Tuesday, 30 October 2018

वो बाज़ार ही क्या जहां ठगपन न हो, फिर भी देखिए बेहतरीन डायलॉग्स से अटी ‘बाज़ार’ फिल्म

बाज़ार. बाज़ार. एक इंडस्ट्री-एक टाइटल मगर फिल्में दो. पहली 1982 में आई और दूसरी 2018 में. थोड़ा कन्फ्यूजन से बचा जाए. इसलिए बाज़ार-2018 को सैफ अली खान की अभिनय वाली फिल्म समझी जाए. इस फिल्म का निर्देशन गौरव के चावला ने किया है. फिल्म का टाइटल धंधे का संकेत करती है. ट्रेलर शेयर बाजार का कनेक्शन बताता है. और ऐसी सोच का पूरा सस्पेंस थियेटर में खत्म हो जाता है. घर लौटकर दोस्तों को बताते हैं कि यह फिल्म मुंबई की आलिशान इमारत के टॉप फ्लोर के खाली दफ्तर से शुरू होती है, जहां देर रात सूट-बूट में रिजवान ठहरी निगाहों के साथ बेखौफ चलता हुआ प्रतीत सुसाइड प्वाइंट पर आ खड़ा होता है. और साथ चलता है डायलॉग- ‘ये शहर सपनों को घर देता है, इरादों को मंजिल देता है, अरमानों क हासिल करता है, दीवनों को काबिल करता, लेकिन मैं वो दीवाना था जिसने काबिल बनकर मंजिल तो हासिल किया, लेकिन सपनों के पीछे अपनों को पीछे छोड़ दिया’. सीन और डायलॉग को समझाने के लिए फिल्म फ्लेशबैक में खुलती है. शहर इलाहाबाद, जहां रिजवान अहमद (रोहन मेहरा) पेशे से स्टॉक ब्रोकर है. पैसा कमाने की चाहत में अपने पिता की सोच से ज्यादा स्मार्ट है. उसकी थ्योरी में वफादारी की कोई कीमत नहीं है. ठीक उसी तरह जैसा कि शेयर बाजार में शेयर्स के भाव किसी के वफादार नहीं होते. पिता के एतराज के बावजूद फैमिली के ड्रेमेटिक सिचुएशन में मुंबई आ जाता है।

शकुन कोठारी (सैफ अली खान) फिल्म का बहुप्रतीक्षित किरदार है. और शेयर बाजार में सिर्फ प्रॉफिट का बादशाह. यानी की बिजनेसमैन.  रिजवान का कथित खुदा. पर इस गुरु-शिष्य के बीच की दूरी कब खत्म होगी ये स्क्रीन से जोड़े रखती है. एक तरफ जहां रिजवान स्टॉक ब्रोकर की नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है, उधर शकुन बाजार में अपने दबदबे को कायम रखने के लिए डील कर रहा होता है। देश की अर्थव्यवस्था में शेयर बाजार का जो दखल है उसी अंदाज में डायरेक्टर गौरव ने इस बाजार की दुनियां में शकुन के किरदार को फैक्टर के तौर पर गढ़ा है. शकुन सेठ से शकुन कोठारी बनने के सफर को जानना दिलचस्प है. जो स्कूल भी जाता तो खिलौनों वाली क्लास तक सीमित रह जाता. किताब के पन्ने पलटने वाली उम्र में मुंबई-गुजरात के बीच अंगरिया बनकर हीरा हवाला का काम करता है. सेठ की बेटी मंदिरा (चित्रांगदा सिंह) से शादी पर मिली 50 करोड़ की कंपनी को 5 हजार करोड़ की बना देता है. कहानी में एक के बाद एक शकुन की जो सफलताएं दिखाई है. उन्हें अगर शेयर बाजार की वास्तविक दुनियां से जोड़कर देखा जाए तो वहां हर्षद मेहता और जॉर्डन बेलफोर्ट का नाम पहले लिया जाएगा. हर्षद मेहता पर गफला और जॉर्डन बेलफोर्ट पर द वुल्फ ऑफ वॉल स्ट्रीट (TWOWS) फिल्म आ चुकी है. वैसे देखा जाए TWOWS और बाज़ार में काफी कुछ कॉमन है. फिल्म का फ्लेशबैक, रिजवान-जॉर्डन (लिओनार्डो डी कॅप्रिओ) का जुनूनी स्टॉक ब्रोकर होना, उसकी ग्लेमरस को जीना और अपने-अपने सीन में कॉफी-पेन को स्मार्टली बेच डालना.

