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‘केस के फैक्ट्स डैमेज हो तो बड़े से बड़ा लॉयर भी कुछ नहीं कर सकता’’- जेल में बंद रेप के आरोपी से उसके वकील की ये बात वकालत करने वाले और इस फील्ड में आने वालों को सबूत और तथ्यों की अहमियत बताती है.
अपनी स्मृतियों को खंगालकर बताइए, आपने बीते दिनों में उन सबूतों, प्रमाणों, तथ्यों, जांच की रिपोर्टों को संबंधित घटनाओं से जोड़ कर क्या देखा और क्या पाया?
सबसे पहले जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के बेअसर को सही ठहराया गया क्योंकि वो अस्थाई था, कथित गो रक्षकों की पिटाई से पहलू खान की मौत मामले में सबूतों के अभाव में सभी आरोपी बरी, लिंचिंग से घायल तबरेज अंसारी की मौत का कारण पुलिस ने कार्डिएक अरेस्ट बताया, उन्नाव रेप केस में पीड़िता आरोपी विधायक के खिलाफ कार्रवाई की मांग करती रही बहरहाल उसने सड़क हादसे में परिवार को खो दिया, लॉ की छात्रा ने अपने संस्थान के सर्वेसर्वा चिन्मयानंद पर रेप का आरोप लगाया तो उसके जुटाए सबूत होस्टल से मिटा दिए गए, राज्य सरकार की उपेक्षा पर मजबूरन सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और अब बीएचयू में यौन उत्पीड़न के अभियुक्त एक प्रोफेसर की बहाली पर छात्राओं का सड़क पर उतर आना.
इन सब या इससे अलग की घटनाओं को देखकर आपने खुद से क्या सवाल किया? पूरे सिस्टम के बीच हमारा न्याय कहां है? हमारी बात कहां है? जिस वोट के साथ बहुमत की सरकार बनाई उस सुशासन के शासक ने इन बिंदुओं पर कैसा नजरिया पेश किया और उसके सकारात्मक संदेश का क्या हुआ?
डायरेक्टर अजय बहल की सेक्शन-375 फिल्म इन्हीं सब बातों को लेकर आगे बढ़ती है. पावरफुल और प्रिविलेज लोगों का दखल आखिर किस हद तक हो सकता है. साधारण परिवार की अंजली जो पेशे से कॉस्ट्यूम डिजाइनर है. फिल्म प्रोडक्शन की टीम के साथ अपने सीनियर कॉस्ट्यूम डिजाइनर के नीचे असिस्टेंट के तौर पर काम करती है. दफ्तर जाने के लिए नाव पर सवार होकर शहर पहुंचती है. बॉस को ड्रेस दिखाने उसके फ्लैट पर जाती है, जहां बॉस उसके साथ संबंध बनाता है. कुछ समझ पाते कि वो पूरा सीन एक जोर-जबर्दस्ती का नजर आता है. मामला थाने तक पहुंचता है. पुलिस अपनी पूछताछ में वो सब पूछती है जैसे कि वो एक कोर्ट का ट्रायल चल रहा हो. कितने लोग थे? क्या आरोपी परिचित था? एसॉल्ट की पोजिशन क्या थी? लास्ट पीरियड कब आया था? तमाम सबूतों के आधार पर निचली अदालत ताकतवर आरोपी को दस साल की सजा सुनाती है.
फिल्म की खूबसूरती है कि आमतौर पर जहां कहानियां खत्म होती है. वहां यह फिल्म शुरू होती है. आरोपी का मीडिया ट्रायल, फांसी की मांग, विरोध-प्रदर्शन और #मीटू कैंपेन स्क्रिन पर तेजी से आते हैं. यहां बचाव पक्ष के वकील की भूमिका में अक्षय खन्ना है. जो हाईकोर्ट का रूख करते हैं.आगे ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि किसी झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो वह सच साबित हो जाएगा. बचाव पक्ष का वकील वही करता है जो एक पेशे से वकील करता है. अपने क्लाइंट को बचाना. हाई लेवल की कोर्ट प्रोसिडिंग में स्टोरी के पहले हिस्से के लूप होल को जब बचाव पक्ष का वकील दलीलों और तथ्यों से भरता है तो वह रोमांच पैदा करती है, नजरे स्क्रिन से चिपक जाती है और हैरान करती है. दर्शकों को अभिभूत होने पर मजबूर करती है. इस कदर प्रभावित करती है कि #मीटू जैसा कैंपेन भी कमजोर पड़ता है. जी, हां वही कैंपेन जिसमें जूनियर और अधीनस्थ महिला कर्मचारियों ने पावरफुल और प्रिविलेज बॉस या सीनियर के खिलाफ आवाज उठाई थी. तब न जाने कितने न्यूज चैनलों और अखबारों से इस्तीफे हुए. शूटिंग कैंसिल हुई थी. सरकार के एक मंत्री को तो अपना पद तक छोड़ना पड़ा था. फिल्म के आखिर में पता चलता है कि यह पीड़िता की तरफ से बदले की भावना में उठाया गया कदम था.महत्वकांक्षा के पूरे नहीं होने पर खुद को नुकसान पहुंचाती और फिर अपने बॉस को बर्बाद करने के लिए पुलिस और अदालत का सहारा लेती है.लेकिन सवाल यहीं है कि क्या कोई महिला या युवती किसी एवज में अपने प्राइवेट पार्ट को डैमेज कर सकती है? ऐसा कह पाना मुश्किल है. फिर भी फिल्म शुरू में ही बताती है कि यह कहानी सच्चे केस से प्रेरित है.
निचली अदालत में जीता हुआ और हाईकोर्ट के मजबूत केस में अभियोजक (प्रोजिक्यूटर) पक्ष की तरफ से पैरवी कर रही रिचा चड्ढा का शुरुआत में कोर्ट में केस का प्रेजेंटेशन अच्छा है.उनकी मौजूदगी उम्मीद भरती है. लेकिन जैसे ही बचाव पक्ष के वकील अक्षय खन्ना केंद्र में आते हैं पूरी फिल्म उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है.जैसा की हम ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ फिल्म संजय बारू की भूमिका में उनको देखते हैं. कोर्ट की प्रोसिडिंग के वक्त जब-जब कैमरा आरोपी रोहन की तरफ जाता है ऐसा लगता है कि केस जीतने के करीब पहुंच कर वह परिवार की चाहत में जज के सामने यह कबूल न कर ले की वह दोषी है.यह फिल्म कई जगहों पर फिल्म पिंक की याद दिलाती है.