Thursday, 5 April 2018

फिल्म 'बवंडर' : रेप का वो मामला जिसके लिए औरतों का आंदोलन हुआ और विशाखा गाइडलाइन्स बनीं


राजस्थान में बनी फिल्मों में बवंडर अल्टीमेट हो सकती है। ये फिल्म राजधानी जयपुर यानी पिंक सिटी से शुरू होती। रिक्शे पर सवार रवि और ऐमी के बीच बातचीत से फिल्म गांव डाबड़ी में खुलती है। रेतीले तूफान बवंडर का नाता शहर से नहीं गांव से हैं, जहां घर के लिए महिलाओं को पानी जुटाने में दिन का एक-चौथाई वक्त बीताना पड़ता है। जगमोहन मूंधड़ा के निर्देशन में बनी ये फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है। भंवरी देवी प्रकरण। 21वीं सदी की नहीं, 20वीं सदी के जाते-जाते अंतिम दशक की घटित घटना। जिसकी सूर्खियों ने न सिर्फ देश के अखबारों में बल्कि विश्व के अखबारों में भी जगह बनाई। हालांकि निर्देशक मूंदड़ा ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी कहानी में दिखाए गांव और किरदारों के नाम काल्पनिक है। दर्शक इस फिल्म को कई तरह से देख सकते हैं। जैसे रेप पीड़िता की मजबूत इरादों के साथ न्याय के लिए लड़ाई, राजस्थान सरकार बनाम तेजकरण व अन्य या किसी बलात्कार के प्रकरण में पीड़िता पर किताब लिखने के लिए किस-किस तरह के फैक्ट्स की जरूरत होती है। ऐमी भी रेप पीड़िता सांवरी पर किताब लिखने के लिए लंदन से जयपुर आई है। इस काम में उसकी मदद लोकल दोस्त रवि करता है।


रवि                                       :             भाई साहब डाबड़ी ले चलोगे।
ऊंट गाड्डा चालक                  :              चालसा... डाबड़ी कूं जाणा है।
रवि                                       :             मेरी दोस्त राजस्थान पर किताब लिख रही है।
ऊंट गाड्डा चालक                  :             राजस्थान पर किताब लिखनी है तो जयपुर जाओ,
                                                          जोधपुर जाओ, जैसलमेर जाओ..बटे राजा है, महाराजा
                                                          है, किला है...  डाबड़ी में काई   राखो है?
                                                          बस एक ##...सांवरी।
ऊंट गाड्डा चालक का साथी     :             उस पर पुस्तक लिखेंगे तो सरस्वती क्रोधित हो जाएंगी।

उपरोक्त वकतव्य दाबड़ी के रेतीले रास्ते में रवि-ऐमी की जीप फंसने के बाद ऊंट गाड्‌डे की सवारी के दौरान सांवरी के लिए हिकारत भरे स्वर में अपशब्दों का इस्तेमाल खौफ पैदा करते हैं। दोनों सांवरी के घर पहुंचते हैं। जुबानी कहानी सुनने के साथ फिल्म सात साल पीछे फ्लेशबैक में चलती है। अनपढ़ सांवरी अपने रिक्शा चालक पति, दो बच्चे और सास-ससुर के साथ सामान्य सा जीवन जीने की उम्मीद रखती है। इसके लिए घर पर घड़े बनाने के अलावा मजदूरी भी करती है। कुछ-कुछ मनरेगा वाला सा। मिट्‌टी से गड्‌ढे भरने का। कम मजदूरी मिलने पर सांवरी अपनी ओढ़नी को मीटर का पैमाना बताकर ठेकेदार से पूरा पैसा वसूलती है। हक की लड़ाई की ये चर्चा जयपुर पहुंच जाती है। ये सुनकर नारी विकास के लिए साथिन नाम की एनजीओ चलाने वाली शोभा सांवरी से मुलाकात करती है। उसे ऑफर करती है कि महिला अधिकारों के काम के बदले में पैसे भी मिलेंगे। पहली मर्तबा संकोच में आकर मना करने के बाद सांवरी अनापेक्षित मजबूरी में आकर वो साथिन बनकर काम करने के लिए तैयार हो जाती है।