बेहतरीन स्क्रीनप्ले, क्लाइमैक्स के साथ फिल्म में खूब सारे डायलॉग है. खासकर सैफ अली खान के बोले गए डायलॉग्स- जैसे गुजराती में ‘पैसा सिर्फ उसका, जो धंधा जानता हो और हम धंधो न गांदो छौकरों छै’. इसके अलावा ‘मैराथन में दौड़ने वालों को कोई याद नहीं करता’ और इनवेस्टमेंट के लिए रिजवान को दिए गए करोड़ों के चैक पर बोला गया डायलॉग ‘रूल नंबर एक मेरा पैसा कभी खोना नहीं, रूल नंबर-दो रूल नंबर-1 को भूलना नहीं’. ये डॉयलॉग्स न किरदार को परफेक्ट बनाते हैं बल्कि स्क्रिप्ट का आधा काम भी कर देते हैं. ये समझा जाते है कि फिल्म का मुख्य किरदार क्या चाहता है और किस मिजाज का है. कहानी के आखिर तक पता तक नहीं चलने दिया जाता कि यह किरदार फिल्म का नायक हैं या खलनायक. वहीं करियर के लिए मुंबई का रूख करने वाले युवा रिजवान के उस वक्तव्य को एडोप्ट कर सकते हैं, जहां वह मकान के मालिक को बोलता है कि-‘यहां स्ट्रगल करने नहीं सेटल होने आया है’ और ‘सपने कभी मरने नहीं देते’.

फिल्म में शकुन बनाम रिजवान को देखना अच्छा लगता. पर डायरेक्टर का दर्शकों के लिए ये सरप्राइज थोड़ी ही देर के लिए. जब मालूम चलता है कि रिजवान की तमाम उपलब्धियां शकुन का एक जाल है, तब दर्शक कुछ ठगा सा महसूस कर सकते हैं. बाजार में फर्जी काम करने वालों पर नजर रखने वाली एजेंसी सेबी का ऑफीसर भी है. वो भी अपने दमदार रोल में. लेकिन सीमित है. ये तो एंटरटेनमेंट है. सब कुछ जायज है. बशर्ते: कि इसमें द वुल्फ ऑफ वाल स्ट्रीट जैसी मूवी की कहानी न ढूंढे. बाज़ार फिल्म को देखने के बाद हो सकता है कई युवा इस सेक्टर में करियर के लिए बढ़ें. इनवेस्टर भी राजनीतिक गतिविधियों, आंदोलनों और प्राकृतिक आपदाओं को जान लेने बाद ही बाजार में पैसा लगाए. फिल्म में सुझाव है तो चेतावनी भी है. नहीं भूलना चाहिए ऊपर जिक्र की गई तीनों फिल्मों में शेयर बाजार के डीएनए में फ्रॉडपन भी (असुरक्षा) नजर आता है.

