Saturday, 18 August 2018

गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन- 200 सालों की गुलामी पर गोल्ड की चमक में कितना सुकुन!

कहानी- जोश की, जुनून की, ज़ज्बे की और सेंटर फॉरवर्ड प्लेयर की जगह फैक्ट्स में टकराहट की 



एक पीढ़ी ने सपना देखा दूसरे ने साकार किया.  गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन फिल्म की ये लाइन कानों में पड़ते ही दिल में समा जाती है. सीना चार गुना चौड़ा हो जाता है. और हो भी क्यों न? जब पूरे विश्व की निगाहे हमारी जीत पर टिकी हो. आजादी के बाद 1948 में हुए लंदन ओलंपिक में हमारे देश की हॉकी टीम ने पहली बार हिस्सा लिया और गोल्ड जीत लिया. यही सार है रीमा कागती की डायरेक्टेड गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन फिल्म का. फिल्म हॉकी के इतिहास से शुरू होती है. और अपने फैक्ट्स से दर्शकों को जोड़ती चली जाती है. लीड रोल में तपन दास (अक्षय कुमार) है. आजादी से पहले भारतीय खिलाड़ी ब्रिटिश इंडिया के नाम से बनी टीम में खेला करते थे. तपन दास इसी टीम के जूनियर मैनेजर है, जहां वो खुद को मैनेजर कम कुली बताकर परिचित करवाते हैं. साल 1936 में जर्मनी में खेले जा रहे ओलंपिक के फाइनल मैच से ठीक पहले एडोल्फ हिटलर का भारत के खिलाफ भाषण आता है. और उस भाषण के खिलाफ जर्मनी में विरोध होता है. नारेबाजी होती है. तपन को भी तिरंगे का उस वक्त अहसास होता है जब नाराज भारतीयों की भीड़ को ब्रिटिश इंडिया टीम की बस पर झंडा फहराने की कोशिश में वहां की पुलिस की लाठीचार्ज को सहना पड़ता है. तिरंगे के नीचे गिरने से पहले ही वो उसे लपक लेता है. यहीं से शुरू होती सम्मान से तिरंगे को लहराने की ज़िद. ओलंपिक में आजाद भारत के नाम गोल्ड की ज़िद.


यूं तो आजादी की लड़ाई के साथ-साथ विभाजन के वक्त की साइड बाय ढेरों सारी कहानियों-किस्सों पर फिल्में बनी है. डायरेक्टर रीमा की ये फिल्म भी उन्हीं का हिस्सा है. फिल्म के अच्छे-खासे वक्त को विभाजन के दंश से जोड़ कर दिखाया है. अखबार के जरिए जब तपन को मालूम चलता है कि ब्रिटिश भारत को मुक्त कर देंगे और 1948 का ओलंपिक लंदन में खेला जाएगा तो वह सीधा आईएचएफ के पास पहुंचता है. ताकि आजाद भारत की हॉकी टीम बना सके. अपने सपनों की टीम तैयार कर सके. लेकिन इतिहास के पन्ने पर एक और घटना होनी बाकी थी. भारत-पाकिस्तान का बंटवारा. इस बंटवारे के साथ तपन की बनाई टीम भी दो हिस्सों में बंट जाती है. टीम में कप्तान इम्तियाज शाह समेत कई बेहतर मुस्लिम खिलाड़ियों को अपने मुल्क पाकिस्तान लौटना पड़ता है. तब तपन का वो डायलॉग बेहद गौर करने लायक है जब वो ये कहता है कि- “लाइन खींचने वाले को मालूम ही नहीं कि लाहौर किधर और लुधियाना किधर है”. यहां कमलेश्वर की नॉवेल कितने पाकिस्तान में लिखी वो लाइन  याद आती है जिसमें जुलाई, 1947 में माउंटबेटन ने बैरिस्टर सिरिल रेडक्लिफ को देश को बांटने का काम सौंपा था. जो न समाजशास्त्री था और न भूगोलविद. पांच हजार साल पुरानी सभ्यता को चंद दिनों में तोड़ हजारों  किलोमीटर की सरहद बना दी. फिल्म का ये सीन दर्शकों को सहज ही जोड़ता है. ब्रिटिश इंडिया टीम को 1936 के ओलंपिक में विजेता बनाने वाले सम्राट (कुनाल कपूर) की सपोर्टिव एंट्री होती है. जो तपन को फिर से नई टीम बनाने में उम्मीद बांधता है.

नई टीम बनती है तो कुछ समस्याएं भी उजागर होती है. चाहे वो फंड से जुड़ा हो या खेल के लिए मैदान से या फिर उनके लिए डॉक्टर और फिजियों की व्यवस्था को लेकर हो. सुविधाओं के अभाव का बदस्तूर दौर आज भी जारी है। फेडरेशन में राजनीति की वजह से खिलाड़ियों का खेल कम अफसरों का खेल ज्यादा दिखता है. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स 2018 के दौरान देखा गया कि भारतीय खिलाड़ियों को फिजियों की सेवाएं नहीं मिल पाई थी। 327 एथलीट के साथ महज दो डॉक्टर भेजे गए थे. गोल्ड फिल्म का इस तरफ संकेत अच्छा है. मैनेजमेंट की कुछ तो कमी रही होगी जो आजादी के बाद खेले गए पहले ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम को मैच नंगे पांव खेलना पड़ा था.

फिल्म कहीं पर रीयल बेस्ड स्टोरी लगती है तो कहीं फिक्शनल लगती है. डायरेक्टर रीमा ने खूब सारा फैक्ट्स डाला है. चाहे वो पहले विश्व युद्ध की बात करती हो या दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ओलंपिक को लेकर भारत के नजरीये की या फिर साल 1928 में ब्रिटेन की साजिश के चलते भारत को ओलंपिक से बाहर रखने की बात हो. फिल्म देखने पर मालूम चलता है कि नई पीढ़ी की टीम में हिम्मत सिंह और कुंवर रघुवीर सिंह के बीच सेंटर फॉरवर्ड खेलने की बजाय फैक्ट्स की टकराहट ज्यादा दिखती है. क्योंकि जब भी हम हॉकी का नाम लेते हैं तो जहन में सबसे पहले मेजर ध्यानचंद की तस्वीर आती है. ठीक उसी तरह जैसे सचिन का नाम लेते क्रिकेट की तस्वीर बनती है. पूरी फिल्म में हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद का जिक्र नहीं है. अच्छा होता कि फिल्म के जरिए दर्शक हिटलर का भारत के खिलाफ दिए गए बयान को भी जान पाते. लेकिन वो भी नादारद है. कम से कम ऐसी उम्मीद बिल्कुल भी नहीं की जा सकती कि जहां आप (रीमा जी) हॉकी की दीवानगी से फिल्म की सजावट कर रही हो और वहां फैक्ट्स से समझौता कर उसकी चमक पर पर्दा डाल रही हो.




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