कहानी- जोश की, जुनून की, ज़ज्बे की और सेंटर फॉरवर्ड प्लेयर की जगह फैक्ट्स में टकराहट की
एक पीढ़ी ने सपना देखा दूसरे ने साकार किया. गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन फिल्म की ये लाइन कानों में पड़ते ही दिल में समा जाती है. सीना चार गुना चौड़ा हो जाता है. और हो भी क्यों न? जब पूरे विश्व की निगाहे हमारी जीत पर टिकी हो. आजादी के बाद 1948 में हुए लंदन ओलंपिक में हमारे देश की हॉकी टीम ने पहली बार हिस्सा लिया और गोल्ड जीत लिया. यही सार है रीमा कागती की डायरेक्टेड गोल्ड : द ड्रीम दैट यूनाइटेड ऑवर नेशन फिल्म का. फिल्म हॉकी के इतिहास से शुरू होती है. और अपने फैक्ट्स से दर्शकों को जोड़ती चली जाती है. लीड रोल में तपन दास (अक्षय कुमार) है. आजादी से पहले भारतीय खिलाड़ी ब्रिटिश इंडिया के नाम से बनी टीम में खेला करते थे. तपन दास इसी टीम के जूनियर मैनेजर है, जहां वो खुद को मैनेजर कम कुली बताकर परिचित करवाते हैं. साल 1936 में जर्मनी में खेले जा रहे ओलंपिक के फाइनल मैच से ठीक पहले एडोल्फ हिटलर का भारत के खिलाफ भाषण आता है. और उस भाषण के खिलाफ जर्मनी में विरोध होता है. नारेबाजी होती है. तपन को भी तिरंगे का उस वक्त अहसास होता है जब नाराज भारतीयों की भीड़ को ब्रिटिश इंडिया टीम की बस पर झंडा फहराने की कोशिश में वहां की पुलिस की लाठीचार्ज को सहना पड़ता है. तिरंगे के नीचे गिरने से पहले ही वो उसे लपक लेता है. यहीं से शुरू होती सम्मान से तिरंगे को लहराने की ज़िद. ओलंपिक में आजाद भारत के नाम गोल्ड की ज़िद.
नई टीम बनती है तो कुछ समस्याएं भी उजागर होती है. चाहे वो फंड से जुड़ा हो या खेल के लिए मैदान से या फिर उनके लिए डॉक्टर और फिजियों की व्यवस्था को लेकर हो. सुविधाओं के अभाव का बदस्तूर दौर आज भी जारी है। फेडरेशन में राजनीति की वजह से खिलाड़ियों का खेल कम अफसरों का खेल ज्यादा दिखता है. हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स 2018 के दौरान देखा गया कि भारतीय खिलाड़ियों को फिजियों की सेवाएं नहीं मिल पाई थी। 327 एथलीट के साथ महज दो डॉक्टर भेजे गए थे. गोल्ड फिल्म का इस तरफ संकेत अच्छा है. मैनेजमेंट की कुछ तो कमी रही होगी जो आजादी के बाद खेले गए पहले ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम को मैच नंगे पांव खेलना पड़ा था.
फिल्म कहीं पर रीयल बेस्ड स्टोरी लगती है तो कहीं फिक्शनल लगती है. डायरेक्टर रीमा ने खूब सारा फैक्ट्स डाला है. चाहे वो पहले विश्व युद्ध की बात करती हो या दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ओलंपिक को लेकर भारत के नजरीये की या फिर साल 1928 में ब्रिटेन की साजिश के चलते भारत को ओलंपिक से बाहर रखने की बात हो. फिल्म देखने पर मालूम चलता है कि नई पीढ़ी की टीम में हिम्मत सिंह और कुंवर रघुवीर सिंह के बीच सेंटर फॉरवर्ड खेलने की बजाय फैक्ट्स की टकराहट ज्यादा दिखती है. क्योंकि जब भी हम हॉकी का नाम लेते हैं तो जहन में सबसे पहले मेजर ध्यानचंद की तस्वीर आती है. ठीक उसी तरह जैसे सचिन का नाम लेते क्रिकेट की तस्वीर बनती है. पूरी फिल्म में हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद का जिक्र नहीं है. अच्छा होता कि फिल्म के जरिए दर्शक हिटलर का भारत के खिलाफ दिए गए बयान को भी जान पाते. लेकिन वो भी नादारद है. कम से कम ऐसी उम्मीद बिल्कुल भी नहीं की जा सकती कि जहां आप (रीमा जी) हॉकी की दीवानगी से फिल्म की सजावट कर रही हो और वहां फैक्ट्स से समझौता कर उसकी चमक पर पर्दा डाल रही हो.
No comments:
Post a Comment