Thursday, 25 October 2018

कई किस्सों से मिलकर बनी वो फिल्म जो अनावश्यक डायलॉग से बचाती है : द आर्टिस्ट

म्यूट फिल्म का नाम सुनकर जो इंटरस्ट जागता है वो स्क्रीन तक ले जाने में इतना सक्षम नहीं होता है. कन्फ्यूजन रहता है दर्शकों में. न जाने अपनी तबीयत की फिल्म होगी या नहीं. टाइम वेस्ट, पैसा वेस्ट. ऊपर से फिल्म का औसतन वक्त दो से ढाई घंटे भी झेलों. इन बातों को दरकिनार करते हुए द आर्टिस्ट फिल्म देख लें तो एक साइलेंट फिल्म को लेकर बनी सारी धारणाएं टूट जाएंगी. और फेसिअल एक्सप्रेशन के नाम पर मुग्ध-मोहित कर देने वाली प्रिया प्रकाश वारियर के प्रशंसकों की फेहरिस्ट भी थोड़ी छोटी पड़ जाएगी.  मिशेल हेजेनाविशुस की डायरेक्टेड ये फिल्म साल 2012 में आई. फिल्म का बैकड्रॉप पर 1920 के दशक का है. तब सिनेमा ब्लैक एंड व्हाइट हुआ करता था. और आर्टिस्ट अपने आर्ट से उसमें कलर भरते थे. यहां लीडिंग रोल में जॉर्ज वेलिनटाइन हीरो है. थियेटर में तालियां और उसके बाहर प्रशंसकों की भीड़ का सीन जॉर्ज के स्टारडम को बयां कर रही होती है. जॉर्ज जिस भीड़ के सामने बाउंसरों के घेरे में अदाए बिखेर रहा होता उसकी झलक पाने और ऑटोग्राफ लेने के लिए ठसाठस भीड़ से  एक युवती अचानक बाहर निकल आती है. भीड़ से अलग पाकर लड़की शांत और संकोच वाले भाव में दिखती है. जॉर्ज युवती के पास आता है. ऑटोग्राफ देता है. हंसता चेहरा जैसे प्रशंसकों की तरफ उठाता है वैसे ही युवती उसके चेहरे को चुम लेती है. ये तस्वीर अगले दिन सभी अखबारों की सूर्खियां बन जाती है. ये पूरा सीन एक स्टार के स्टारडम का औरां और फैंस फोलोविंग को बताता है.
जॉर्ज का राज न सिर्फ प्रशंसकों के दिलों तक है बल्कि किनोग्राफ स्टूडियो पर भी है. उधर अखबारों के जरिए चर्चा में आई प्रशंसक युवती भी किनोग्राफ स्टूडियो विजिट करती है. बाय चांस उसे वहां ऑडिशन का मौका मिलता है. यहां जॉर्ज और उस युवती की ये दूसरी मुलाकात होती है. फिल्म में आगे युवती की महत्वाकांक्षा दिखाई गई है. वो भी स्टार बनना चाहती है. दोनों स्क्रीन पर एक साथ दिखने लग जाते हैं. युवती पेप्पी का डांस दर्शकों को जॉर्ज के बजाय ज्यादा अच्छा पसंद आने लगता है. पसंद के आधार पर किनोग्राफ स्टूडियो फिल्में बनाना शुरू कर देता है. और शुरू होता है अनुभवी एक्टर जॉर्ज का स्टार्डम ग्राफ तेजी से गिरना और पेप्पी के स्टार्डम का ग्राफ ऊपर की ओर बढ़ना है. डायरेक्टर, जॉर्ज से कहता है कि पब्लिक नया चेहरा देखना चाहती है. पर जॉर्ज उस बात को दरकिनार करते हुए खुद ‘द टिअर्स ऑफ लव’ फिल्म डायरेक्ट-प्रोड्यूस करता है. पर दर्शकों को पसंद नहीं आती. नाकामयाबी पर जॉर्ज शराब पीता है। जरूरतों को पूरी करने के लिए अपनी महंगी ड्रेस बेच देता है. घर की चीजें नीलामी करता है. कहानी का ये हिस्सा मोहित सूरी की डायरेक्टेड आशिकी-2 में भी देखने को मिलता है, जहां पॉपुलर सिंगर राहुल जयकर की मदद से रेस्टोरेंट में गाने वाली आरूही बड़ी सिंगर बन जाती है.


डायरेक्टर मिशेल की फिल्म को देखते वक्त लगता है कि कई फिल्मों के किस्सों को  जोड़-जोड़ कर बनाई है. चाहे जॉर्ज द्वारा एक साल से अपने ड्राइवर क्लीफ्टन को सैलरी नहीं दिए जाने के बदले में उसे वो कार देकर अकेला छोड़ देने की बात कहता है. यहां क्लीफ्टन की वफादारी डेविड धवन की डायरेक्टेड स्वर्ग फिल्म में नौकर कृष्णा और उसके मालिक मिस्टर. कुमार के बीच रिश्ते वाले सीन की याद दिलाती है। या फिर जॉर्ज का पालतू कुत्ता जो फिल्म के शुरू से लेकर अंत तक उसके साथ दिखता है. वो कुत्ता उसकी स्टार्डम में पॉजीटिव ‌इफेक्ट है. कुत्ता अपनी समझदारी से जॉर्ज की जान बचाता है। उसे देख जैकी सैरॉफ की तेरी मेहरबानियां फिल्म में उसके पालतू कुत्ते की चतुराई नजर आती है.
फिल्म अगर किसी कंटेंट पर केंद्रित है तो वो है स्टार सिस्टम. जो सालों से किसी प्रोडक्शन हाउस या स्टूडियों पर किसी एक स्टार या गिने-चुने अभिनेताओं का वर्चस्व रहा है. लेकिन अब दर्शकों के बीच अच्छी और बुरी फिल्मों में फर्क करने की समझ पैदा हो गई है. यहीं वजह है कि आज सिर्फ सिनेमा ही नहीं बदला उसका दर्शक वर्ग भी बदल गया है.  