पंडित के बगैर शादी सिर्फ आखा तीज पर होती है। इसलिए कि इस दिन को शुभ माना जाता है। राजस्थान के ग्रामीण समाज में एेसी शादियां खूब होती है। खासकर सामूहिक बाल विवाह । वजह उनके समाज का छोटे दायरे में सिमटना। ऐसी कुप्रथा को शास्त्रों के मुताबिक उचित बताकर धार्मिक नजरिये से मान्य बना देना। और उनके न मानने पर असुरक्षा और अपशकुन के भाव को मजबूती दे कर समर्थित धारणा तैयार करना। इसी से प्रेरित है बवंडर फिल्म का समाज। इसके रखवाले है सरपंच, मंदिर का पुजारी और ऊंची जाति कुछ प्रभावशाली लोग। ये लोग उस वक्त भड़क जाते है जब पुलिस उनके सामूहिक बाल विवाह कार्यक्रम को बाधित कर देती है। नाराज ये लोग गांव में सांवरी और उसके परिवार का हुक्का पानी बंद कर देते हैं। यहां समाज को देखने का नजरिया है। जब समाज के वर्चस्ववादी लोगों को नीची जाति के लोगों से चुनौती मिलती है तो वह सहन नहीं होता। उसकी कीमत सांवरी को बेइज्जत होकर चुकानी पड़ता है।

सच्ची घटना पर आधारित फिल्मों के साथ सबसे बड़ा चैलेंज होता है कि डायरेक्टर उस कहानी के मूल के साथ छेड़छाड़ न करे। अगर करता है तो कहानीअपनी विश्वसनीयता खो बैठती है। इसलिए यहां डायरेक्टर मूंदड़ा की तारीफ की जानी चाहिए कि उन तमाम पहलुओं को दिखाया जो सांवरी को थाने में अपनी रिपोर्टर दर्ज करवाने के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। पुलिस का असहयोग, निम्न वर्ग पर करप्ट पुलिस का रौब, रेप केस में डॉक्टरी जांच की रिपोर्ट चाहिए, पर गांव के पीएचसी में महिला डॉक्टर की गैर मौजूदगी और फिर केस दर्ज से पहले मजिस्ट्रेट के ऑर्डर। पूरी प्रक्रिया एक बीमारू सिस्टम के चेहरे को बेनाकाब करती है। पांच मर्दों की सताई संवारी का दर्द जब दिल्ली पहुंचता है तो वहां की एनजीओ द्वारा खुद के हित साधे जाते है। उनकी नजर में ये मुद्दा सेक्सिज्म और कास्टिज्म जरूर है, पर उससे पहले कैसे केंद्र में उनकी समर्थित सरकार को फायदा पहुंचाकर राज्य में विपक्ष का पार्टी को धराशाय्यी या कमजोर किया जाए? इस पर उनकी तिकड़ी सोच चलती है। उधर उन प्रभावशाली लोगों को उस क्षेत्र के विधायक धनराज मीणा का संरक्षण है। सिर्फ इसलिए कि उसी गांव के गूर्जर-मीणा के वोटबैंक के चलते कभी चुनाव नहीं हारा।


फिल्म में आरोपियों के खिलाफ सीबीआई कोर्ट में ट्रायल मजबूत कड़ी है। पक्ष-विपक्ष की बहस आपको पिंक, दामिनी, राजा की आएगी बारात और लक्ष्मी जैसी फिल्मों की याद दिलाएगी। हमने यह भी देखा है कि इन चारों फिल्मों में सच्चाई की जीत होती है। जो खुशी का एहसास दे जाती है। आखिर कहानी के अंत में दर्शक सुखद अनुभव तो लेकर जाता है। लेकिन बवंडर फिल्म में ज्यूडिशियरी कमजोर तथ्यों को दरकिनार कर प्रचलित धारणा पर फैसला सुनाती है जो आपको सिर्फ निराश करती है।

1. ऊंची जाति के लोग गांव में नीची जाति के लोगों से शारीरिक संबंध नहीं बना सकते।
2. जवानी के उफान उम्र में किया जाने वाला बलात्कार जुर्म हो सकता है लेकिन ढलती उम्र में कामुकता का मनोरंजन नहीं हो सकता है।
3. एक ही परिवार के बड़े-छोटे एक साथ मिलकर बलात्कार नहीं कर सकते कारण भारतीय समाज संस्कृति में इसकी जगह नहीं।
4. अगर पति उस मौके पर मौजूद था तो वह बचाने या किसी तरह की मदद क्यों नहीं कर सका।
(सांवरी ने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल डाली, मामला पांच साल तक चला। न्याय की मांग शांत निष्क्रीय होती इससे पहले एनजीओ के बैनर तले महिलाओं ने कार्य स्थाल पर सुरक्षा की मुहिम छेड़ दी। उस आंदोलन से फैले असंतोष को शांत करने और उनकी याचिका पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइ जारी की।)

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