानी उस वक्त जब हर चीज बोझिल मालूम होती हो. यहां तक की आकाश में छितराये बादलों के तले खुद को दबा महसूस होता हो. ममता मौजी की इस लाइन को बेहद अच्छे ढंग से जानती है. और इसका बयां भी खूबसूरती से करती है. मां के इलाज के लिए दोनों जब कोरपोरेट की नौकरी ले लेते तो हैं तो मौजी वहां खुद को मिसफिट पाता है. उसे वहां का कल्चर रास नहीं आता है. खासकर मार्केटिंग का वो फंडा जिसका वह खुद शिकार होता है. खुद की बनाई चीज कंपनी के जरिए मार्केट में उसे चार गुनी महंगी मिलती है तो वह और भी अपने अाप से बाहर हो जाता है. और ये स्वभाविक है.
वैसे हाथों के टेलेंट पर बनी ये कोई पहली फिल्म नहीं है. जो निर्मित प्रोडक्ट का कंपनी के जरिए बाजार में पहुंचने पर उसके दाम कम मिलते हो और सीधे बाजार में पहुंचाने पर उसका पूरा लाभ. बिचौलिये के कमीशन का ये खेल ‘अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’ फिल्म में भी देखने को मिलता है. हैंडीक्राफ्ट का जो प्रोडक्ट ग्रामीण क्षेत्रों से बनकर बंबई की दुकान पर पहुंचता है तो वह और भी महंगा बिकता है. फिल्म सीधे-सीधे उन्हें प्रोमोट करती है जिनके पास खुद का कौशल है तो वह खुद का काम शुरू कर उस ऊंचाई तक पहुंच सकते है जहां मौजी पहुंचता है. साथ ही उस एेरा से भी निकलने में यकीन दिलाती है की अब जो प्रोडक्ट आप तक पहुंच रहा है वो मेड इन चाइना या मेड इन जापान नहीं बल्कि मेड इन इंडिया है.
फिल्म की कहानी वर्तमान के हालात के बेहद नजदीक है. उससे भी ज्यादा इसका कथानक फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ के करीब लगता है। जिसे डायरेक्ट शरत ने ही किया था. उन्होंने ‘सुई-धागा’ में भी फैमिली ड्रामा दिखाया है. खासकर बाप-बेटे का संबंध. आयुष्मान खुराना की तरह यहां वरूण धवन शॉप पर काम करते हैं. फर्क ये कि शॉप खुद की बजाय किसी दूसरे की है. शरत की उस फिल्म का हीरो पत्नी को साथ लेकर चलने से बचता था, झिझकता था, पर यहां हीरो हमकदम होकर पत्नी के साथ चलता है. मसला रोजगार के संकट का भी है. शॉप ऑनर का बेटा प्रशांत मौजी की ही उम्र का है. जो उसके साथ भद्दे मजाक करने से बाज नहीं आता है. अपने एंटरटेनमेंट के लिए अपनी ही शादी में मौजी को पालतू कुत्ता कहकर मांस दिखाकर उसे इधर-उधर दौड़ाता है. ये देख पत्नी ममता की भौंहे खींच जाती है. अपमान का ये घूंट वो पीकर रह जाती है. वैसे ये सीन उन तमाम महानगरों और छोटे नगरों की तस्वीर है, जहां मालिक अपने कर्मचारियों से उसी पगार पर घर के काम करवाते और गाड़ियां भी धुलवाते हैं. मतलब की मालिक-मालिक होता है और नौकर-नौकर होता है. फिल्म जो केंद्रित है वो हैंडलूम के अन-ऑर्गेनाइज्ड कारीगरों पर आधारित है. मौजी इसका उस्ताद होता है. इसलिए की ये उसका पुश्तैनी काम है. उसकी पीढ़ी आते-आते उसके पिता ने ये काम बंद कर दिया है. वजह अनुभव में असफलता का हाथ लगना. विफलता के जिस दौर से एक बाप गुजरा उससे बेटे का सामना न हो. इसलिए वह अपने बेटे को इस धंधे में आने से रोकता रहता है. डॉग-शो पर पत्नी की आंखों में खुद के लिए नाराजगी देखकर नौकरी छोड़ देता है. इज्जत की रोटी के लिए पत्नी ममता की सुझाई बात पर खुद का काम शुरू करता है.
ममता हर जगह मौजी का साथ देती है. काम का आइडिया देने से लेकर, दुकान की जगह और ग्राहकों को लाने तक में. हॉस्पिटल में एडमिट मां के लिए बनाई पुरानी चादरों की मैक्सी वहां के मरीजों व उनके परिजनों को खूब पसंद आती है. हाथों हाथ ऑर्डर्स मिलते हैं. ये पहला मौका होता जब मौजी के हाथों का टेलेंट दिखता है. और यहां से पूरी फिल्म का प्रिडिक्शंस लगा लिया जाता है. फिल्म को डायरेक्टर ने मौजी-ममता को कुछ यूं दिखाया है जैसे सुई-धागा. इन्हें अलग कर दिया जाए तो किसी काम के नहीं. और एकसाथ आ जाए तो फटी किस्मत भी सील सकते हैं. वैसे फिल्म में एक अच्छे वाला डायलॉग भी है-
वैसे हाथों के टेलेंट पर बनी ये कोई पहली फिल्म नहीं है. जो निर्मित प्रोडक्ट का कंपनी के जरिए बाजार में पहुंचने पर उसके दाम कम मिलते हो और सीधे बाजार में पहुंचाने पर उसका पूरा लाभ. बिचौलिये के कमीशन का ये खेल ‘अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’ फिल्म में भी देखने को मिलता है. हैंडीक्राफ्ट का जो प्रोडक्ट ग्रामीण क्षेत्रों से बनकर बंबई की दुकान पर पहुंचता है तो वह और भी महंगा बिकता है. फिल्म सीधे-सीधे उन्हें प्रोमोट करती है जिनके पास खुद का कौशल है तो वह खुद का काम शुरू कर उस ऊंचाई तक पहुंच सकते है जहां मौजी पहुंचता है. साथ ही उस एेरा से भी निकलने में यकीन दिलाती है की अब जो प्रोडक्ट आप तक पहुंच रहा है वो मेड इन चाइना या मेड इन जापान नहीं बल्कि मेड इन इंडिया है.
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