Monday, 22 October 2018

सिर्फ एंटरटेनमेंट मटीरियल नहीं है फिल्म बधाई हो

ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यूं हुआ, जब हुआ, तब हुआ ...जानने के लिए पढ़ें

बधाई जुल्म भी हो सकती है, ये पहली बार ‘बधाई हो’ फिल्म देखकर अहसास हुआ. आप भी जरूर देखिए. इसलिए कि जीवन की यात्रा में यदा-कदा हम सभी इसके पात्र है. बधाई लेने के भी और देने के भी. पर अमित रविंद्रनाथ शर्मा की डायरेक्शन में बनी बधाई हो फिल्म में कौशिक परिवार के उन दो बच्चों के लिए ‘बधाई हो’ (तीसरे बच्चे की प्लानिंग) उस कहावत की तरह हो जाती है जो न निगला जाए और न ही उगला जाए. यह परिवार दिल्ली के लोदी गार्डन के रिहायशी एरिया में रहता है. एरिया कहें या सरकारी क्वार्टर. परिवार का मुखिया अधेड़ उम्र का जितेंद्र उर्फ जीतू (गजराज राव) रेलवे में टीटी है, वो भी रिटायरमेंट के करीब वाला. अपनी मां के लिए सरकारी नौकर है और सरकार की बात (हम दो हमारे दो) से न समझ रखने वाला भी. पत्नी प्रियंवदा (नीना गुप्ता) की नजरों में वह सभ्य-सुशील और वफादार है. जीतू रोमेंटिक कविताएं भी लिखता है. उन छपी कविताओं में से एक रोज ‘मिलन की ऋतु’ रात के वक्त पत्नी को सुनाता है. और बच्चों के नजरिये से थोड़ा कंजूस है. इसे उस सीन से देखा जा सकता है, जहां जीतू आम की पेटी कार में रखने की एवज में टिप भी आम ही देता है। वो भी चुन कर. लेकिन सेवा के बदले वस्तु का थमाना बीते दौर में कंजूसी नहीं होती थी. मिडिल क्लास फैमिली वाली लाइफ की तरह कौशिक परिवार में सब कुछ सही चल रहा होता है. बड़े बेटे नकुल (आयुष्मान खुराना) की कॉरपोरेट दफ्तर में नौकरी और गर्लफ्रेंड के साथ इश्क-रोमांस. छोटे बेटे गुलर  की 12वीं बोर्ड की पढ़ाई. कौशिक परिवार की रफ्तार पर ब्रेक तब लगता है जब नन्हे मेहमान की एंट्री होती है. यानी की प्रियंवदा मां बनने वाली होती है. पर सास, पति और दोनों बच्चों के लिए इसे समाज, रिश्तेदारों और दोस्तों से डील करना चुनौती भरा होता है. पता चलने पर पड़ोसी कौशिक परिवार को बधाइयां देते हैं और साथ में दबी आवाज में खिकियाईं हंसी भी. जो रोके न रुके. ये हंसी नकुल और गुलर पर ऐसे बीतती है जैसे कि कोई जुल्म हो.
फिल्म के एक पात्र का प्रियंवदा की प्रेग्नेंसी पर एक डायलॉग है-‘ये न टोकने की उम्र है न टोक खाने की’. यह डायलॉग तेरे नाम फिल्म के उस सीन की याद दिलाता है जब राधे (सलमान खान) का दोस्त असलम लाइब्रेरी में घूसकर उसे खाली करवाता है और वहां उसका सामना पढ़ रही महिला से होता है, तब असलम बोलता है-‘ये लो इनको लो मां बनने की उम्र है और यहां पढ़ाई कर रही है'. ऐसे डायलॉग दर्शकों का ध्यान जरूर खींचते हैं. पर सिर्फ ठहाके के अंदाज. पूछा जाना चाहिए कि क्या पढ़ाई करना गलत है या फिर पति-पत्नी के बीच बना संबंध, जिस पर रिश्तेदारों व पड़ोसियों की तंज भरी हंंसी की गुब्बार जो बार-बार शर्मिंदा करवाने के लिए बढ़ती चली जाती है। डायरेक्टर अमित ने फिल्म के जरिए समाज की जिस वर्जना को दिखाया है, दरअसल उस पर हमारे बीच ज्यादा बात ही नहीं की जाती. ऐसा कहीं पढ़ने-सुनने को ही नहीं मिलता कि कोई अपने पैरेंट्स की सेक्स लाइफ पर बात करे. खासकर लड़के. यही कारण है कि समाज के उस रिएक्शन से बचने के लिए नकुल और उसका छोटा भाई गुलर दोस्त, दफ्तर और स्कूल से दूरी बनाकर रखते हैं. फिल्म का एक बिंदु और है जहां बात करना बेहद जरूरी हो जाता है. बच्चा पैदा होने और न होने से लेकर परिवार में जब ये बात मसला बन जाती है तो उसका ठीकरा भी महिलाओं के सिर फोड़ा जाता है. नकुल की दादी ये बात कहने में बिलकुल भी देर नहीं लगाती कि इसकी जिम्मेवार बहू है. उम्र के एक पड़ाव को पार करने के बाद बहू के लगाए गए लिपिस्टिक की जिक्र तपाक से कर देती है. और अपने बेटे जीतू को कैरेक्टर सर्टिफिकेट दे देती है. लेकिन पति-पत्नी के बीच बॉन्डिंग अच्छी है. वो देखना मजेदार है. डायरेक्टर अमित की यहां तारीफ करने पड़ेगी कि इसे सास-बहू की कहानी नहीं बनने दिया है. उनका स्क्रिप्ट पर अच्छा कंट्रोल है.
दिल्ली के लोकल लड़के वाले किरदार में आयुष्मान खुराना फिट बैठे. वैसे ये उनकी तीसरी पिक्चर है. जब उन्हें स्क्रीन पर शर्मिंदगी झेलनी पड़ी. बधाई हो से पहले विक्की डोनर और दम लगा के हईशा जैसी फिल्म में दिख चुके हैं. पहली फिल्म में स्पर्म डोनेट की बात मां और गर्लफ्रेंड को मालूम चलने के बाद झेंप जाता है. गर्लफ्रेंड तो छोड़कर चली जाती है. जबकि दूसरी फिल्म दम लगा के हईशा में बीवी के मोटापे को खुद के लिए असहज मानता है. उसे बाजार ले जाने में हिचकता है. उसके साथ घूमने-फिरने से बचता है. पर उन दोनों फिल्मों की तरह बधाई हो में भी यहां आयुष्मान का किरदार और भी ताकतवर बनकर उभरता है. आयुष्मान ने साबित कर दिया है कि दिल्ली का ठेठ लड़का वाले किरदार में उनसे बेहतर रोल कोई नहीं कर सकता है. चाहे वो  एक्सेंट की बात हो या गर्लफ्रेंड की मां को इंप्रैस करना हो. या फिर वो सीन जब नकुल मां-बाप से नाराजगी के बाद छोटे भाई गुलर को थप्पड़ लगाने के बाद उसका डायलॉग है - ‘ बोलता रहता था अलग कमरा चाहिए, अलग कमरा चाहिए...थोड़े दिन और नहीं सो सकता था मम्मी-पापा के बीच में?’ ये मुंहफट अंदाज दिल्ली के और करीब ले आता है। 


कुल मिलाकर बधाई हो फिल्म महज एंटरटेनमेंट मटीरियल नहीं है, जहां कॉमेडी के नाम पर सिर्फ खिलखिलाकर हंसा जाए. अकसर सोचा और कहा जाता है कि दिल्ली की सीमा में घूसते ही कई वर्जनाएं खत्म हो जाती है. पर यहां हम डायरेक्टर अमित की बधाई हो के जरिए देखते हैं कि किस तरह से समाज पति-पत्नी के व्यक्तिगत मामलों पर बेमियादी हंसी हंसता चला जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए फिल्म देखने के बाद अभिभावक या अभिभावक के उम्र के लोगों की ऐसी भावनाओं की सहज स्वीकार्यता मिलेगी.

Tuesday, 9 October 2018

इलेक्शन-2018 : ‘मोदी लहर’ को राजस्थान की अंधड़ का साथ मिलेगा !


कहते हैं जब धरती पर एक समान ताकतें आमने-सामने हो तो उनमें अपने वर्चस्व की लड़ाई होती है और उनमें एक-दूसरे की जरूरत बनकर सभी धारणाओं को तोड़ने की भी जद्दोजहद होती. खासकर जो वर्षों से कामय हो. अब देखना यह होगा राजस्थान चुनाव 2018 रूपी धरती पर है पीएम मोदी की कथित ‘मोदी लहर’ और राजस्थान की अंधड (सत्ता का ट्रेंड) के बीच कौन, किस पर कितना भारी पड़ता है या उन धारणाओं को तोड़ देगी जो इसके प्रहरी है. 
तारीख 6-अक्टूबर-2018. वक्त दोपहर के ठीक 2 बजे. जगह अजमेर. टीवी मीडिया ने पीएम नरेंद्र मोदी की आमसभा में टेंट के फटने पर न्यूज फ्लैश की- ‘आंधी से फटा टेंट’. पर पीएम मोदी बोले थे- ‘लो आ गई जीत की आंधी’. वो यहीं नहीं रूके. 53 हजार बूथों की जीत पर चुनाव की जीत सुनिश्चित की बात पर जैसे ही उन्होंने पॉज लिया वैसे ही सभा स्थल कायड़ विश्राम स्थली में जोर से हवाएं चलने लगी. सभा में बैठी लाखों लोगों की भीड़ हवा के साथ आए रेत के कणों को आंखों से निकाल पाती, तभी पीएम बोले- ‘देखिए प्रकृति भी हमारा साथ देने के लिए आई है. विजय की आंधी भी चल पड़ी हैं. राजस्थान की धरती में जब धरती माता आशीर्वाद देने आती है तो विजय निश्चित हो जाती है. और विजय को लेकर आगे बढ़े. पूरे संकल्प को साकार करने के लिए चल पड़ें.’ रेत के कणों से जनता राहत पाकर आंखें खोलते ही पाती है कि पीएम मोदी स्पीच खत्म कर चुके है. अभिवादन के अंदाज में हाथ हिलाते हुए मंच से जा रहे है. वैसे ये पूरा नजारा किसी फिल्मी सीन से कम नहीं लग रहा था.

पीएम मोदी यहां सीएम वसुंधरा राजे की ‘राजस्थान गौरव यात्रा’ के समापन पर आए थे. अपने चीर-परीचित अंदाज में मोदी कांग्रेस पर खूब बरसे. उन्होंने जनता को ऐसा पाठ पढ़ाया की उनके लिए कांग्रेस और विफलता में फर्क करना भी कुछ देर के लिए मुश्किल हो गया. हालांकि पार्टी में करीब 74 दिनों तक चले प्रदेशाध्यक्ष के उम्मीदवार पर तनाव को भुलाकर पीएम मोदी ने वसुंधरा के सुशासन में कसीदे पढ़ीं. उन्होंने वसुंधरा सरकार की तारीफ की. कहा, ये सरकार 63 दिनों की यात्रा में जनता को हिसाब दे रही है. मंच का ये फ्रेम अतीत में झांकने को मजबूर कर रहा था. वो दिन, तारीख 11-09-2013 का ही था. जगह जयपुर में अमरूदों के बाग, जहां प्रदेशभर में 78 दिनों तक चली सुराज संकल्प यात्रा का वसुंधरा राजे ने समापन सम्मेलन किया. तब नरेंद्र मोदी भाजपा चुनाव अभियान के प्रमुख थे. और भाजपा की तरफ से साल 2014 के आम चुनावों में पीएम कैंडिडेट. उस वक्त उन्होंने वसुंधरा राजे और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ मंच सांझा करते हुए कहा था- ‘आ रही है परिवर्तन की आंधी, राजस्थान रंग लाएगा तो देश भी दम दिखाएगा’. उन्होंने मंच से जनता को एबीसीडी का मतलब भी बताया था. ए यानी आदर्श घोटाला, बी यानी बोफोर्स-भंवरी देवी, सी यानी कोयला-कॉमनवेल्थ घोटाला और डी यानी डिफेंस का भ्रष्टाचार-दामाद का कारोबार. तब वे रूपया के सेहत पर भी बोले थे. उन्होंने कहा था गुजराती और राजस्थानी से बेहतर रूपया की कीमत कौन जानता है? बहरहाल मोदी पीएम रहते हुए अजमेर की आमसभा से रूपया पर कुछ नहीं बोले. पेट्रोल-डीजल के कम किए गए दामों का जिक्र जरूर किया गया. पर इस फैसले से ट्रेडिंग में सरकारी तेल कंपनियों में निवेशकों के बीच नुकसान से मचे बवंडर का संकेत तक नहीं किया.
देखा जाए तो प्रदेश में सीएम वसुंधरा के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी का भी माहौल है. इसे 11 माह पहले हुए अजमेर व अलवर लोकसभा सीट और विधानसभा की मांडलगढ़ सीट पर उप-चुनाव के नतीजे से टोह लगाया जा सकता है. पीएम मोदी बुलेट ट्रेन चलाने की बात करते हैं लेकिन प्रदेश में 15-16 दिन तक रोडवेज नहीं चल पाती. केंद्र-राज्य की सरकारें डिजिटल की बातें करती है. लाखों-करोड़ों रूपए खर्च कर बीकानेर में डिजि राजस्थान पर प्रोग्राम किया जाता है. पर हर एग्जाम कंडक्ट करवाने के लिए सरकार पूरे-पूरे दिन इंटरनेट शटडाउन कर देती है. पांच साल पहले नरेंद्र मोदी ने प्रदेश में गहलोत सरकार को सांप्रदायिक दंगे और झड़पों पर घेरा था. लेकिन वसुंधरा सरकार के शासन में हुई लिंचिंग पर दम तक नहीं भरा. पीएम होने के नाते मोदी वसुंधरा सरकार को हिदायतें दे सकते थे. लेकिन माहौल चुनाव का है. ये माहौल कुछ मेहमान की तरह है. जैसा कि घर आए मेहमानों के बीच घर की शिकायतें नहीं की जाती. ठीक यही फॉर्मूल यहां राजनीति में भी अपना लिया गया.

फलसफा यही है कि मोदी आज तक कथित ‘आंधी’ और ‘लहर’ की ही बातें करते आ रहे हैं. पर कमबख्त राजस्थान की जमींनात तो धोरों की है. यहां आंधी और लहर की जगह अंधड़ शब्द उपर्युक्त है. इसलिए भी की यहां टीले टिकते नहीं. जिन हवाओं के साथ ये टीले नीत नये मुकाम हासिल करते रहते हैं. अब देखना ये होगा कि ‘मोदी लहर’ को राजस्थान की अंधड़ (सत्ता का ट्रेंड) का कितना सहारा मिलता है? क्यों कि यहां की सत्ता पर तयशुदा वक्त पर सियासी दलों का कब्जा होता रहा है. साल 1993 के बाद से हुए पांच चुनावों के सत्ता में कभी बीजेपी रही है तो कभी कांग्रेस. पिछले डेढ़-दो दशक में सत्ता का कुछ ऐसा ही ट्रेंड हिमाचल व उत्तराखंड में बीजेपी और कांग्रेस के बीच, केरल में सीपीआई (एम) और कांग्रेस+यूडीएफ के बीच में भी देखने को मिलता है. हमें चाहिए की हर पॉसिबिलिटी का वेलकम करें. एबीपी न्यूज और टाइम्स नाउ जैसे चैनल्स लगातार जनता के मूड को ओपीनियन पोल पर सर्वे रिपोर्ट लेकर आ रहे हैं कि विधानसभा की 200 सीटों पर कौन सी पार्टी, कितने सीटों पर कब्जा करने वाली है. इन सबके बीच एक साफ, ईमानदार और नई ऊर्जावान सरकार बनाने में ओपीनियन पोल अहम हो जाता है. 

Wednesday, 3 October 2018

क्या मेड इन इंडिया की पहली किस्त है फिल्म सुई-धागा

मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है. मेड इन चाइना की जगह मेड इन इंडिया ले रहा है. तकनीकी डेवलपमेंट के लिहाज से सुई-धागा की ट्रांसफोर्मिंग तस्वीर है सिलाई मशीन है. हर जुबां बोले सिलाई मशीन यानी ऊषा की सिलाई मशीन. जो कभी किसी घर के एक कोने में पड़ी रहती है. साफ-सफाई के वक्त ही नजर आती है. लेकिन फिल्म सुई-धागा में शरत कटारिया ने इस पर विंटर-वॉर छेड़ दिया है, जहां कभी चाय पिलानी पड़ती है, मशीन के मालिक पड़ोसी से झगड़ना पड़ता है और कंपनी स्टाफ के धक्के खाने पड़ते हैं. सब कुछ आप से कनेक्ट करते हुए चलती है. फिल्म का एक्टर मौजी (वरूण धवन) है नाम से भी और मन से भी. और आशावादी उसकी खासियत है. एक्ट्रेस ममता (अनुष्का शर्मा) मिडिल क्लास फैमिली की बहू है. जो हर वक्त घर के कामों में उलझी रहती है. कभी पानी भरना तो कभी रोटी बनाने से लेकर ससुर के लिए चाय तैयार करने और सास के लिए दवा लाने तक में. पारिवारिक मामलों में मुंह से दखल की एक बात तक न निकलती. एक पल के लिए माथे से साड़ी का पल्लू तक न हटता. एकदम भारतीय नारी. और अपने पति मौजी के लिए पत्नी से बढ़कर दोस्त बन जाती है. डायरेक्टर शरत ने इस कैरेक्टर को कसकर डायरेक्ट किया.

फिल्म की कहानी वर्तमान के हालात के बेहद नजदीक है. उससे भी ज्यादा इसका कथानक फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ के करीब लगता है। जिसे डायरेक्ट शरत ने ही किया था. उन्होंने ‘सुई-धागा’ में भी फैमिली ड्रामा दिखाया है. खासकर बाप-बेटे का संबंध. आयुष्मान खुराना की तरह यहां वरूण धवन शॉप पर काम करते हैं. फर्क ये कि शॉप खुद की बजाय किसी दूसरे की है. शरत की उस फिल्म का हीरो पत्नी को साथ लेकर चलने से बचता था, झिझकता था, पर यहां हीरो हमकदम होकर पत्नी के साथ चलता है. मसला रोजगार के संकट का भी है. शॉप ऑनर का बेटा प्रशांत मौजी की ही उम्र का है. जो उसके साथ भद्दे मजाक करने से बाज नहीं आता है. अपने एंटरटेनमेंट के लिए अपनी ही शादी में मौजी को पालतू कुत्ता कहकर मांस दिखाकर उसे इधर-उधर दौड़ाता है. ये देख पत्नी ममता की भौंहे खींच जाती है. अपमान का ये घूंट वो पीकर रह जाती है. वैसे ये सीन उन तमाम महानगरों और छोटे नगरों की तस्वीर है, जहां मालिक अपने कर्मचारियों से उसी पगार पर घर के काम करवाते और गाड़ियां भी धुलवाते हैं. मतलब की मालिक-मालिक होता है और नौकर-नौकर होता है. फिल्म जो केंद्रित है वो हैंडलूम के अन-ऑर्गेनाइज्ड कारीगरों पर आधारित है. मौजी इसका उस्ताद होता है. इसलिए की ये उसका पुश्तैनी काम है. उसकी पीढ़ी आते-आते उसके पिता ने ये काम बंद कर दिया है. वजह अनुभव में असफलता का हाथ लगना. विफलता के जिस दौर से एक बाप गुजरा उससे बेटे का सामना न हो. इसलिए वह अपने बेटे को इस धंधे में आने से रोकता रहता है. डॉग-शो पर पत्नी की आंखों में खुद के लिए नाराजगी देखकर नौकरी छोड़ देता है. इज्जत की रोटी के लिए पत्नी ममता की सुझाई बात पर खुद का काम शुरू करता है.

ममता हर जगह मौजी का साथ देती है. काम का आइडिया देने से लेकर, दुकान की जगह और ग्राहकों को लाने तक में. हॉस्पिटल में एडमिट मां के लिए बनाई पुरानी चादरों की मैक्सी वहां के मरीजों व उनके परिजनों को खूब पसंद आती है. हाथों हाथ ऑर्डर्स मिलते हैं. ये पहला मौका होता जब मौजी के हाथों का टेलेंट दिखता है. और यहां से पूरी फिल्म का प्रिडिक्शंस लगा लिया जाता है. फिल्म को डायरेक्टर ने मौजी-ममता को कुछ यूं दिखाया है जैसे सुई-धागा. इन्हें अलग कर दिया जाए तो किसी काम के नहीं. और एकसाथ आ जाए तो फटी किस्मत भी सील सकते हैं. वैसे फिल्म में एक अच्छे वाला डायलॉग भी है- ‘ऑल इज वेल’ or ‘एवरिथिंग इज ऑल राइट’. ‘सब बढ़िया है’. जिंदगी का हर बड़े से बड़ा बोझ इस वाक्या के जरिए ढोया जा सकता है. यानी उस वक्त जब हर चीज बोझिल मालूम होती हो. यहां तक की आकाश में छितराये बादलों के तले खुद को दबा महसूस होता हो. ममता मौजी की इस लाइन को बेहद अच्छे ढंग से जानती है. और इसका बयां भी खूबसूरती से करती है. मां के इलाज के लिए दोनों जब कोरपोरेट की नौकरी ले लेते तो हैं तो मौजी वहां खुद को मिसफिट पाता है. उसे वहां का कल्चर रास नहीं आता है. खासकर मार्केटिंग का वो फंडा जिसका वह खुद शिकार होता है. खुद की बनाई चीज कंपनी के जरिए मार्केट में उसे चार गुनी महंगी मिलती है तो वह और भी अपने अाप से बाहर हो जाता है. और ये स्वभाविक है.

वैसे हाथों के टेलेंट पर बनी ये कोई पहली फिल्म नहीं है. जो निर्मित प्रोडक्ट का कंपनी के जरिए बाजार में पहुंचने पर उसके दाम कम मिलते हो और सीधे बाजार में पहुंचाने पर उसका पूरा लाभ. बिचौलिये के कमीशन का ये खेल ‘अरविंद देसाई की अजीब दास्तान’ फिल्म में भी देखने को मिलता है. हैंडीक्राफ्ट का जो प्रोडक्ट ग्रामीण क्षेत्रों से बनकर बंबई की दुकान पर पहुंचता है तो वह और भी महंगा बिकता है. फिल्म सीधे-सीधे उन्हें प्रोमोट करती है जिनके पास खुद का कौशल है तो वह खुद का काम शुरू कर उस ऊंचाई तक पहुंच सकते है जहां मौजी पहुंचता है. साथ ही उस एेरा से भी निकलने में यकीन दिलाती है की अब जो प्रोडक्ट आप तक पहुंच रहा है वो मेड इन चाइना या मेड इन जापान नहीं बल्कि मेड इन इंडिया है.

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